शक्ति सगुण और निर्गुण, दोनों स्वरूपों में है। शक्ति के स्वरूप तृप्ति, श्रद्धा, तृष्टि, पुष्टि, कांति, लज्जा तो है ही, इसी महाशक्ति का स्वरूप ही लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री है। जब शक्ति सर्व सम्पन्न रूप में होती है, तो यह अपनी प्रकृति के अनुसार लक्ष्मी कहलाती है, तो कभी चण्डी, काली, तारा, गौरी, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, बगलामुखी, मातंगी, भैरवी इत्यादि अपने गुणों के अनुसार नाम धारण करती है।
शक्ति साधक को गतिशील बनाती है। जिस प्रकार अग्नि तीव्र होने पर ऊपर उठती है, उसी प्रकार साधक के भीतर शक्ति तत्व का विकास होने पर वह अपने जीवन में ऊपर उठता जाता है। अपने दुर्भाग्य पर, अपनी दीनता पर, अपने आपको हीन समझने वाले साधक को तो शक्ति कभी प्राप्त हो ही नहीं सकती और जब वह स्वयं उठ खड़ा होता है, साधनात्मक क्रियायें करता है तो उसके भीतर छिपी शक्ति का विस्फोट होता है। और यही तत्व हमें जीवन में सर्व सुख-सौभाग्य, योग-भोग, शतायु जीवन युक्त धन लक्ष्मी की वृद्धि करता है।
शक्ति मंत्र मात्र अपने भीतर विराट शक्तियों को समेटे हुये है। जिस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शिव के मुख से निकली अग्नि एकाकार होकर विराट शक्ति पुंज बन गई और उसने दुर्गा महाकाली का रूप धारण कर लिया, इसी प्रकार शक्ति के सभी मंत्रों का पूंजीभूत स्वरूप ‘नवार्ण मंत्र’ है, इसके प्रत्येक अक्षर में शक्ति के एक-एक रूप का विवेचन है, नवार्ण मंत्र जपने मात्र से शक्ति जाग्रत होती है, शरीर में ऊष्मा व्याप्त होने लगती है, रोम-रोम जाग्रत होने लगता है। ऐसे महामंत्र की दीक्षा जब गुरू कृपा से प्राप्त होती है तो शक्ति का आह्वान होता ही है।
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