गुरु तो बहुत दूर की देखता है, वह देखता है कि शिष्य को जीवन की पगडण्डी पर कहां खड़ा करना है और जहां खड़ा करना है उसके लिए आज इसको कौन सी आज्ञा देनी है। इसलिए शिष्य को आज्ञा पालन में विलम्ब नहीं करना चाहिए।
शिष्य तो वह है, जिसकी मन में हर समय यही इच्छा हो, कि मैं गुरु के पास दौड़कर पहुंच जाँऊ। हो सकता है कोई मजबूरी हो, नहीं जा सके, यह अलग चीज है, मगर मन में उत्कण्ठा हो, तीव्र इच्छा हो, छटपटाहट बनी रहे कि उसे हर हालत में गुरु के पास पहुंचना ही है।
गुरु से प्राणगत संबंध होना चाहिए, देहगत नहीं। यदि यहां गुरु की तबीयत ठीक नहीं है और आपका मन बड़ा बेचैन होता हो, बड़ी छटपटाहट महसूस होता हो, ऐसा लगे कि कुछ खाली खाली सा है और मालूम नहीं होता कि यह वेदना क्यों है, यह छटपटाहट क्यों है, किस कारण से है —- यही तो प्राणगत और आत्मा के संबंध होते है।
परन्तु गुरु के प्रेम का रास्ता इतना आसान नहीं है, यह तो तलवार की एक धार है जिस पर चलने से पैर लहुलुहान हो जाते हैं। यह ऐसी पगडण्डी नहीं है जिसके नीचे पुष्प बिछे हों, प्रेम करना तो बहुत कठिन है, तकलीफ़दायक है। पूर्ण हृदय से प्रेम करने की क्रिया बिरले को ही आ पाती है।
प्रेम का तात्पर्य है ईश्वर, और जब तक प्रेम के रस में भीगेंगे नहीं, ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती, गुरुदेव से साक्षात्कार नहीं हो सकता—–और यह अन्दर उतर कर प्रभु से साक्षात करने की क्रिया ही तो प्रेम है।
यदि कोई शिष्य चाहे किमैं गुरु को हृदय में समेट लूं, गुरु को अपने जीवन में पा लूं, गुरू को अपने में आत्मसात कर लूं, और यदि उसके हृदय में प्रेम रस नहीं है, तो वह अपने जीवन में, अपने हृदय में गुरु को उतार भी नहीं सकता।
जुदाई तो अपने आप में एक तपस्या है, किसी का इंतजार करना अपने आप में पूर्ण साधना है। किसी को याद करना किसी के चिंतन में डूबे रहना अपने आप में ईश्वर की साधना है।
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