ब्रह्म ही शिव है सृष्टि की उत्पति और पूर्णता शिव में ही है। शिव के त्रिनेत्र त्रिकाल अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान ज्ञान के बोधाक है। तीनों नेत्र सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि स्वरूप है। शिव आदि देव है जो मनुष्य के देहिक रोग, शोक और ताप को मानसिक और आधयत्मिक रूप से समाप्त करते है। उमापति के रूप में वे प्रेम के देव है जो शक्ति के साथ संयोग करते है। मनुष्य स्तर पर पुरूष और स्त्री का प्रेम ही नई जीवात्मा की उत्पति करता है तथा परिवार में प्रेम और स्नेह का वातावरण रहता है।
भगवान शिव की महिमा को शब्दों या ग्रंथों में नहीं बाधा जा सकता। उनकी तो केवल पूजा, अर्चना और साधना ही की जा सकती है। जिससे वे हमें आशीर्वाद प्रदान करें। इसलिए इस वर्ष की कार्तिक पूर्णिमा को संन्यस्त महोत्सव स्वयं शिव की नगरी हरिद्वार में सम्पन्न होगा। शिष्य के जीवन को आनन्द, पूर्णता, अनेक प्रकार की अनुकूलताओं से तथा धर्म, अर्थ, काम की पूर्णताओं से युक्त करने का पर्व संन्यस्त भाव है। गुरु शिष्य को तभी कुछ प्रदान करते हैं, जब शिष्य में योग्यता व पात्रता अनुभव करे हैं और कुछ विशेष अवसरों पर ऐसा संयोग बनता है, कि वे शिष्य की न्यूनताओं को, उनके परेशानियों को स्वतः ही समाप्त कर देते हैं और अपना सान्निध्य, अपनी तपस्या का अंश तथा साधनात्मक ऊर्जा प्रदान कर उसे स्वर्ण रूपी बना देते है। गुरु की भी समस्त क्रियाएं अपने शिष्यों को प्रसन्ता, श्रेष्ठता, पूर्णता प्रदान करने के लिए ही होती है। गुरु की साधना सम्पन्न कर, उनकी सेवा कर अनेक व्यक्तियों ने उच्चता और श्रेष्ठता प्राप्त की। शंकराचार्य ने अल्पायु में ही जिस प्रकार से विद्वता की धाक जमाई, वह बिना गुरु कृपा के किस प्रकार सम्भव हो सकती थी ?
— और संन्यस्त पूर्णिमा से ज्यादा श्रेष्ठ और कौन सा अवसर उपस्थित हो सकता है गुरु साधना के लिए, गुरु में स्वयं को विसर्जित करने के लिए, गुरुमय बन जाने के लिए। निखिलमय बन जाने के लिए। इस हरि के द्वार में ही विक्रमादित्य ने हर की पौड़ी पर अपने भाई राजा भृतहरि जो ऋषि कहलाते है उनके लिये ब्रह्म कुण्ड का निर्माण किया। इसी हरिद्वार में ऋषि दत्रतेय ने कुशाव्रत घाट में निर्वाण और समाधि ली। इसी हरिद्वार में मनसा देवी और चण्डी देवी ने शुंभ-निशुंभ का वधा किया। इसी हरिद्वार में शिष्य सम्राट हनुमान ने अपनी मां अंजनी के लिये मंदिर निर्माण किया। इसी हरिद्वार में शिव ने गौरी के प्रति अपने प्रेम का प्रकटीकरण गौरीशंकर स्थान पर किया। ऐसे दिव्य, तेजस्वी तथा पूर्णता प्रदान करने वाली महागंगा की गोद में संन्यास पूर्णिमा का आयोजन अपने आप में महान् कार्य है। जिससे की हम अपने आपको पूर्ण गंगामय और पवित्रमय बना सकें। हे सद्गुरुदेव ! आप परम शक्ति के समन्वित देवाधिदेव है, जो सर्वबोध रखते हैं, उसी स्थान पर एकत्र होकर संन्यास पूर्णिमा कल्प की हम इच्दा रखते है। आपने हमें केवल मार्ग ही नहीं दिखाया, आपने हमारे जीवन का बीज का निर्माण किया है, आज हमारी जीवन सुरभि की जो सुगन्ध है वह आपके द्वारा ही प्रदत्त है।
हे सद्गुरुदेव ! हिमालय में हजारों साधु-संन्यासी होंगे जो आपकी पूजा-अर्चना करते होंगे, संन्यास पूर्णिमा के उत्सव को विशेष रूप से आयोजित करते होंगे लेकिन हम सांसारिक व्यक्ति अकेले आत्मिक स्वाद अनुभव करने के इच्छुक नहीं हैं। हम तो हमारा आनन्द सब गुरु भाईयों के बीच बांटना चाहते हैं, हम अपने-अपने घरों में कैद रह कर आपकी पूजा अर्चना संन्यास पूर्णिमा के दिन नहीं करेंगे, क्योंकि आपने हमें सिखाया है कि संसार की कोई भी जंजीर तुम्हें बांध नहीं सकती। केवल एक ही डोर बांध सकती है और वह है प्रेम की डोर, उस प्रेम की डोर में बंधो हम खिंचे जरूर चले आएंगे, ये केवल मेरा संकल्प नहीं है, यह तो आपके लाखों-लाखों पुत्र-पुत्रियों का संकल्प है। हमने गांव-गांव संदेश भेज दिया है।
संन्यास महोत्सव के महान अवसर पर आज्ञा चक्र जागरण दीक्षा, राज-राजेश्वरी दीक्षा, महामृत्युजंय दीक्षा आदि अनेक श्रेष्ठ एवं दिव्यतम दीक्षाऐं मां गंगा की पवित्र धारा में खडे़ रहकर स्वयं सद्गुरुदेव प्रदान करेंगे। ऐसे श्रेष्ठ अवसर के पुण्य लाभ को प्रत्येक साधक और शिष्य प्राप्त करके अपने जीवन को पूर्ण सर्वोत्त्नमुखी और श्रेष्ठमय बनाने की क्रिया प्राप्त करेंगे।
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