इसके मूल में अश्रद्धा है, औपचारिकता है, एक निर्वाह है कि हमें दीपावली मनानी है, दीपावली मनानी है। हमें लक्ष्मी का पूजन करना है, लक्ष्मी का पूजन करना है। और जो तुम्हारे पंडित आते हैं और जो तुम्हारे पुरोहित आते हैं उनको खुद को ही लक्ष्मी की साधना और लक्ष्मी के मंत्र का ज्ञान ही नहीं होता हे। वह तो उसी ढर्रे के साथ मंत्र बोल लेते हैं, जो उनके बाप-दादाओं ने उनको सिखाया हुआ होता है। उनको यह भी ज्ञान नहीं होता कि यह मंत्र जप सही है भी या नहीं, इसको करना चाहिये कि नहीं। इसको किस तरीके से सम्पन्न करवाना चाहिये, इसका कोई ज्ञान उनको नहीं होता। वह तो लकीर के फकीर होते हैं, वह स्वयं श्रद्धाहीन होते हे फल स्वरूप साधक भी श्रद्धाहीन रह जाता है। इसलिये भगवती महालक्ष्मी की साधना उनकी प्रसन्नता प्राप्ति, उनसे वरदान प्राप्त करने के लिये यह नितान्त अनिवार्य है कि हमारे मन में श्रद्धा हो, संकल्प शक्ति हो, गुरु हो जो तुम्हें ज्ञान दे सकें, चेतना दे सकें, सम्पर्क करके व्यक्तिगत रूप से मिलकर के उन मंत्रों को प्राप्त किया जाएं। जो अपने आप में चेतन्य हैं और आधुनिक जीवन में पूर्णता प्रदान करने वाले और फिर गुरु के पास पहुंच कर, लक्ष्मी दीक्षा प्राप्त करें। और यह दीक्षा तो अनिवार्य हैं क्योंकि इस स्वर्ण प्रभा महालक्ष्मी दीक्षा से शिष्य के पूरे शरीर में गुरु लक्ष्मी की स्थापना कर देता है।
108 लक्षिययों का आहवान करता है। धनलक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, धरा लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, आयु लक्ष्मी, वेभव लक्ष्मी, पुत्र-पोत्र लक्ष्मी, वाहन लक्ष्मी, सम्पूर्णता लक्ष्मी, सैकड़ों प्रकार की लक्ष्मी के स्वरूप हैं। इन सभी स्वरूपों को उसके शरीर में स्थापित करने से ही स्वर्ण प्रभा महालक्ष्मी दीक्षा का क्रम पूरा होता है। तभी साधक लक्ष्मी की साधना करने पर पूर्णता और निश्चिन्तता प्राप्त करता ही है, यह सत्य है।
दो टूक शब्दों में कहा जाए तो स्वर्ण प्रभा धनलक्ष्मी दीक्षा’ एक पुल बना देती है भोग व मोक्ष के बीच जिससे व्यक्ति की गति भोग व मोक्ष में निर्बाध हो सके। वह उन्मुक्त विचरण कर सके और उन्मुक्त विचरण करने वाला पुरूष ही सही अर्थों में जीवन में आनन्द की ओर अग्रसर होने में समर्थ हो पाता है। यह तो जीवन का यज्ञ है। जिस यज्ञ की स्थापना है, स्वर्ण प्रभा धनलक्ष्मी दीक्षा उसी की पूर्णाहुति है। यही जीवन का मंगलोत्सव होता है। पद, धन, यश, ऐश्वर्य, मनोवांछित कामना पूर्ति, राजनीतिक सफलता, प्रेम में सफलता आदि इत्यादि तो इसके उसी प्रकार स्वाभाविक प्रतिफल है जिस प्रकार एक राजा किसी दूसरे राज्य को विजितू करने के उपरांत सम्राट बनता हुआ उस राज्य के राजकोष का स्वतः स्वामी बन बैठता है। ऐसी दीक्षा प्राप्त करना है, जो दुर्लभ रही है, जीवन के इस संसार में योद्धा बनने के समान हे। ….. और सम्राट के पद पर उसी का स्थापन, उसी का अभिषेक होता है जो मूलतः योद्धा होता है।
पांच पत्रिका सदस्य बनाने पर स्वर्ण प्रभा धनलक्ष्मी दीक्षा ‘ उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी।
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