और यदि आप श्रद्धा देते है, सेवा करते हैं तो गुरु उस ऋण के अपने ऊपर नहीं रख सकता, कोई भी गुरु शिष्य का ऋणी नहीं होना चाहता। परन्तु गुरु की वह विवशता होती है कि शिष्य को तब तक वह पूर्णता नहीं दे सकता, जब तक कि उसका अहम पूरी तरह से गल नहीं जाता। तब तक सेवा के उस ऋण को गुरु को धारण करना पड़ता है, न चाहते हुए भी शिष्य के ही कल्याण के लिए गुरु को ऋण देना पड़ता है।
इसलिए कहता हूं कि तुम नदी बन जाओ, क्यों प्रेम की कल्पना, प्रेम की भावना नहीं जानती है। नदी इस बात को नहीं मानती कि यह पहाड़ है, पत्थर है चट्टान है, वह बस आगे गतिशील होती है। उसका लक्ष्य, उसका चिंतन, उसकी धारणा एक ही है कि मुझे अपने अस्तित्व को मिटा कर समुद्र में जाकर लीन हो जाना है।
इसी प्रकार शिष्य जितना गुरु में लीन होता है, उनसे एकाकार होता है, उतना ही गुरु उसे आगे धकेलता रहता है। यह शिष्य पर निर्भर करता है कि वह स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित करता है या अधूरा समर्पित करता है।
अणु से विराट बनने की क्रिया केवल गुरु जानता है, मनुष्य से देवता बनाने की क्रिया केवल गुरु जानता है। मूलाधार से सहस्त्रार तक पहुंचाने की क्रिया केवल गुरु जानता है और उसी के लिए जीवन का आधार केवल और केवल गुरु ही होता है।
तुम कहते हो कि हम शिष्य है जबकि साधक के आगे की स्टेज शिष्यता है। शिष्या प्राप्त करने के लिए तुम्हें ठोकर लगना अनिवार्य है क्योंकि जब ठोकर लगेगी तभी तुम मोह निद्रा से जागोगे।
तुम्हें कभी जिन्दगी में ठोकर लगे, मैं तो ऐसा चाहता हूं कि जल्दी ही लगे। ऐसा तुम्हें एहसस हो सके कि तुम्हारी जिन्दगी का कुछ उद्देश्य, कुछ लक्ष्य है और तुम उस उद्देश्य के पद पर गतिशील हो सको।
स्थूल जगत में जो कुछ हम देखना चाहते हैं या और जो कुछ हम देखते हैं और जिनको देखने से हम प्रसन्नता होती है वह प्रसन्नता क्षणिक है।
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