अणु से विराट बनाने की क्रिया केवल गुरु जानता है, मनुष्य से देवता की क्रिया केवल गुरु जानता है, मूलाधार से सहस्त्रार तक पहुंचाने की विद्या केवल गुरु जानता है। इसीलिए जीवन का आधार केवल गुरु है।
प्रेम भगवान और भक्त का आंतरिक सम्बन्ध है, एक पूर्ण हृदय का हृदय से सम्बन्ध है, प्राणों का, प्राणों से सम्बन्ध है, उसमें वासना नहीं है। गुरु या ईश्वर से एकाकार होने के लिए मन में प्रेम का बीज बोना पड़ता है।
शिष्य यदि सच्चे हृदय से पुकार करे तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर सद्गुरु तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरु तक पहुंचती ही है, इसमें कभी संदेह नहीं होना चाहिए।
ध्यान लगाने से आत्मा परमात्मा में लीन नहीं हो सकती, मंत्र जप से भी ऐसा संभव नहीं, क्योंकि आत्मा का परमात्मा तक पहुंचने का जो रास्ता है वह वेदना का है, तड़प का है, विरह का है, प्रेम के सागर में डूब जाने का है, तो ही जीवन में सब कुछ प्राप्त हो सकता है।
ज्ञान, चेतना, सुख, सौभाग्य, आनन्द, मस्ती, भौतिक सफ़ल, मगर तब भी यह जरूरी नहीं है कि प्रेम प्राप्त हो।
मैं तुम्हें समुद्र में छलांग लगाने की क्रिया सिखा रहा हूं। मैं तुम्हें वह क्रिया सिखा रहा हूं कि तुम आत्म साक्षत्कार कर सको, यही प्रेम की पूर्णता हैं
यदि चारों वेदों का अर्थ स्पष्ट करू तो चारों का सारभूत तथ्य एक ही है कि जीवन का प्रारम्भ प्रेम है और जीवन का अंत भी प्रेम ही है।
प्रेम की गहराई में उतरने का अपना ही एक आनन्द है, अपना ही एक अलौकिक सौन्दर्य है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति प्रेम में डूबता है, उसके चेहरे की तेजस्विता बढ़ती जाती है।
जिस क्षण गुरु यह निश्चय कर लेता है कि अब मुझे इस शिष्य को उठाकर परम अवस्था तक पहुंचा देना है तेा फि़र भले ही शिष्य में कितने ही विकार हों, गुरु सीधे उसे ध्यान के महासागर में उतार देता है, परतनु इसके लिए आवश्यक है , कि गुरु से पूर्ण प्रेम हा।
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