जो शिष्य नहीं बन सकता वह जीवन में कुछ भी नहीं कर सकता, वह जीवन में असफ़ल होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जो शिष्यता नहीं सीख सकता, उसके चेहरे पर ओज नहीं आ सकता, उसकी चाल में दृढ़ता नहीं आ सकती, उसका सिर हिमालय से ऊंचा नहीं बन सकता, वह अपने आप में अद्वितीय नहीं बन सकता।
इस ढंग से कोई हीरे नहीं लुटाता, जिस ढंग से मैं आप पर ज्ञान लुटा रहा हूं। यह आपका सौभाग्य है कि मैं आपको उस जगह ले जाना चाहता हूं कि पूरे विश्व में आप विजयी हों। आप सफ़लता युक्त बनें और अपने शब्दों पर दृढ़ हूं और मैं आपको अद्वितीय बना रहा हूं। एक सूर्य अस्त हो तो कई सूर्य यहां उगे हुए हैं जो रोशनी कर देगें।
शिष्य जितना गुरु से एकाकार होता रहता हैं, उतना ही गुरु उसको आगे धकेलता रहता है। यह शिष्य पर निर्भर है कि वह अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित करता है या अधूरा समर्पण करता है।
अगर तुम्हारी गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं है तो व्यर्थ हैं, अगर तुममें सेवा करने की क्षमता नहीं है तो भी व्यर्थ है और यदि सेवा कर भी रहे हो, श्रद्धा कर भी रहे हो एहसान नहीं कर रहे हो, कोई एहसान नहीं कर रहे गुरु पर।
आप यदि श्रद्धा देते है, सेवा करते है, तो गुरु उस ऋण को अपने ऊपर नहीं रख सकता कोई भी गुरु शिष्य का ऋणी नहीं होना चाहता परंतु यह गुरु की विवशता है कि वह शिष्य को तब तक पूर्णता नहीं दे सकता, जब तक कि उसका अहम पूरी तरह गल नहीं जाता। तब तक सेवा के उस ऋण को धारण करना पड़ता है। न चाहते हुए भी शिष्य के कल्याण के लिए गुरु को ऋण लेना ही पड़ता है। परंतु जिस क्षण अहम् गल जाता है, शिष्य पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और गुरु भी ऋण से मुक्त हो जाता है।
मां बाप ने जन्म दिया, वह तो एक स्वभाविक क्रिया थीं, परंतु गुरु शिष्य को वापस नए सिरे से जन्म देता है, उसे चेतना प्रदान करता है, इस जीवन का लक्ष्य होता है, धारणा होती है, एक आगे बढ़ने की क्रिया होती है।
अर्जुन कृष्ण को एक सामान्य आदमी ही समझ रहा था। मगर भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जब ध्यानस्थ कर दिया, तब अर्जुन समझ सका कि ये सामान्य व्यक्ति नहीं है। इसी प्रकार यदि सद्गुरु चाहे तो किसी भी शिष्य कियी भी व्यक्ति को ध्यान की उस अवस्था तक पहुंचा सकता है।
हजारों लाखों व्यक्तियों में से कोई एक विरला ही निकल पाता है, जो सद्गुरु की उंगली पकड़ कर आगे बढ़ने की क्रिया प्रारंभ करता है। हजारों- लाखों व्यक्तियों में ये किसी एक में ऐसी चेतना प्राप्त होती है, जो उनकी वाणी को समझ सकता है। हजारों लाखों व्यक्तियों में किसी एक में ही ऐसी भावना जाग्रत होती है, जब वह सद्गुरु के पास रह सकता है, उनके साथ चलने की क्रिया करता है, वह पहिचान लेता है, उसकी आंखे पहिचान लेती हैं कि यह व्यक्ति साधारण नहीं हैं।
जीवन में श्रेष्ठता, उच्चता एवं पूर्णता तक पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पहले व्यक्ति अपनी पुरातन, सड़ी गली मान्यताओं से मुक्त हो, पुरानी परंपराओं की बेडि़यों को तोड़ डाले और स्वतंत्र हो जाए।
परन्तु यह तभी संभव होता है जब एक तेजस्वी सद्गुरु का आशीर्वाद व्यक्ति को प्राप्त हो। तभी वह पुरानी मान्यताओं के दलदल से बाहर आ सकता है और फि़र केवल अपना ही नहीं पूरे समाज का, पूरे समाज का ही नहीं पूरे राष्ट्र का, पूरे राष्ट्र का नहीं पूरे विश्व का नवनिर्माण करने में सक्षम हो जाता है।
गुरु वह परब्रह्म तत्व है जिसके सानिध्य में रहकर शिष्य या एक साधारण व्यक्ति भी ‘शिव’ बन जाता है और सभी सिद्धियों को प्राप्त करता हुआ जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर उच्चता प्राप्त कर लेता है।
परन्तु इन सबके लिए आवश्यक है कि पहले शिष्य गुरु के ज्ञान को आत्मसात् कर लें, उनके चरणों में बैठ कर स्वयं को लीन कर दे, अपनी आत्मा को उनके आत्म तत्व से एकाकार कर दें।
यह उस पीढ़ी का स्वर्णिम सौभाग्य होता है कि एक जीवित जाग्रत सद्गुरु उनके मधय में हो और उनको अपने ज्ञान से सराबोर करने की ओर अग्रसर हो। ऐसा हो तो व्यक्ति को सब कार्य छोड़कर उस युगपुरूष के चरणों में अधिक से अधिक समय बिताना चाहिए। यही मानव जीवन की श्रेष्ठता है, उच्चता है और पूर्णता है।
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