एक साधक के जीवन मे सबसे पुण्यदायी क्षण तब होता है, जब वह अपने-आपको सामान्य पथ से हटा कर कुछ नवीन प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता है। यदि सामान्य रूप से देखा जाए तो लगभग 75 प्रतिशत साधक साधना मार्ग का अवलम्बन प्राथमिक रूप से किसी समस्या से मुक्ति पाने के लिए ही लेते है, जबकि शेष 25 फीसदी में अधिकांशतः अपनी किसी इच्छा विशेष की पूर्ति के लिए साधना करने वाले साधक होते है। केवल एक या आधा प्रतिशत साधक ही साधना मार्ग में परम लक्ष्य को प्राप्त करने की इच्छा लेकर अथवा जीवन में कुछ नवीन घटित कर देने, कुछ विलक्षण खोज लेने की इच्छा लेकर गतिशील होते है।
एक साधक अपने साधनात्मक जीवन को किस बिन्दु से प्रारम्भ करता है, यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि जन्म- जन्मान्तरों से साधना-परम्परा से अलग एवं एक प्रकार से अपने-आपको, अपने मूल स्वरूप को भुलाकर बैठा हुआ शिष्य या साधक एकाएक उच्च अध्यात्म पथ पर चलने की तैयारी कर भी नहीं सकता, किन्तु साधक के समक्ष कुछ पग साधनात्मक जीवन में चल लेने के बाद यह निर्धारित हो ही जाना चाहिए कि उसे सभी कुछ क्रिया करते हुए, जीवन को पूर्ण मद स्वरूप में निर्माण स्वयं ही करना है उसे अपनी उन्नति के लिये किसी न किसी मार्ग द्वारा स्वयं ही प्रयास करना होता है। इसके लिये सहारे की आवश्यकता पड़ती है। वह सहारा व्यक्ति विशेष द्वारा तथा साधनात्मक मार्ग द्वारा ही मिलता है।
जीवन का ताना-बाना जिस प्रकार से गुथा-बुना होता है उसको समझाना सहज कार्य नहीं है और न व्यक्ति अपनी समस्त प्रवृतियों, इच्छाओं, आकांक्षाओं का मूल समझ सकता है। उसकी दृष्टि के समक्ष जो कुछ होता है और जहां तक उसकी स्मृति उसका साथ देती हैं, वह एक छोटा-सा फलक होता है जबकि जन्म की घटना तो इस जन्म से भी पीछे और दूर-दूर तक, कई जन्मों तक जाकर फैली होती ही है। उसको हम नकार नहीं सकते। इसका सीधा सा उदाहरण है कि व्यक्ति को अपने जीवन के प्रारम्भ के चार-पांच वर्षो की स्मृति नहीं होती, अपने बचपन की यादे धुंधली सी होती हैं या नहीं होती हैं, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि हमारा बचपन ही नहीं था? उसी प्रकार यदि पूर्व जन्म की स्मृति नहीं है तो इस आधार पर पूर्वजन्म का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता।
अनेक जन्म की तृष्णाएं, वासनाएं, कर्म, पाप राशि, पुण्य कार्य मिलकर ही एक नये जन्म का आधार बनते हैं और केवल व्यक्ति के अपने कर्म ही नहीं, साथ में जन्म- जन्मान्तरों के पूर्वजों के कर्म भी उसके साथ जुड़े होते है। इसी से जीवन में और साधना में व्यक्ति को अनेक प्रकार की बाधाएं, असफलताएं देखने की बाध्यता होती हैं।
भारतीय दर्शन इस बात की पुष्टि करता है, कि हमारा जीवन स्वतंत्र नहीं है, अपितु पूर्व जीवन से पूर्णतः जुडा़ हुआ है। शरीर तो मर जाता है, किन्तु आत्मा उसी प्रकार से क्रमिक विकास की ओर गतिशील रहती है, अब तो वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करने लगे है। पूरे जीवन के कार्यों का प्रभाव तो निश्चित रूप से पड़ता ही हैं और उसी के आधार पर हमें आने वाले जीवन में पाप-पुण्यों को भोगना पड़ता है, क्योंकि पिछले जीवन के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए ही इस जीवन का सृजन होता है।
मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, अपितु नये जीवन का निर्माण है, फलस्वरूप मनुष्य को मुत्यु के बाद भी छुटकारा नहीं मिलता, उसे अधूरे जीवन को पूर्ण करने के लिए हर बार जन्म लेना ही पड़ता है, और इस प्रकार मनुष्य जन्म-मरण के इस चक्रव्यूह से कभी निकल ही नहीं पाता, अपितु और ज्यादा उसमें उलझता ही चला जाता है।
यह मानव-जीवन प्राप्त होना ही बहुत बड़े सौभाग्य की बात होती है क्योंकि यह मानव-जीवन पुण्य कर्मों के आधार पर ही प्राप्त होता है, इसे यूं ही गंवा देना, तो अज्ञानता कही जाती है।
चौरासी लाख योनियों में भटकने के उपरान्त ही मनुष्य को यह जीवन प्राप्त होता है। और वह भी आधा- अधूरा अपूर्ण रह जाय तो फिर जीवन का अर्थ ही क्या रह जायेगा! उसे अपने खाने-पीने, रहने-सहने, उठने-बैठने के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता, वह अपना समय व्यर्थ के कार्यों में ही व्यतीत कर देता है और उसी को जीवन कह देता है, क्योंकि उसे इस बात का कोई महत्व, कोई चिन्तन, कोई विचार हैं ही नहीं कि जीवन के आने वाले समय में क्या करना है?
व्यक्ति अपनी निद्रावस्था में ही चलता रहता है, और अपने पूरे जीवन को उसने नींद में ही स्थापित कर दिया है, इसलिए वह अपने जीवन को व्यर्थ के प्रयोजन में ढो रहा है, जिसका कोई लक्ष्य, कोई मर्म है ही नहीं। अब प्रश्न यह उठता है, कि क्या हमारा लक्ष्य इस पूरे जीवन को यूं नींद में ही व्यतीत कर देना है? क्या यही वास्तविक रूप में जीवन है? नहीं, वह व्यक्ति तो मृतवत् ही है, जो अपने कंधों पर अपनी ही लाश को ढोये जा रहा है— और दुःख, विषाद, मलिनता को ही जीवन मान बैठा है, ऐसा जीवन तो कोई भी जी लेगा।
यह मनुष्य-शरीर जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है।
भगवान की कृपा से ही जीव मनुष्य-शरीर धारण करता है। आज तक जितने भी महान पुरुष हुए हैं, वे सब मानव देहधारी ही तो है। यह मानव शरीर विशिष्ट हेतु ही प्राप्त होता है। और जो उस हेतु को समझ लेता है, वह जन्म-मरण के चक्रव्यूह को तोड़ कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि वह भली-भांति समझ लेता है, कि मनुष्य जन्म विषय भोगों को भोगने के लिए ही नहीं हुआ है।
किन्तु जो इस उत्तम देह अर्थात् मनुष्य तन को पाकर भी अपनी आत्मा का कल्याण नहीं करता, वह कृतघ्न है, मूर्ख है, अज्ञानी है। मनुष्य का आवागमन अर्थात् विभिन्न योनियों में जन्म लेने और मरने के क्रम से मुक्त हो जाना ही मोक्ष हैं। आज के युग में मनुष्य को देखते ही हमें यह अनुमान हो जाता है, कि वह प्रसन्न है या दुःखी, क्योंकि उसके माथे की सिकुड़न और चेहरे की रेखाएं यह प्रदर्शित कर देती है, कि उसके मन की स्थिति कैसी है? मनुष्य होना कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं और मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह कर्म-पथ पर आगे बढ़ता हुआ ऊर्ध्वमुखी बने ।
व्यक्ति जीवन भर छल, झूठ, पाप करता हुआ अन्त में जब मृत्यु की गोद में सो जाता है, तब सोचता है कि यह क्या हुआ!
अब और नहीं भटकना पड़ेगा, क्योंकि आप भी अपने पूर्वजन्मकृत दोषों का निवारण कर, चौरासी लाख योनियों से छुटकारा पाकर इसी जीवन में साधना एवं तपस्या के बल से सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने में समर्थ हो सकते है, यदि आपको उस मंत्रशक्ति का पूर्णतया भान हो तो—-और जब ऐसा हो जायेगा, जब उस चिन्तन का अर्थ अपने-आप ही समझ में आ जायेगा, कि कैसे इस जीवन- संग्राम में विजय प्राप्त की जा सकती है और वह भी इसी जीवन में।
आज का मानव यही सोचकर बैठा है, कि सुख आज नहीं तो कल प्राप्त हो जायेगा——और इस तरह अपने कई जन्मों को गंवा दिया, फलस्वरूप हर बार नया जन्म लेना पड़ता है और यह आवागमन का चक्र भी निरन्तर चलता रहता है, क्योंकि उसने सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ रखा है।
अभी तक उसका चिन्तन चला आ रहा है और वही उसे हर बार मृत्यु की ओर ढकेल देता है। यह जन्म-मरण का खेल और दुःख, दैन्य, पीड़ा, रोग, शोक, किसी भी कार्य में असफलता हमें अपने कर्मों के द्वारा ही मिलती है, और इसी कारणवश हमें चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है।
यदि इसी जीवन में पूर्ण होना है, सफल होना है, अपने जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाना है तथा समस्त दोष बाधाओं को समाप्त कर भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करना है और एक मानवीय जीवन के लिए अपेक्षित समस्त सुख-भोगों को साधक को पाना है, तो ‘पांपाकुशा’ से बढ़कर सर्वग्रही और कोई प्रयोग नहीं।
पापांकुशा का तात्पर्य है- इस जीवन के साथ-साथ पूर्वजन्म के पाप कर्मों को समाप्त कर देना, उन पर अंकुश लगा देना, जीवन के अधूरेपन को, अधंकार पूर्ण क्षणों को दुःख और दारिद्रय से अनुपीडि़त दुर्भाग्य से दूषित रेखा को सौभाग्य में बदल देना तथा जीवन पथ में आये विघ्न देने वाले अवरोधों को समाप्त कर देना—- और जब ऐसा हो जायेगा, तो सफलता स्वयं आपके कदम चूमेगी, फिर कोई दुःख जीवन में कैसे रह सकता है, फिर दरिद्रता, निर्धनता कैसे रह सकती है— फिर कोई अभाव रहेगा ही नहीं।
यह साधना अपने-आप में श्रेष्ठ और अद्वितीय है, इसके जैसा तीक्ष्ण प्रभावकारी प्रयोग, जो आगे-पीछे के समस्त पापों से मुक्त कर जीवन को प्रभावशाली और सर्वश्रेष्ठ बना दें, इस साधना को बार-बार सम्पन्न करना है। क्योंकि यह ज्ञात नहीं है किन-किन जन्मों के दोष हमारे ऊपर भार बनकर चल रहे है। एक-एक कर जीवन के अवरोधों को हटाना ही पांपाकुशा साधना है।
साधक को ‘पाप मुक्ति यंत्र’ ‘पापांकुशा गुटिका, ‘पापमोचनी माला ये सामग्री पहले से ही प्राप्त कर लेनी चाहिए।
शारदीय नवरात्रि के शक्ति पर्व की पूर्णता के साथ 03 अक्टूबर को विजयादशी के दिन या किसी भी शुक्रवार के दिन सांध्य बेला से इस साधना को सम्पन्न करना चाहिए।
साधक सायं काल साधना करने से पूर्व निश्चित समय पर स्नान आदि से निवृत्त होकर पीली धोती पहनें और गुरु चादर ओढ़ कर काले आसन पर पश्चिम दिशा की ओर मुह कर बैठ जाये। अपने सामने चौकी पर एक नया काला वस्त्र बिछाकर किसी प्लेट में ‘पाप मुक्ति यंत्र’ को स्थापित कर दें। उसके पश्चात् इस यंत्र को जल में स्नान कराकर कुंकुम का तिलक लगाएं।
‘पापांकुशा गुटिका’ को भी यंत्र के सामने स्थापित कर दें और उसका भी कुंकुम, अक्षत, पुष्प आदि से पूजन करें। फिर धूप और दीप दिखाकर यंत्र और गुटिका का पूजन सम्पन्न करें।
साधक आसन पर खड़े होकर के ‘ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं’ का क्रमशः पश्चिम, उत्तर, पूर्व और दक्षिण चारों दिशाओं की ओर मुख करके ‘पापमोचिनी माला’ से एक-एक माला मंत्र जप सम्पन्न करें।
इसके बाद पहले की तरह पश्चिम की ओर मुख करके, आसन पर बैठकर मूल मंत्र का 11 माला मंत्र-जप करें।
फिर एक माला गुरु मंत्र का जप करें। प्रयोग से पूर्व ‘गुरु पूजन’ एवं मंत्र जप करना आवश्यक है। जप समाप्ति के बाद समस्त सामग्री को दूसरे दिन किसी नदी में विसर्जित कर दें तथा वापिस घर की ओर लौटते समय मुड़कर नहीं देखे। फिर घर आकर, हाथ-पैर धोकर तीन बार आचमन करें।
इस साधना से निश्चय ही साधक के चाहे वह पाप इस जन्म का हो या दूसरे जन्म के नाश होंगे ही अवश्य ही इस साधना के बाद वह अनुभव करेगा कि मेरी साधना सफल एवं निश्चित फलदायी रही है।
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