पूर्णता और दिव्यता की पावन भूमि का ही नामान्तर है सिद्धाश्रम, जहां पहुंचने की साधना हर तपस्वी, ऋषि, मनीषी अपने मन में संयोजे रखता है। यह आध्यात्मिक उत्कर्ष की वह दिव्य तपःस्थली है, जहां साधक अपनी साधनाओं में अमृत सिद्धि प्राप्त करने के बाद सशरीर अथवा देहपात के पश्चात् भी पहुचंने का सौभाग्य प्राप्त करके न केवल स्वयं दिव्याभास से परिपूर्ण बनता है, अपितु विश्व कल्याण के अपूर्व सामर्थ्य को प्राप्त करके अपनी भावी पीढि़यों के जीवन की सर्वतोगामिनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
तुम सब मतिभ्रष्ट हो- पूज्य गुरुदेव के स्वर में अचानक आवेग सा आ गया था- ‘तुम उस महान विभूति को सामान्य ही समझते रह जाते हो, उनके द्वारा दी दीक्षाओं के सही मूल्य का आंकलन नहीं कर पाते और उस अथाह सागर को छोड़कर छोटे मोटे पोखरों से पानी की आशा लिये भटकते रहते हो। अभी तो चेत जाओ—- ये बहुचर्चित चमत्कार दिखाने वाले तथाकथित गुरु तुम्हें कुछ भी नहीं दे सकते— देंगे तो ये तब, जब उनके पास कुछ होगा। उनकी खुद की झोली फ़टी है, वे तुमको क्या देंगे?
हम योगियों और संन्यासियों को वास्तव में तुम लोगों की बुद्धि पर हंसी आती है। तुम्हारी दशा तो उसी मूर्ख भिखारी की तरह है, जिसे दैवयोग से हीरो की थैली तो मिली और उसने कंचे समझ कर उन्हें रास्ते में बैठे बच्चों में बांट दिया—- हम जब-जब तुम्हारी स्वार्थपरता, चालाकी और मक्कारी देखते हैं, तो हमें तरस आता है कि ये कैसे लोग है, जो ऐसी देवगंगा के समीप रह कर भी अपवित्र के अपवित्र ही हैं, विकारों से युक्त हैं—।
मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं है, जिनमें कायरता हे, विरोधा सहने की क्षमता न हो, जो जरा सी विपरीत स्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हों। मुझे तो वे शिष्य प्रिय हैं, जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौसला होता है, जो विपरीत परिस्थितियों पर छलांग लगाकर भी मेरी आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने की क्रिया करते हैं, जो समस्त बन्धनों को झटक कर भी मेरी आवाज को सुनते हैं—-और ऐसे शिष्य स्वतः ही मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं, उनका नाम स्वतः ही मेरे होठों से उच्चरित होने लगता है और वे मेरे हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं।
पूर्णता तो तब संभव होती है, जब शिष्य गुरु के चरणों में सिर रखकर आंसुओं से उनके चरणों को धोए, अपने को पूर्ण विसर्जित करें, उसका हृदय गद्गद् हो जाय, गला भर जाय, और रूंधो हुए गले से जो कुछ शब्द निकलें, तो ‘गुरुदेव’ शब्द ही निकले।
समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं हो सकता और न ही गुरु की आरती उतारने से आ सकता है। समर्पण का तात्पर्य है, कि गुरु जो आज्ञा दें, उसका बिना नानूच किये पालन किया जाए।
शिष्य तो वह है, जिसकी हर समय मन में यही इच्छा हो, कि मैं गुरु के पास दौड़कर पहुंच जाऊं— हो सकता है कोई मजबूरी हो, नहीं जा सके, यह अलग चीज है, मगर मन में उत्कष्ठा हो, तीव्र इच्छा हो, छटपटाहट बनी रहे कि उसे हर हालत में गुरु के पास पहुंचना है।
जीवन का मतलब केवल जिन्दा रहना नहीं है, सांस लेना नहीं है। केवल भोजन करना और विवाह कर संतान उत्पन्न करना भी जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य तो इस बात में है कि मनुष्य इस बात को समझ सके कि मेरा जन्म क्यों हुआ है?
यह चिन्तन किसी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि में नहीं हो सकता। देवताओं और राक्षसों में भी जन्म लेने की क्रिया नहीं है, इसलिए मनुष्य जन्म को ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ क्रिया कहा गया है।
परन्तु जिसके जीवन में यह चिन्तन नहीं है कि मुझे प्रभु ने क्यों जन्म दिया है, मेरे जीवन की क्या गति है? जिसमें यह धारणा नहीं है, तो उसमें और पशु में कोई अन्तर नहीं है।
उस पशु जीवन से केवल गुरु ही उठा सकते हैं। क्योंकि जिन्होंने जन्म लिया ही नहीं वे इस मर्म को नहीं समझ सकते। परन्तु गुरु ने जन्म लिया है और जन्म लेकर पूर्णता तक पहुंचा है, इसलिए वह शिष्य को उस जगह तक पहुंचा सकता है।
किसी न किसी जीवन में, कभी न कभी तुमसे जरूर वायदा किया होगा कि मैं तुम्हें अमृतत्व का पान कराऊंगा—-और इसी वायदे को निभाने के लिए मैं इस धरती पर आया हूं— और आवाज दे रहा हूं तुम्हें अपने पास बुलाने के लिए जिससे मेरे द्वारा किया गया वायदा पूरा हो सके।
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