पुराणों के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में एक महान पुरूष का प्रकटीकरण हुआ जिसे सदाशिव कहा गया। सदाशिव का तात्पर्य है वह महान व्यक्ति जिसने अपना जीवन दूसरों की भलाई के लिए, उन्हें ज्ञान प्रदान करने के लिए समर्पित कर दिया हो। इसीलिए शिव को परम आध्यात्मिक गुरु कहा गया है तथा गुरु को शिव कहा गया है। क्योंकि शिव और गुरु दोनों का कार्य मनुष्य के ऊपर छाये हुए अन्धकार को हटाकर उसे परमज्ञान, आत्मीय ज्ञान प्रदान करता है जिससे वह स्वयं को समझ सके और इसीलिए शिव ज्ञान के प्रदायक तथा रोग, शोक, पीड़ा के नाशक देव कहे जाते हैं।
शिष्य ही वास्तविक रूप से गुरु की पहचान है। शिष्य को जीवन में ऊर्ध्वगति प्रदान करते हुए गुरु को सदैव प्रसन्नता होती है और जो अपने शिष्य को योग रूपी ज्ञान से केवल आध्यात्मिक सृजन ही नहीं अपितु भौतिक रूप से वर्चस्व की ओर ले जा सकें।
‘तुम केवल बूंद हो और तुम्हें समुद्र बनना है। जब तक ब्रह्मत्व ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो पाती है तब तक पूर्णता नहीं आ पाती और जब नहीं आ पाती, तो गुरु को स्वयं ही आगे बढ़कर कुछ ऐसी क्रिया करनी पड़ती है कि उनका शिष्य कुछ बन सके, उसमें शिष्यत्व भाव का पूर्णता से जागरण हो सके, क्योंकि शिष्यता का यह भाव ही तो है जिसके सहारे समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं। शिष्य में मात्र पूर्णता की क्रिया को बीजारोपित कर देना ही नहीं, अपितु उसे सिंचित कर उसमें वह वर्चस्व स्थापित कर देना, जो ब्रह्म का साकार स्वरूप है। सद्गुरुदेव द्वारा शिष्यत्व स्थापन की यह क्रिया ही ब्रह्मत्व स्थापन स्वरूप है।
शिव वैवाहिक जीवन के प्रतीक स्वरूप हैं क्योंकि शिव तथा पार्वती का विवाह ही सृष्टि का प्रथम विवाह माना गया है और शिव जिनके माता पिता की कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती, उनके द्वारा हिमालय पुत्री पर्वती से विवाह श्रेष्ठतम् युग्म के रूप में जाना जाता है। जिससे मनुष्य अपने जीवन में धर्म के साथ काम भाव को रखता हुआ सृष्टि की रचना और उसके पालन में सहयोगी हो सके। शिव द्वारा कहे गये सिद्धान्तों को निगम कहा गया है तथा शिव सिद्धान्तों को क्रियारूप में परिणीत विधियों को आगम शास्त्र कहा गया है।
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