किसी भी व्यक्ति का प्रतिकूल समय और श्रेष्ठ समय ग्रहों के प्रभाव से आता है, उसमें ग्रहों का आपसी सम्बन्ध, ग्रहों की स्थिति, जन्मकुण्डली में स्थित ग्रह, ग्रहों की दशा इत्यादि सबका पारस्परिक समन्वय रहता हे। श्रेष्ठ ज्योतिषी वही हे जो प्रत्येक ग्रह पर अलग-अलग विचार न कर पूरी जन्मकुण्डली, दशा, भाव, दृष्टि पर विचार करे और इसके साथ-साथ गोचर का भी ध्यान पूरा रखे। गोचर का तात्पर्य है, वर्तमान समय में आकाशीय मण्डल में ग्रह किस प्रकार भ्रमण कर रहे हैं और व्यक्ति पर इसका कया प्रभाव पड़ रहा हे। आधी अधूरी गणनाएं कर भविष्य कथन करना व्यक्ति के मन में निराशा की भावना ही जाग्रत करना हे, जब कि एक श्रेष्ठ ज्योतिषी का कार्य व्यक्ति को उसके अच्छे समय ओर बुरे समय दोनों को ही पूर्ण रूप से विवेचन कर स्पष्ट करना है, जिससे वह अपने आपको उसके अनुरूप तैयार कर सके, अपने कार्यों को गति दे सके।
शनि देव के सम्बन्ध में जितनी अधिक भ्रान्तियां फैली हुई हैं, इतनी किसी अन्य ग्रह के सम्बन्ध में नहीं है। यदि किसी व्यक्ति का समय खराब चल रहा हे, निरन्तर बाधाएं आ रही हैं तो यही कहते हैं, कि ‘क्या बात है भाई! तुम्हें क्या शनि लग गया हे! शनि का प्रभाव हर समय विपरीत ही हो, ऐसी बात नहीं है। मैंने हजारों ऐसी जन्मपत्रियों का अध्ययन किया है जो शनि की दशा में, शनि के प्रभाव स्वरूप जीवन में अत्यन्त उच्च स्थिति पर पहुंचे हैं, शत्रुओं पर हमेशा विजय प्राप्त की हे, बाधायें उनके जीवन में टिकती ही नहीं है और ऐसे व्यक्तियों को भी देखा है, जो शनि के दुष्प्रभाव से थोडे ही समय में करोड़पति से कंगाल हो गये, मान प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई, वंश का वंश ही समाप्त हो गया। ये दोनों ही स्थितियां हैं क्योंकि शनि के सम्बन्ध में यह निश्चित बात है कि यह ग्रह अपना प्रभाव चरम रूप में ही देता है अर्थात् इस पार या उस पार। या तो व्यक्ति को आकाश की ऊंचाइयों तक पहुंचा देता है अथवा अपमान, पीड़ा, बाधा, हानि के गहरे अंधेरे में धकेल देता है।
शनि ग्रह- आयु, जीवन , मृत्यु, विपत्ति, कष्ट, रोग, दरिद्रता, पारिवारिक कलह, कृष्ण वर्ण, यौन दुर्बलता, जेल यात्रा, आकस्मिक हानि का कारक ग्रह है। कार्य की दृष्टि से यह कोयला, बिजली, चमडा, पत्थर, मशीनरी, पेट्रोल, काले रंग की वस्तुएं, तेल, तिल या तिल से बनी वस्तुएं, अस्त्र-शस्त्र, कृषि का कारक ग्रह है।
जन्मक्ण्डली में जिस स्थान पर यह स्थित होता है, उससे तीसरे, सातवें और दसवें भाव पर इसकी सम्पूर्ण दृष्टि रहती है, अपने भाव के अलावा इन तीनों भावों को पूर्ण रूप से प्रभावित करता है।
शनि तुला राशि का उच्च और मेष राशि का नीच माना जाता है। इसकी दृष्टि तीक्ष्ण तथा तात्कालिक होती है, शनि के मित्र ग्रह-राहु तथा केतु, सामान्य भाव ग्रह-मंगल तथा शुक्र हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा शत्रु ग्रह हें।
शनि एक राशि पर 30 महीने रहता हे और इस प्रकार तीस वर्ष में सभी राशियों पर भ्रमण करता हे।
शनि सूर्य पुत्र हें ओर मूलरूप से क्रूर ग्रह माने गये हैं। किसी विशेष घटनावश शनि पत्नी ने श्राप दिया कि जिसे भी तुम देख लोगे वह पूर्ण रूप से नष्ट हो जायेगा, इस कारण शनि हमेशा सिर नीचा किये ही रहने लगे क्योंकि इनकी दृष्टि अत्यन्त प्रभावकारी है। यदि शनि रोहिणी नक्षत्र का भेदन कर आता है, तो अकाल मृत्यु स्थिति बन जाती है। शनि देव ने ही अपने इस दुष्प्रभाव को दूर करने का उपाय महाराज दशरथ को बताया था। इसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली या गोचर में, लग्न में, चतुर्थ स्थान में अथवा मृत्यु भाव में शनि होगा, तो उस व्यक्ति को शनि के प्रभाव से अपने जीवन में पीडा, हानि, अपमान आकस्मिक मृत्यु प्राप्त हो सकती है, लेकिन यदि कोई पूर्ण विधि-विधान सहित शनि देव की पूजा सम्पन्न करता है, तो उस पर यह प्रभाव नहीं रहेगा।
शनि के प्रभाव के सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह भ्रमणशील ग्रह किस योग से अपना प्रभाव दे दे। अत: यह जरूरी नहीं कि शनि की महादशा में ही शनि साधना करें, अथवा शनि की साढे साती में शनि शान्ति करें अथवा जन्मकुण्डली में शनि विपरीत स्थिति में हो तभी शनि पूजा सम्पन्न करें।
प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में अनुकूलता के लिए नियमित रूप से शनि ध्यान तथा शास्त्रोक्त पूजा अवश्य करनी चाहिए।
कुछ मुहूर्त ऐसे सिद्ध मुहूर्त होते हैं कि उस मुहूर्त में यदि कोई कार्य प्रारम्भ किया जाये तो तत्काल प्रभाव देखने को मिल जाता है। इस वर्ष २२ नवम्बर को मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष अमावस्या, विशाखा नक्षत्र के साथ अत्यन्त विशेष प्रबल मुहूर्त बन पड़ा है। विशेष बात यह है कि इस दिन शनिवार भी है और शनि का वृश्चिक राशि में प्रवेश होकर अत्यन्त विशेष है और ग्रह जब अपने पूर्ण प्रभाव में होता है तो उसकी साधना करने से तत्काल शान्ति प्राप्त होती है। ऐसा विशेष मुहूर्त कई वर्षों बाद आया है।
यदि साधक अपने जीवन में शनि के दुष्प्रभाव को पूर्ण रूप से शान्त कर देना चाहता है तो उसे इस विशेष मुहूर्त पर साधना कार्य अवश्य प्रारम्भ करना चाहिए।
अमावस्या अपने आपमें सिद्ध होती है। शनि का वर्ण भी कृष्ण है और अमावस्या का रूप तो पूर्ण रूप से कृष्ण ही है। शनि के अधिदेवता, काल अर्थात् यम हैं ओर प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैँ, तथा अमावस्या को कालरात्रि कहा गया है। इस कारण यह मुहूर्त अत्यन्त सिद्ध मुहूर्त माना गया है।
रात्रि को सम्पन्न की जाने वाली इस साधना के कुछ विशेष नियम हें, जिसका पूर्ण कड़ाई के साथ पालन किया जाना चाहिए।
साधना एक बार प्रारम्भ करने के पश्चात् मंत्र जप पूरा होने के बाद ही अपना आसन छोडें।
साधक स्वयं काले वस्त्र धारण करें और आसन भी ऊनी काले रंग का ही होना चाहिए। सामने शनि देव प्रतिमा की स्थापना भी काले वस्त्र को बिछा कर करें।
शनि देव पश्चिम दिशा के स्वामी हैं, इस कारण साधक पश्चिम दिशा में स्थापना कर पश्चिम दिशा की ओर मुंह कर साधना कार्य सम्पन्न करें।
शनि देव आपके शत्रु नहीं है, इसलिए कभी भी मन में घृणा, वितृष्णा के भाव से साधना नहीं करनी चाहिए, पूर्ण कृपा प्राप्त करने की इच्छा से साधना सम्पन्न करनी चाहिए। शनि देव की जिस साधक पर पूर्ण कृपा हो जाती है वह साक्षात् काल के समान अजेय, बलशाली, तीव्र व्यक्तित्व वाला बन जाता है, बाधाओं पर इस प्रकार हावी रहता है कि उसे तीव्र उन्नति के मार्ग से कोई रोक नहीं सकता। मंत्र का जाप मन ही मन करना चाहिए, जोर-जोर से बोल कर शनि मंत्र का जप करने से कोई प्रभाव प्राप्त नहीं होता है।
इस पीडानाशक, बाधा शांति की विशेष साधना हेतु मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठायुक्त ‘शनि महायंत्र’, ‘शनि मुद्रिका’, ‘लेमिनेशनयुक्त शनि भार्या चित्र” तथा ‘शनेशचरी माला’ जो ‘रोद्रान्तक’ शनि मंत्रों से अभिमंत्रित हो आवश्यक है। इसके अतिरिक्त काले तिल ओर सरसों के साथ नैवेद्य हेतु गुड आवश्यक हे।
अमावस्या की रात्रि को साधक स्नान कर काले वस्त्र धारण कर अपने सामने एक बाजोट पर पश्चिम दिशा में काला वस्त्र बिछा कर एक तिल की ढेरी पर शनि महायंत्र स्थापित कर शनि देव का आह्वान कर उनका ध्यान करे।
अब यंत्र के सामने गुड तथा तिल का भोग लगाएं और पूजा का दूसरा क्रम प्रारम्भ करें।
शनि का तीव्र प्रभाव शनि भार्या के कारण ही हे, इस हेतु शनि पत्नी का पूजन भी साधक को अवश्य करना चाहिए, इस कारण तिल की एक ढेरी पर शनि यंत्र के बाजू में शनि भार्या प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए और पांच बार नीचे लिखे शनि भार्या स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
शनि के पूजन में मंत्र जप आवश्यक है और इस हेतु साधक शनैशचरी माला से शनि मंत्र का जप प्रारम्भ करें।
शनि मंत्र की जप संख्या निश्चित होनी आवश्यक हे, एक बार जो क्रम स्थापित करें उस क्रम का नियमित रूप से पालन अवश्य करें। मंत्र जप प्रारम्भ करने से पहले मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त शनि मुद्रिका-शनि महायंत्र तथा शनि भार्या प्रतिमा के मध्य में स्थापित करें इसे स्थापित करने हेतु एक छोटी कटोरी में तेल भरें ओर उस तेल में यह मुद्रिका डाल दें। इस मुद्रिका का प्रयोग आगे नियमित रूप से करे।
अमावस्या की रात्रि को शनि मंत्र का जप प्रारम्भ करने से पहले यह मुद्रिका सात बार अपने सिर पर घुमा कर सामने रखी कटोरी में डाल दें और एक चुटकी भर तिल कटोरी में डाल दें।
सात माला मंत्र जप करना आवश्यक है और प्रत्येक माला मंत्र जप होते ही, सात बार मुद्रिका को अपने सिर पर घुमाये पुनः मंत्र जाप प्रारम्भ करे ये प्रक्रिया मंत्र जाप पूर्ण होने तक दोहरानी है।
जब सात माला मंत्र जप पूरा हो जाये तो अपने कार्यों की बाधा शान्ति, भय नाश हेतु शनि देव से प्रार्थना करते हुए शनि स्तोत्र का पाठ करें। सामान्य रूप से साधक स्तोत्र का पाठ छोड देते हैं, जो कि उचित नहीं है।
यह स्तोत्र अचूक प्रभावकारी है और यदि प्रतिदिन एक पाठ भी न कर सकें, तो प्रत्येक शनिवार को अवश्य ही स्तोत्र पाठ करें। शनि बाधा से पीडित व्यक्तियों के लिए आवश्यक हे कि वे प्रत्येक शनिवार को एक माला शनि बीज मंत्र का जप और पांच बार शनि स्तोत्र का पाठ करें।
शनैश्चरी अमावस्या के दिन सम्पूर्ण पूजन कर, शनि मुद्रिका अपने बाएं हाथ की किसी भी उंगली में धारण कर लें तथा शनेश्चरी माला गले में धारण करें और अपनी सामर्थ्य के अनुसार शनि से सम्बन्धित वस्तुओं जेसे तेल, उड॒द, लोहा, काले बस्त्र, जूते इत्यादि का दान अवश्य करें।
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