विशाल सागर का विस्तार अनन्त हैं इस सागर का और अनन्त ही रहस्य छिपे हैं, इसकी अतल गइराइयों में। इसलिए हर नदी बहती हैं केवल और केवल सागर में विलीन होने के लिए। और सागर मतभेद नहीं करता, उसका विस्तार सभी के लिए सदा निमंत्रण संप्रेषित करता रहता है। परन्तु तट पर पहुंच कर वहां खडे रहने से कुछ नहीं होगा, आगे बढ़कर समाना होगा। ऐसे खुले निमंत्रण से एकाएक आप भयभीत हो जाते हैं, संकोच करते हैं, भ्रमित होते हें और अपने व्यर्थ के आभूषणों- अहंकार, मोह, लोभ आदि से चिपके रहते हैं।
वह संसार छोड़ने को नहीं कह रहा, ना ही परिवार त्यागने का तुमसे आग्रह कर रहा है, अपितु कह रहा हैं। अपने सीस को, अपनी बुद्धि को, अपनी समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात्रा में यह बाधक ही है। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह रूपान्तरण नहीं हो पाएगा, जिसका मानव जगत अधिकारी हैं। सदगुरु कहता हैं भूल जाओ, छोड़ दो सब, आ जाओं मेरी बाहों में………
गुरु देने को तैयार है, एक क्षण में यह रूपान्तरण घटित हो सकता है। इसके लिए वर्षो का परिश्रम नहीं चाहिए। । हां, पहले तो आपको तैयार होना पडेगा, सद्गुरु तो अपनी अनुकंपा हर वक्ता संप्रेषित करते ही रहते हैं, उसे ग्रहण आपको करना हैं। गंगा तो विशुद्ध जल सदा प्रवाहित करती ही रहती हैं, तृष्णा शान्त करनी है तो आपको उठकर जाना ही होगा, झुकना ही पडेगा, अंजुली में पानी भर कर होठों तक लाना ही होगा।
जब सौभाग्य जागता हैं, तो उसके लिए कोई पूर्व तैयारी नहीं की जाती हें, यह तो एक क्षण होता हें, कि सोया हुआ भाग्य करवट बदलकर एकदम से उठ बेठता है, और व्यक्ति की जीवन वाटिका में हजारों रंग-बिरंगे पुष्प सुगंध बिखेरते हुए खिल उठते हैं, शिष्य और साधक स्वतं अनुभव करने लगता हैं सद्गुरु की चैतन्यता, पूर्णता, सुगंध इसी सब का नाम अहम् ब्रह्मास्मि चैतन्य दीक्षा हें।
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