इतिहास उठाकर देख लें, इतिहास में ये गलतियां हुई है, गुरुओं ने गलतियां की है और शिष्यों ने उन गलतियों का लाभ उठाते हुए अपने आप को पतन के रास्ते पर डाला है। पर मैं वो गलती नहीं करूंगा जो बुद्ध ने कर दी, महावीर ने कर दी, जो शंकराचार्य ने कर दी।
अगर तुम्हारी गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं है तो व्यर्थ है, अगर तुम में सेवा करने की क्षमता नहीं है तब भी व्यर्थ है और यदि श्रद्धा कर भी रहे हो, सेवा कर भी रहे हो तो तुम कोई एहसान नहीं कर रहे हो गुरु पर।
और यदि आप श्रद्धा देते हैं, सेवा करते हैं, तो गुरु उन ऋण को अपने ऊपर नहीं रख सकता, कोई भी गुरु शिष्य का ऋणी नहीं होना चाहता। परन्तु गुरु की यह विवशता होती है कि शिष्य को तब तक वह पूर्णता नहीं दे सकता, जब तक कि उसका अहम पूरी तरह गल नहीं जाता। तब तक सेवा के उस ऋण को गुरु को धारण करना पड़ता है, न चाहते हुए भी शिष्य के ही कल्याण के लिये गुरु को ऋण ढोना पड़ता है।
ड्ढ स्वच्छ तालाब में खिले प्राकृतिक कमल की भांति मैं अपने शिष्यों के मन में कमल विकसित कर रहा हूं, ऐसे कमल जिनमें जीवन की धाड़कन हो, पवित्रता हो, दिव्यता और चेतना हो।
तुम सामाजिक वर्जनाओं की बात करते हो, तो समाज कब किसी को बढ़ने देता है। कौओं का झुण्ड कब चाहेगा कि उनमें से कोई हंस हो जाये, कीचड़ की गंदगी कब चाहेगी कि उसमें कोई कमल खिल जाये, गुलामी में सांस लेने वाले कब चाहेंगे कि कोई ताजी हवा की सुवास से सुगन्धित, मस्त और आनन्दित हो जाये।
भगवान हमें एक गुण दें, चाहे दस गुण दें, यदि हम उन्हीं का विकास करते रहेंगे तो निश्चय वृद्धि होगी। स्वयं को हीन समझना, तुच्छ समझना और बिना पुरूषार्थ किए, बिना परिश्रम किए ईश्वर को दोषी ठहराना स्वयं को धोखा देना है।
परमात्मा ने कृपा कर अवश्य ही हर व्यक्ति को कोई न कोई विशेषता, कोई न कोई गुण प्रदान किया ही है, आवश्यकता है तो अपने उस गुण को पहिचानने की और उस गुण का विकास करने की, क्योंकि एक गुण से ही और गुणों की उत्पत्ति होती है।
सद्गुरुदेव ने कहा था कि मुझे तो आवश्यकता है जीवन की जो मुझ में आकर समा जाए, मैं बाहें फ़ैलाएं खड़ा हूं। और जहां कोई शिष्य अपने ही बन्धनों द्वारा, संशय द्वारा मृत हो गया, वह सद्गुरु रूपी समुद्र में स्थायी भाव से नहीं रह सका, उसे किनारे पर आकर गिरना ही पड़ा। समुद्र की भांति जीवन्त सद्गुरुदेव के पास जीवन्त शिष्य ही रह सकते हैं। वहां मन से बुझे निर्जीव शिष्यों के लिए स्थान ही नहीं है।
तुम्हारी इस मृत देह को प्राणों का स्पन्दन चाहिए और यह तभी हो सकता है, जब मेरे प्राणों से अपने हृदय को एकाकार कर सको, मेरे अन्दर अपने आप को समाहित कर सको, मेरे इस आनन्द के प्रवाह में मस्ती के साथ स्नान कर सको।
जब तुम अपने आप को शक्तिहीन अनुभव करो, जब तुम अपने आप को मृत तुल्य अनुभव करो, तब तुम मेरे साथ प्रकृति की तरह एकाकार हो जाओ और अपने आप को स्फ़ूर्तिवान, तरोताजा बनाकर वापिस अपनी दुनियां में लौट जाओ।
समुद्र तो अपनी जगह स्थिर खड़ा, अपनी बाहें फ़ैलाए प्रत्येक नदी को अपने आप में समेटने के लिए आतुर है, आवश्यकता तुम्हें नदी बनने की है, लहराती हुई, दौड़ती हुई समुद्र की बांहों में अपने आप को विसर्जित कर देने की है, अपना अस्तित्व मिटा देने की है, और जब तुम ऐसा कर सकोगे, तब तुम में एक नया बुद्ध पैदा होगा, तब तुम में एक नया शंकराचार्य पैदा होगा, तब तुम में एक नया वशिष्ठ या विश्वामित्र पैदा होगा।
अगर ज्ञान के पुंज को प्राप्त करना है, तो तुम्हें गुरु की एक-एक कसौटी को झेलने के लिये तैयार रहना पड़ेगा, गुरु प्रहार करे और उसे तुमको सहन करना ही पड़ेगा। और फि़र भी तुम्हें मुस्कराना ही पड़ेगा, फि़र भी श्रद्धा व्यक्त करनी पड़ेगी- मन से।
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