मैं एक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ हूं। बनारस के पास ही एक छोटा-सा जिला है ‘गाजीपुर’, इस जिले के एक छोटे से गांव में मैं पैदा हुआ हूं। जिस समय मेरा जन्म हुआ, उस समय अग्रेंजी साम्राज्य हमारे देश पर था, जगह-जगह आजादी के लिए संघर्ष हो रहा था। हम लोग भी गाजीपुर आकर बस गए थे, उस समय की परिस्थितियों को याद करके मैं आज भी रोमांचित हो उठता हूं, एक सिहरन सी दौड़ जाती है पूरे शरीर में।
गांव-गांव में आजादी का बिगुल बज रहा था, आये दिन सुनने को मिलता कि उस गांव में इतने लोग मारे गए, तो कभी सुनने को मिलता कि गांव वालों ने किसी अंग्रेज को मार दिया, अतः गोरी सेना ने उस गांव को चारों ओर से घेर लिया है—- और जब कभी ऐसा होता, तो उस गांव के निवासियों का जीना हराम हो जाता।
ऐसे संघर्षमय समय में जबकि पग-पग पर मौत का आंतक हर एक के मन में समाया हुआ रहता था, उस समय भी मैंने अपने दादा जी के चेहरे पर कभी भी आतंक का साया या चिन्ता की लकीर नहीं देखी। आज जब कभी मैं उस समय के बारे में सोचता हूं, तो मुझे इस बात का पूरा एहसास होता है, कि निश्चय ही मेरे दादाजी का वर्चस्व था जिसके कारण हम लोगों को अर्थात् मुझे, मेरे भाई-बहनों तथा मेरे परिवार के अन्य लोगों को कभी भी किसी विषम परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा।
यदि कभी कोई कठिनाई सामने आ भी जाती , तो भी उसका हल इतनी सहजता से प्राप्त हो जाता, कि सभी आश्चर्यचकित हो जाते, कुछ पलों में ही मेरे घर-परिवार ही नहीं, पूरे गांव पर छाये हुए आतंक व विषाद के काले बादल इस तरह छंट जाते, मानों कोई तेज हवा का झोंका उनको अपने आगोश में समेट कर दूर कहीं वीराने में ले उड़ा हो—- और सुख की सुनहरी किरण पूरे गांव में बिखर कर सभी को मुखरित कर गई हो।
अपने बचपन में पूजा-पाठ का वातावरण ही पाया, अतः उस समय मेरा कोई विशेष ध्यान नहीं गया था, फिर भी मेरे दादाजी की एक क्रिया प्रायः मुझे आकर्षित करती थी- जब भी कोई परेशानी का क्षण आता, तो वे बिल्कुल शांतचित्त हो आंखें बंद कर बैठ जाते और उनके होठों को कुछ बोलते हुए मैं अनुभव करता, लेकिन पूछने पर कभी भी उन्होंने इस बारे में कुछ भी नहीं बताया और टाल जाते।
दादाजी को ऐसा करता देख पहले तो मैं खेल-खेल में प्रायः आंखें बंद कर बैठ जाता था, किन्तु बाद में मुझे ऐसा करने में आनन्द आने लगा और मैं अक्सर ऐसा करने लगा। एक दिन मेरे दादाजी ने मुझे अपने पास बुलाकर पूछा- ‘बेटा! तुम ऐसा क्यों करते हो?’
मैंने कहा पहले तो मैं ऐसे ही आपको देखकर करता था, पर अब मुझे आनन्द आने लगा है, ऐसा लगता है, जैसे कि मैं बहुत देर तक इसी प्रकार बैठा रहूं।
दादाजी मुझे प्यार से देखते हुए बोले- तुम यह जो खेल खेलते हो, वह बहुत अच्छा है, पर अब तुम जब भी आंख बन्द करके बैठा करो, तो ‘ऊँ’ का निरन्तर जप किया करो। मैंने दादाजी को इस तरह बात करते देखा, तो मेरा बाल सुलभ मन उनसे मचल कर पूछ बैठा- दादाजी! आप क्या करते हैं?
मेरे इस प्रश्न पर वे होले से मुस्करा दिये और बोले-बेटा! यह एक विशेष क्रिया है, जिसके द्वारा मैंने अपनी, तुम लोगों कि तथा इस गांव की सुरक्षा का विशेष प्रबंध कर रखा है। यह एक देवी की कृपा के माध्यम से ही सम्भव हो सका है, जब समय आयेगा, तो मैं तुमको स्वयं ही सब कुछ बता दूंगा।
इतना कह कर वे चुप हो गए। मैंने भी उनसे और ज्यादा कुछ नहीं पूछा। उनके बताये हुए तरीके से खेल खेलता और ऊँ का जप करता रहता। कुछ महीनों बाद दादाजी की तबियत बहुत खराब हो गई, घर में वैद्य-हकीम आदि काफी आने-जाने लगे।
दादाजी की तबियत बिगड़ती चली जा रही थी। एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया, उनकी तबियत बहुत बिगड़ चुकी थी, सांसे उखड़ रही थीं। कुछ देर के लिए उनकी सांसे सामान्य हुई, तो वे बोले- ‘बेटा! अब इस घर की, इस गांव की सुरक्षा की जिम्मेदारी तुम्हे सौंप रहा हूं, अब तुम्हें इसका ध्यान रखना है—- मुझे अपने जीवन में—- और इतना कहते-कहते उनकी श्वास पुनः उखड़नी शुरू हो गई। पर वे अपनी बात को पूरा करना चाहते थे और टूटते शब्दों में वे बात पूरा करने का प्रयास कर रहे थे- व—–ज्रे—– -श्—–व—-री— और इतना कहते ही उनकी सांसों ने उनका साथ छोड़ दिया। उनके जाने से एक रिक्ता सी लगने लगी। मैंने ध्यान की प्रक्रिया को नहीं छोड़ा शायद उसी का प्रभाव था, कि मेरे मन में अपने दादाजी द्वारा कहे गए शब्दों या कहूं कि उनकी आज्ञा को पूर्ण करने का संकल्प मैंने ले लिया, सोचा कि शायद इसी तरह मुझे अपने दादाजी का आशीर्वाद प्राप्त हो सकेगा।
इसके लिए मैंने कई जगह वज्रेश्वरी साधना के बारे में पूछा, एक-दो जगह पढ़ने को भी मिला, परन्तु इस संदर्भ में किसी प्रकार की विस्तृत जानकारी नहीं मिली। मैं इस साधना के बारे में अधूरे संदर्भ में पूछता हुआ कई तांत्रिकों के पास तथा विभिन्न आश्रमों में गया, परन्तु मुझे कहीं संतुष्टि नहीं मिली।
समय के साथ मेरा भी विवाह हो गया और मैं घर-गृहस्थी में उलझ गया। किशोरावस्था की बात मन के किसी कोने में जा छुपी। नौकरी के संदर्भ में एक बार मुझे दिल्ली जाना पड़ा, लेकिन हड़ताल हो जाने के कारण 2 दिनों के लिए फैक्टरी बंद हो गई। वाराणसी स्टेशन पर ही मैंने तांत्रिक सिद्धियां नामक डॉ- नारायण दत्त श्रीमाली जी की पुस्तक खरीद ली थी, उसे पढ़ते हुए इच्छा हुई, कि 12 घंटे का ही सफर तो है, चलूं जोधपुर घूम आऊं।
एक प्रसिद्ध लेखक तथा तांत्रिक व ज्योतिषी से मिलने का सपना संजाये मैं जोधपुर गया। जोधपुर में जब मैं गुरुदेव से मिला, तो उन्होंने बहुत ही आत्मीयता पूर्वक व्यवहार किया, मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने घर के किसी जिम्मेदार सदस्य से मिल रहा हूं। मुझे यह एहसास नहीं हुआ, कि मैं पहली बार मिल रहा हूं। यही लगा जैसे मैं पहले भी कई बार इनसे मिल चुका हूं, क्योंकि वार्तालाप का क्रम ही गुरुदेव ने शुरू करते हुए कहा- ‘आ गए तुम? अच्छा किया’।
दो दिन वहां रहकर मैं वापिस दिल्ली आ गया, किन्तु प्रायः प्रत्येक दिन गुरुदेव की याद या उनका बिम्बात्मक स्वरूप कुछ क्षण के लिए मेरी आंखों के सामने कौंध जाता। इस कारण मेरे मन में पुनः उनसे मिलने की इच्छा हुई और कुछ दिन बाद ही आयोजित होने वाले नवरात्रि शिविर में भाग लेने के लिए जोधपुर जा पहुंचा।
मैंने वहां चल रहे शिविर में भाग ले लिया। शिविर में होने वाले साधनाक्रम को करते समय मुझे ठीक उसी प्रकार की आनन्दानुभूति हुई, जैसी कि मुझे बचपन में ध्यान करते हुए अनुभव होती थी। धीरे-धीरे मैंने सभी शिविरों में भाग लेना शुरू कर दिया और जिसके फलस्वरूप गुरुदेव से भी निकटता बढ़ती चली गई।
इसी आत्मीयता पूर्ण वातावरण में एक दिन मैंने पूज्य गुरुदेव के पास पहुंच कर उन्हें प्रणाम किया, तो उन्होंने आशीर्वाद दिया- ‘कल्याण हो’ मुझे साधनात्मक चर्चा के अन्तर्गत अकस्मात अपने दादाजी की याद आ गई और उनके कहे हुए शब्द फिर से मेरे मानस में उभरने लगे।
मैंने गुरुजी से पूछा- ‘मैं वज्रेश्वरी साधना के बारे में आपसे पूछना चाहता हूं। वे कुछ क्षण के लिए मेरी ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखते रहे और पूछा-‘यह साधना किसने तुम्हें बताई हैं?’ मैंने कहा- ‘अंतिम समय में मेरे दादाजी ने इस साधना के विषय में बताया था। उन्होंने कहा था, कि यह साधना व्यक्ति अपनी तथा अपने परिवार के साथ ही साथ गांव-घर आदि की सुरक्षा के लिए करता है’—— किन्तु इसके अतिरिक्त वे मुझे कुछ भी नहीं बता सके और उनका देहावसान हो गया।’
मैंने गुरुदेव से इसकी साधना विधि पूछी। मेरे आग्रह और मेरे द्वारा अत्यन्त जिज्ञासा प्रकट करने पर पूज्य गुरुदेव ने मुझे इस साधना की विधि समझाई और कहा- यह साधना अत्यन्त तेजस्विता युक्त है और प्रभाव अत्यन्त तीक्ष्णता से प्रदान करती है।’
वास्तव में उनका यह कथन उपयुक्त है, क्योंकि इस साधना के प्रभाव को मैंने शैशवावस्था से ही एहसास किया है, यह साधना वास्तव में ही सर्वविध रक्षा करती है। पाठकों के लाभार्थ मैं इसका साधना विधान प्रस्तुत कर रहा हूं-
1- इस साधना के लिए आवश्यक सामग्री है- ‘वज्र कड़ा’ तथा ‘वज्रेश्वरी माला’।
2- 15 जुलाई या किसी भी कृष्ण पक्ष की तृतीया को दक्षिणाभिमुख होकर गहरे नीले रंग के वस्त्र पहन कर इस साधना को करें।
3- रात को 9 से 10 बजे के बीच इस साधना को प्रारम्भ करें। सरसों के तेल का दीपक लगायें।
4- ‘वज्र कड़ा’ पर पांच काजल की बिन्दियां लगा कर अपने बायें हाथ में रख लें। कड़े के ऊपर ही दीपक को भी रखें, फिर आप जिस उद्देश्य से साधना कर रहे हैं, उसका उच्चारण कर उसके पूर्ण होने की प्रार्थना करें। कड़ा और दीपक सामने रख दें।
5- वज्रेश्वरी माला से निम्न मंत्र की 21 माला मंत्र जप दीपक की लौ को देखते हुए करें। यह मंत्र आपको पप्रासन या वीरासन में बैठकर करना है।
6- मंत्र जप के पश्चात् माला को कड़े के ऊपर लपेट दें। दीपक, माला तथा कड़े की किसी मिट्टी के पात्र में रख कर उस पात्र को किसी कपड़े में बांधकर, जमीन में गहरा गîक्का खोद कर दबा दें। यदि आप किसी कारणवश ऐसा नहीं कर सकते हैं, तो नदी में प्रवाहित कर दें।
7- जब कभी आप को परेशानी का सामना करना पड़े, आप उपरोक्त मंत्र का 21 बार उच्चारण करें तथा वज्रेश्वरी देवी से रक्षा की प्रार्थना करें।
पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से की गई साधना का फल आजीवन प्राप्त होता ही है। संशय का भाव असफलता प्रदान करता है।
ऐसे संघर्षमय समय में जबकि पग-पग पर मौत का आंतक हर एक के मन में समाया हुआ रहता था, उस समय भी मैंने अपने दादा जी के चेहरे पर कभी भी आतंक का साया या चिन्ता की लकीर नहीं देखी। आज जब कभी मैं उस समय के बारे में सोचता हूं, तो मुझे इस बात का पूरा एहसास होता है, कि निश्चय ही वह मेरे दादाजी का वर्चस्व था।
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