तुम नदी बन जाओ, क्योंकि प्रेम की कल्पना, प्रेम की भावना नदी जानती है। वह नदी गंगोत्री से रवाना होती है, जहां पत्थर की बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं—मगर नदी को उसका एहसास नहीं होता, नदी तो बस आगे की ओर गतिशील होती है, उसका लक्ष्य, उसका चिन्तन, धारणा एक ही है, कि मुझे समुद्र में जाकर लीन हो जाना है।
समुद्र खुद आगे चलकर गंगोत्री के पास नहीं जाएगा। कि गंगा तुम आओ मुझे मिल लो, गंगोत्री से गंगा खुद उतर कर समुद्र तक जाएगी। यदि गंगा नहीं जाएगी, बीच में सूख जायेगी, तब भी समुद्र अपनी जगह को नहीं छोड़ेगा। समर्पण तो शिष्य को ही करना पड़ेगा।
मनुष्य की दुर्धार्ष प्रवृत्तियां स्वतः अपने आप में जन्म लेती हैं, उनको बैलेंस करने के लिये सिद्धाश्रम कुछ विशिष्ट योगियों, कुछ विशिष्ट महात्माओं को इस मृत्यु के प्राणियों के बीच भेजता है, जो अपनी पवित्रता और दिव्यता के सन्देश के माध्यम से उन लोगों में आध्यात्मिक चेतना पैदा करते हैं।
समर्थ और योग्य गुरू का मतलब है – उसको सिद्धियां प्राप्त हों, ऐसी सामर्थ्य प्राप्त हो, जो आपको ले जा सके अपने साथ और सिद्धाश्रम को दिखा सके, उन योगियों को दिखा सके, उनके पास बिठा सके।
प्रत्येक युग में और प्रत्येक परिस्थिति में सिद्धाश्रम के योगी अलग-अलग नामों से, अलग-अलग रूपों में पृथ्वी तल पर अवतरित हुये हैं, और आम लोगों की तरह रहकर ही उन्होंने जीवन यापन किया है, चाहे वे कृष्ण हों या राम हों या शंकराचार्य।
सिद्धाश्रम के योगियों ने अपने जीवन में कोई विशिष्टता नहीं रखी, क्योंकि समाज का भाग बनकर ही समाज को चेतना दी जा सकती है, परन्तु यदि समाज ऐसे युग पुरूष को पहिचान न सके, ऐसे सद्गुरूदेव के पास न पहुंच सके, तो यह युग का ही दुर्भाग्य है।
ईश्वर ने तुम्हारा जन्म एक विशेष उद्देश्य के लिये किया है, क्योंकि प्रभु की यह विशेष स्थिति है कि वह एक घास का तिनका भी बेकार पैदा नहीं करता—और तुम्हें भी यदि ईश्वर ने जन्म दिया है, तो जरूर इसके पीछे कोई हेतु है, कोई कारण है, कोई चिन्तन है।
मैं तो तुम्हें आवाज दे रहा हूं युगो-युगो से, मैं तो तुम्हें बुला रहा हूं जन्म-जन्म से, मैं तो निमंत्रण दे रहा हूं दोनों भुजायें फ़ैलाकर तुम्हें सीने से लगाने के लिये, दिल में पूरी तरह उतार देने के लिये।
मैं तो काफ़ी समय से आवाज दे रहा हूं तुम्हें, निमंत्रण दे रहा हूं तुम्हें स्वीकृति दे रहा हूं, अपने पास आने की, आकर मिलने की, मिलकर एकाकार हो जाने की, एकाकार होकर समर्पण हो जाने की, और समर्पित होकर अपने अस्तित्व को मिटा देने की।
जीवन में तुम्हें रूकना नहीं है, निरन्तर आगे बढ़ना है और इस आगे बढ़ने में जो आनन्द है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है।
समुद्र तो बांहें फ़ैलाये खड़ा रहता है, नदी वेग से आती है—और बीच में रूकावट आती है, परवह नदी रूकती नहीं—गांव आते हैं, तो गांव को बहा देती है—समाज, किनारों के अन्दर नदी को बांधाने की कोशिश करता है, तो नदी उन किनारों को तोड़ देती है। नदी तो तेजी से जाती है, बिल्कुल शान्त हो जाती है, तब उसकी लहरों से संगीत फ़ूट पड़ता है, जिसे साधना और शिष्यता की पूर्णता कहा है, ब्रह्म की उपलब्धि कहा है।
शिष्य के लक्षण, शिष्य का चिन्तन, शिष्य का विचार, शिष्य बनकर सेवा ‘मैंने’ की है। इसलिये मैं गर्व के साथ शिष्य के लक्षण और शिष्य के चिन्तन सुन सकता हूं, समझ सकता हूं।
तुम्हारे पास केवल तीन रास्ते हैं, जिससे तुम लोहे से कुन्दन बन सकते हो, और वह है सेवा, समर्पण और श्रद्धा। इन सबका समन्वय है प्रेम।
प्रेम का प्रादुर्भाव होता है विरह से, तड़फ़ से, बेचैनी से—एक खोया-खोया सा जीवन हो जाता है, शून्य में आंखें एकटक ताकती रहती हैं और आंखों में आंसू छलछला आते हैं— और कुछ पता नहीं चलता कि क्या हो रहा है। प्रेम चाहता है, कि मैं सब कुछ प्रदान कर दूं—दे दूं, अपने आप को न्यौछावर कर दूं। यह न्यौछावर करने की क्रिया प्रेम है।
समाज ने प्रेम को एक घृणित शब्द बना दिया है। जिसे आप प्रेम समझते है वह वासना है। प्रेम तो हृदय की चेतना है, हृदय प्रफ्रुल्लता है और जीवन में पूर्ण हो जाने की कला है।
गुरु को आप किसी तरह बांध नहीं सकते। केवल प्रेम के द्वारा गुरु को बांधा जा सकता है।
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