जीवन का सर्वाधिक मूल्यवान सूत्रः चित्त के अंधेरे कक्षों में रोशनी को ले जाना है। ज्ञान के उस प्रकाश के पहुंचते ही चित्त में परिवर्तन होना शुरू हो जाता हैं। जो कलियां सुप्त थी वह खिलकर फूल बन जाती है। मनुष्य के भीतर जो प्राण शक्ति लुप्त थी, वह जाग उठती हैं और जिस दिन प्राण शक्ति पूर्णरूपेण जाग जाती हैं, उस दिन प्राणों में एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। फिर मनुष्य तीन हिस्सों में खंडित नहीं रह जाता। उसके भीतर फिर कोई द्वंद्व, कोई कलह नहीं रहता। उसके भीतर एक शांति स्थापित हो जाती हैं। थोड़ा बहुत प्रकाश मौजूद है। यदि उतना भी प्रकाश मौजूद न होता तो फिर हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। लेकिन थोड़ा प्रकाश मौजूद है। हमारे मन के किसी कोनो में एक दीया जला हुआ है, वहां रोशनी हो रही है। उसी रोशनी में आप सद्गुरुदेव की बातें सुन रहे हैं। उसी रोशनी में आप चल रहें हैं। उसी रोशनी में आप जी रहे है, विचार कर रहे है, उठ रहें हैं। छोटी सी रोशनी में।
इस रोशनी को कैसे बड़ा करें?
यह जो छोटा सा चेतन मन है, इसका हमने पदार्थ में प्रयोग किया है। इतनी बड़ी दुनिया खड़ी हो गई विज्ञान की। हम पदार्थ में प्रवेश करते गए, और हमने अणु को और अणु के भी गहरे न्युट्रान, इलेक्ट्रान को जाकर खोज लिया, बड़ी शक्ति हाथ में आ गई। यदि हम इस चेतना का उपयोग बाहर न करके भीतर करें तो जिन लोंगों ने बाहर प्रयोग किया है, वे अणु तक पहुंच गए। जो व्यक्ति अन्दर उपयोग में लाता है, वह आत्मा तक पहुंच जाता है। यही वह रोशनी है, दीया है। हम घर के बाहर रोशनी करते हैं तो रास्ता दिखाई पड़ता है। घर के भीतर करते हैं तो घर के कष्ट दिखाई पड़ते हैं। ध्यान इस रोशनी को भीतर ले चलने की ही क्रिया है। आंख बंद करके हम अन्दर उतर कर प्रकाश को बढ़ाने की कोशिश करते हैं।
हमारे चेतन मन में जो-जो वृत्तियां उठती हैं, अगर हम एक-एक वृत्ति को पकड़कर उसका पीछा करें तो उस अंधेरे कमरे में हम पहुंच सकेंगे। जहां से वह वृत्तियां जन्म लेती है। एक कमल का फूल एक तालाब पर खिला है। फूल ऊपर दिखाई पड़ता है। उस फूल के नीचे कहां से वह फूल आया है, कहां उसकी जडे़ं हैं, वह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। सिर्फ फूल दिखाई पड़ता है। अगर फूल की डंडी के माध्यम से धीरे-धीरे हम वहां पहुंच जाएंगे, नीचे जमीन के अन्दर जहां उसकी जड़ें छिपी हैं। जहां से उनका जन्म हुआ था। तो मनुष्य अगर अपनी वृत्तियों का अनुसरण करे, चित्त वृत्ति का पीछा, चित्त वृत्ति के पीछे-पीछे जाए तो धीरे-धीरे, वह अपने गहरे अचेतन मन के तलों तक पहुंच जाएगा और उसके साथ ही निरीक्षण के साथ वह रोशनी पहुंच जाएगी, जो देखती है। मैं तो वृत्तियों के अनुसरण को ही तप कहता हूं, धूप में खडे होने को नहीं, उपवास करने को नहीं, बच्चों जैसी बातें हैं, कोई भी कर सकता है। थोडे अभ्यास भर की जरूरत है। और रोज-रोज करता रहे तो अभ्यास धीरे-धीरे पूरा हो ही जाता है।
चेतना का स्वभाव चैतन्य नहीं है। चैतन्य है स्वभाव, इसीलिये यह सब घटित होता है। अगर चेतना में ज्योति न होती, चेतना न होती तो कुछ घटित न होता। पत्थर में कहीं वासना जगती है? पत्थर पड़ा है जहां का तहां, बिल्कुल सिद्ध अवस्था में रहता है। कोई वासना की लहर नहीं उठती है। इसलिये तो हम उसे जड़ कहते हैं। इस जड़ और चेतना का ठीक से अर्थ समझें, तो जहां-जहां वासना उठती है वहीं-वहीं चैतन्य है। और जहां-जहां वासना नहीं उठती वहीं जड़ है। भभक कर उठती है। तो वासना जितनी भभक कर उठती है, उतनी अधिक चैतन्य है। इसलिए भभक कर उठती है। चैतन्य जितना बढ़ता जाता है, वासना उतनी भभक कर उठती है। इसलिए आदमी जितना विकसित हो रहा है, समय के साथ उतनी तीव्र वासना की भभक है। इससे घबराने की कोई जरूरत रहीं है। इससे बेचैन होने की कोई जरूरत नहीं है। यह सिर्फ खबर दे रही है कि चेतना का प्रकाश और चीजों पर भी पड़ रहा है, जिस पर कल नहीं पड़ रहा था। अब उनकी भी वासना है। अब चांद पर भी पहुंचने की वासना है। अब मंगल पर भी पहुंचने की वासना है। जहां-जहां मनुष्य की चेतना का प्रकाश पहुंचेगा, वहां वहां होने की वासना जागेगी। चेतना की भभक और बढ़ गयी। चेतना जहां-जहां देखेगी, जितनी दूर तक देख पायेगी, उतना ही अपने को भूलती जाएगी। चेतना का विकास हुआ है मनुष्य के इतिहास में क्रमशः आज चेतना अतीत से ज्यादा विकसित है। लेकिन वासना भी अतीत से ज्यादा विकसित है। और जितना दूर की चीज की कामना होगी उतना ही मैं अपने को ज्यादा विस्मरण कर जाऊंगा। इसलिये अतीत में जितना अपने पर लौटना आसान था, उतना आज अपने पर लौटना आसान नहीं है।
तुम्हारे में ही वह अद्वैत ब्रह्म हैं। तुम में से ही सब कुछ उत्पन्न होता है। तुम में ही सब कुछ प्रतिष्ठित रहता है और तुम ही सबका लय हो जाते हो। ‘यह जो मेरे अन्दर छिपा हुआ साक्षी है, इसको पाते ही मैं उस मौलिक आधार को पा लेता हूं, जिससे सबका जन्म, सबका स्थिर होना और सबका खो जाना है। उस मौलिक अस्तित्व का अनुभव इस साक्षी के द्वार से हो जाता है। अंतिम बात- कर्ता के द्वार से चले तो संसार मिलता है। साक्षी के द्वार से चले तो परमात्मा मिलता है। और साक्षी और कर्ता के द्वार दो द्वार नहीं है। एक ही द्वार पर लगी विपरीत तख्तियां है। हर द्वार पर होती है। बाहर दरवाजे पर लिखा होता है In अन्दर जाने हेतु। अन्दर लिखा होता है Out बाहर जाने हेतु। दरवाजा एक ही है। भीतर से जिसे जाना है उसके लिए बाहर का है, बाहर से जिसे जाना है उसे भीतर का है।
चेतना जब वस्तुओं की तरफ जाती है, तो वह कर्ता है और चेतना जब वस्तुओं की तरफ से वापिस अपनी तरफ आती है, तो यह साक्षी है। सिर्फ दिशायें अलग है, द्वार एक ही है। वस्तुओं पर जाती है तो संसार है-अंनत। स्वयं पर आती है तो परमात्मा है- अनंत
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