सदूगुरु के लिए प्रिय और अप्रिय शब्द नहीं होता। उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है ओर जो शिष्य बन गया, बह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता! कया परछाई को आक्वति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदूगुरु की परछाई की तरह होते हैं।
जिसमे अपने आप को बलिदान करने का सामर्थ्य है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खड़ा कर देने ओर अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा सम्मान समाज मेँ स्थापित कर दैना ही तो शिष्यत्व है।
गुरू से जुड़ जाने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है कि वह गुरु द्वारा बताए गए पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।
यदि काई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही ले, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से ले। अन्य किसो को भो गुरु समान नहीं मानना चाहिए।
शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वह है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ लेता है।
वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार संभव है।
मलिनबुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादि से ग्रस्त, शुद्ध आचार-बिचार हीन बाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।
शिष्य के जीवन मेँ चरित्र ही सफलता और असफलता का द्योतक है। चरित्र सफल है तो जीवन सफलता को और बढ़ेगा, किन्तु चरित्र अगर असफलता की और अग्रसर है तो जीवन अवश्य पतन की और उन्मुख होगा।
शिष्य को नित्य एक नियमित समय पर नियमित संख्या में गुरु मंत्र का साधना रूप में जप अवश्य करना चाहिए, यदि बह ऐसा करता है, तो उसके जन्म- जन्मांतरीय दोषों और पापों का क्षय होता है तथा चित्त निर्मल हो जाता है, जिससे ज्ञान ओर सिद्धि की भी प्राप्ति हो पाती है! शिष्य को यथा संभव अधिक ये अधिक जब भी समय मिले, गुरु मंत्र का जप करते ही रहना चाहिए।
सच्चा और वीर शिष्य तो इस संसार का बोझा उठाकर भी सदगुरु की और प्रसन्न भाव से निहारता है।
जैसे दर्पण को स्वच्छ करने पर उसमें मुंह दिखलाई देने लगता है, उसी प्रकार हृदय के स्वच्छ होते ही उसमें सदूगुरु का रूप दिखलाई देने लगता है।
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