दोपहर की चिलचिलाती धूप में बेहद काला कलूटा सिर पर घने सूखे बाल और गौर पुरूष के समान लम्बी मोटी चोटी, छोटी पर भयानक आंखें, मोटे लटकते होंठ, दांत कुछ मुडे़, कुछ बाहर निकले, बेढब-बेडौल शरीर, माथे पर चंदन, तिलक और बगल में यज्ञोपवीत इन सबके बावजूद चेहरे पर एक अनोखा तेज लिए कुशों के समूह खोद-खोद कर उनकी जड़ों में कुछ डाल रहा था।
पसीने में लथ पथ था वह दांत किटकिटाता और जाने क्या-क्या आतुर सा बड़बड़ाने लगता था। किसी पागल के समान वह बार-बार इस काम को पूरी तेजी से कर रहा था। अश्वारोही एक राजसी पुरूष उसे दूर से देख रहा था। उस व्यक्ति की वह क्रियाएं उसे बड़ी अजब सी लग रही थीं। वह अश्वारोही पास आकर रूक गया और ध्यान से देखने लगा। उसके वेश को देखकर अश्वारोही की आंखों में एक चमक सी आ गई। होंठों पर मुस्कान खेल गयी। अश्वारोही को इस बात का विश्वास हो गया कि वह काला ब्राह्मण है, वेश ही इसकी साक्षी दे रहा था।
वह ब्राह्मण अश्वारोही को फिर से देखकर भी उसकी उपेक्षा कर गया। एक बार देख, होंठ बिदका अपने कार्य में लग गया। अश्वारोही से न रहा गया। उसने पूछा यह क्या कर रहे हो, ब्राह्मण देवता। ब्राह्मण गुस्से में बोला, अपनी रहा पकड़ो अश्वारोही किसी के कार्य की पूछताछ करना उचित नहीं है। अश्वारोही और प्रसन्न हो गया! उसका राजसी वेश देखकर भी वह ब्राह्मण किस निडरता के साथ उसे उत्तर दे रहा है। ‘फिर भी निवेदन के रूप में क्या आचार्य जी बतायेगें, बात क्या है?’ अश्वारोही ने मधुरता से पूछा। शायद राजकुल में सम्बन्ध रखने के कारण, परम्परागत ज्ञान वशीभूत होने के आधार पर वह इस बात को जानता था कि ब्राह्मण के साथ आदरपूर्वक, विनम्रता का व्यवहार करने पर वह प्रसन्न होता है।
वास्तव में वह प्रसन्न हो गया। बोला, ‘श्रीमान। यहां कुछ हैं। मेरे पैर में चुभ गया। मैं इन दुष्टों को जड़मूल से खत्म करने के लिए उनको उखाड़ कर इनकी जड़ों में मठ्ठा डालकर सदा सदा के लिए इनका अंत कर देना चाहता हूं। मैं इनके सम्पूर्ण वंश का उन्मूलन कर दूंगा।’ ‘आप धन्य हैं ब्राह्मण!’ अश्वारोही की आंखों में एक और चमक आ गयी। उसे लगा कि शायद उसके उद्देश्य की पूर्ति हो गयी है। उसे मंजिल मिल गयी है, तलाश खत्म हो गयी। अश्वारोही अपने घोड़े से उतर कर नीचे आ गया। नम्रतापूर्वक बोला, ‘भगवन! मैं आपको सादर नमन करता हूं। मेरा नाम विकटार है। मैं सम्राट नंद का महामंत्री हूं।’ ‘आपका स्वागत है’ वह काला ब्राह्मण बोला, ‘आपकी यात्रा शुभ हो। मेरी मंगल कामनाएं आपके साथ हैं। आपका आशय क्या है, आपकी यात्रा यहीं तक थी। यहां तो कोई जगह नजर नहीं आ रही है।’ ‘मैं जिस कार्य के लिए निकला था, वह सम्पन्न हो गया।’ ‘प्रसन्नता है—— अच्छा मुझे काम करने दें——।’
भगवन्! एक प्रार्थना लेकर आपके पास आया हूं। आप स्वीकार करें। वह ब्राह्मण बोला—-आप कहना क्या चाहते हैं? हां भगवन्! सम्राट नंद अपने पिता श्री का श्राद्ध भव्य आयोजन के रूप में करना चाहते हैं। इस कार्य के लिए योग्य ब्राह्मण की खोज में निकला था। भाग्य मेरा कि आप मिल गये। कृप्या आप मेरे साथ चलें। माणिक्य, मोती आपना मूल्य नहीं कहते। आप मेरे साथ चलें। सम्राट का कार्य सम्पन्न करें। ब्राह्मण सहमत हो गया और विकटार उनको अपने साथ लेकर चल पड़ा उसे इस बात का पूरा विश्वास हो गया कि अगर किसी प्रकार यह ब्राह्मण सम्राट से नाराज हो गये तो वह सम्राट का समूल नाश कर देगा और इस प्रकार मन में जो प्रतिशोद्याग्नि जल रही है, वह शांत हो जायेगी। विकटार की आंखों के सामने उसका अपना सारा अतीत घूम गया। उसके पिता शकघर को, उसकी माता और अन्य परिजनो को सम्राट नंद ने बंदीगृह में किस प्रकार तड़पा-तड़पा कर मारा था।
उन सबको एक छटांक चना और एक पाव पानी मिलता था। बूंद-बूंद पानी पीकर वह सब तड़फ-तड़फ कर गुजारा करते थें। फिर एक दिन भूख प्यास से छटपटा-छटपटा कर मर गये। उसका सारा परिवार जिस बेरहमी से मारा गया, भला वह कैसे भूल सकता था विकटार! सम्राट नंद की चाटुकारिता कर वह महामंत्री बन गया था। प्रतिशोध की ज्वाला उसके मन में आज भी धधक रही थी। विकटार शांत-खामोश—–प्रतिदिन प्रतिशोध में जल रहा था। वह विवश था। कोई सहारा न मिल रहा था। अब सहारा सा मिल गया। शायद यह ब्राह्मण उसका कार्य कर सके। बस! आवश्यकता हैं नंद उसका अपमान कर दें, अपमान अवश्य करेगा। उसका रंग ही ऐसा है कि उसे देखकर नंद भड़क उठेगा।
विकटार उस ब्राह्मण को अपने साथ ले आया। उस ब्राह्माण का वास्तविक नाम ‘विष्णुगुप्त’ था, पर अत्यन्त चतुर होने के कारण ‘चाणक्य’ नाम से प्रसिद्ध हो गया था। कौटिल्य कौन था। विष्णुगुप्त शर्मा कौटिल्य अर्थात् चाणक्य को लेकर विकटार पाटलिपुत्र आ गया। उसके रहने का प्रंबध गोपनीय रूप से कर दिया। फिर वह सम्राट नंद के समक्ष गया। ‘सम्राट, मैं योग्य पुरोहित ले आया हूं। प्रकाण्ड पंडित हैं वह हमारे साम्राज्य में उससे बढ़कर और नहीं।’ नंद प्रसन्न हो गया। विकटार ने श्राद्ध की तैयारिया कर दीं। उसका सारा प्रबंध देखकर सम्राट नंद अत्यन्त प्रसन्न हो गये। विकटार की प्रशंसा की। विकटार ने अन्त समय तक चाणक्य को छिपाये रखा। कोई उसकी सूरत भी देख न पाया। ठीक समय पर सम्राट नंद आये। तभी उनके सामने चाणक्य आया। वह पुरोहित के आसन पर बैठ गया। अत्यन्त कुरूप, काले कलूट ब्राह्मण को पुरोहित पद पर बैठे देख सम्राट नंद की त्यौरियां चढ़ गयीं।
वह चीख पड़ा, यह कौन हैं? विकटार नम्रता पूर्वक बोला, यही प्रकांड पंडित विष्णुगुप्त हैं। नंद चीख पड़ा ‘इस बदशक्ल को मेरे सामने से हटा दो। इसकी सूरत देखकर मुझे उल्टी हो जायेगी। यह ब्राह्मण हैं या चांडाल।’ दुष्ट, बेवकूफ, मूर्ख। नंद ने विकटार को धमकाया। भरी सभा में अपना घोर अपमान देखकर चाणक्य के नेत्र और भयानक हो गये। वह वहां से उठकर चला गया। विकटार मन ही मन प्रसन्न हो गया। सम्राट नंद के पास से उठकर विकटर चाणक्य के पास गया। पैर पकड़कर क्षमा याचना करने लगा। चाणक्य चीखता हुआ बोला- ‘मैं नंद का नाश करके रहूंगा’ अहोभाग्य! मैं आपका साथ दूंगा। विकटर और चाणक्य का साथ हो गया। दोनों मिलकर नंद के विरूद्ध षड़यंत्र करने लगे।
चाणक्य अत्यन्त कुटिल राजनीतिज्ञ था। नंद साम्राज्य से निष्कासित नंद के ही एक परिजन युवक चन्द्रगुप्त से उसने मैत्री कर ली और चन्द्रगुप्त को राज सिंहासन पर लाने का प्रयास करने लगा। लगातार अपने प्रयासों के कारण शनैः शनैः सफलता मिलने लगी। चाणक्य ने अपनी नीति में नंद की सेना में विद्रोह की भावना भरनी शुरू कर दी और एक दिन मौका पाकर चन्द्रगुप्त ने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। अधिकांश सेना चन्द्रगुप्त के पक्ष में गयी। देखते-देखते चन्द्रगुप्त ने राजमहल पर अधिकार कर लिया। नंद को बंदी बना लिया गया। चाणक्य के सामने लाया गया। चाणक्य ने उसे लात मारते हुए कहा, देख ब्राह्मण के अपमान का क्या परिणाम होता है। रे मूर्ख। नंद गिड़गिराने लगा।
इसकी बोटी काटकर कुत्तों को खिला दो। नंद की अत्यन्त निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गयी। पहले उसकी अंगुलियां काटकर शिकारी कुत्तों को खिलायी गयी। फिर नाक, कान काटे गये। नंद तड़फ-तड़फ कर मरा। विकटार प्रसन्न था। वह अपने परिवार की निर्मम हत्या का प्रतिशोध ले रहा था। नंद मर गया। चन्द्रगुप्त मगध का शासक बन गया। चाणक्य उसका महामंत्री बना। पंजाब, सिंध, उत्तरी पश्चिम सीमा तक चाणक्य के कुटित नीति के बल पर मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई। चन्द्रगुप्त का शासन बढ़ता गया। वह अत्यन्त तेजस्वी प्रतापी सम्राट के रूप में विख्यात हो गया। इसके पीछे चाणक्य का हाथ था। ईसा से 325 वर्ष पूर्व मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त की सारी राज्य व्यवस्था और प्रसिद्धि का आधार स्वंय चाणक्य ही था। चाणक्य ने सर्वप्रथम अर्थशास्त्र पर ग्रन्थ रचना की और नीति संग्रह भी लिखा, जो चाणक्य नीति कहलाता है।
इतिहास में चाणक्य अपना नाम अजर अमर कर गया। चाणक्य भारत का महान गौरव हैं और उनके इतिहास पर भारत को गर्व हैं।
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