ज्ञानानन्दमयं देवं निर्मलं स्फ़टिकाकृतिम्।
आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे।।
ओंकारमाद्यं प्रवदन्तिसंतो वाचः श्रुतीनामापियंगृणपन्ति।
गजाननं देवगणनताड्घ्रिं भजैऽहमर्धोन्दुकृतावतंसम्।।
गणपति विघ्नहर्ता व ऋिद्धि सिद्धि प्रदाता है गणपति सभी देवों में प्रथम पूज्य है सब प्रकार के मंगल कार्यों में गणपति पूजन आवश्यक है शिव और शक्ति की साधना गणेश साधना है सरस्वती और लक्ष्मी दोनों की सिद्धि गणपति साधना से ही संभव है आइये, सभी साधना गणपति का वंदन कर इस साधना को नित्य पूजा का अंग बनाएं श्री गणेश आदि स्वरूप, पूर्ण कल्याणकारी, देवताओं के भी देवता माने गये है, जिनकी उपासना-पूजा का उल्लेख वेदों में भी प्राप्त होता है, सभी प्रकार के पूजनों में प्रथम पूजन का अधिकार गणपति को ही माना गया है, इसके पीछे ठोस शास्त्रीय आधार है, किसी भी कार्य को पूर्ण रूप से सिद्ध करने के लिए समुचित प्रयत्न करना पड़ता है, लेकिन बार-बार सभी प्रकार के प्रयत्नों को पराकाष्ठा होने पर भी ऐसा मौके पर कोई न कोई बाधा आ जाती है, इस प्रकार की बाधा को हटाने के लिए, जिससे कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण हो जाये और जैसे-तैसे पूरा न हो कर जिस सफ़लता के साथ कार्य पूरा करने की इच्छा है उसी रूप में कार्य पूरा हो, इसके लिए ही गणपति पूजन विधान निर्धारित किया गया है।
प्रतिज्ञा ओर ज्ञान की भी एक सीमा अवश्य होती है, व्यक्ति अपने प्रयत्नों से किसी भी कार्य को श्रेष्ठतम रूप से पूर्ण करते हुए उज्ज्वल पक्ष की ओर विचार करता है, लेकिन उसकी बुद्धि एक सीमा से आगे नहीं दौड़ पाती, बाधाएं उसकी बुद्धि एवं कार्य के विकास को रोक देती है, और यही मूल कारण है कि हमारे शास्त्रों में पूजा, साधना उपासना को विशेष महत्व दिया गया।
सृष्टि की उत्पति, स्थिति और पूर्णता ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा सम्पादित की जाती है, लेकिन सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे, और विघ्न न आएं – यह गणेश के ही जिम्मे है, आसुरी प्रकृति के अभक्तों के लिए गणेश विघ्नकर्ता है, तो उनकी पूजा-उपासना करने वाले भक्तों के लिए विघ्नहर्ता और ऋिद्धि सिद्धि के प्रदाता है, इसीलिए श्री गणेश को ‘सर्व विघ्नैकरहरण, सर्वकामनाफ़लप्रद, अनन्तानन्तसुखद और सुमंगलमंगल’’ कहा गया है।
सभी प्रकार के देवता विभिन्न शक्तियों से सम्पन्न हैं, लेकिन विशिष्ट कार्य के लिए विशिष्ट शक्ति-सम्पन्न देवताओं का स्मरण, पूजन, साधना सम्पन्न करनी पड़ती है, इसीलिए सभी पूजनों में कोई भी कार्य निर्विघ्न, पूर्ण फ़लयुक्त, मंगलमय रूप से पूर्ण करने हेतु श्री गणपति का पूजन किया जाता है।
गणेश का स्वरूप शक्ति ओर शिवतत्व का साकार स्वरूप है, और इन दोनों तत्वों का सुखद स्वरूप ही किसी कार्य में पूर्णता ला सकता है, गणेश शब्द की व्याख्या अत्यन्त महत्वपूर्ण है, गणेश का ‘ग’ मन के द्वारा बुद्धि के द्वारा ग्रहण करने योग्य, वर्णन करने योग्य, सम्पूर्ण भौतिक जगत को स्पष्ट करता है, और ‘णे’ मन, बुद्धि और वाणी से परे, ब्रह्म विद्या स्वरूप-परमात्मा को स्पष्ट करता है, और इन दोनों के ‘ईश’ अर्थात् स्वामी गणेश कहे गये है।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशे विनायकः।।
धूम्रकेतुर्गणाधयक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः एठेच्छूणुयादपि।।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।
यह श्लोक गणेश-पूजन और उनकी साधना-उपासना के महत्व को विशेष रूप से स्पष्ट करता है, इसका तात्पर्य यह है, कि जो व्यक्ति विद्या प्रारम्भ करते समय, विवाह के समय, नगर में अथवा नये भवन में प्रवेश करते समय, यात्रा में कहीं बाहर जाते समय, संग्राम अर्थात् शत्रु और विपति के समय, यदि श्री गणेश के इन बारह नामों का स्मरण करता है, तो उसकी उद्देश्य की पूर्ति में अथवा कार्य पूर्णता में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आता है, गणेश जी के ये बारह नाम है – 1 सुमुख, 2 एकदन्त, 3 कपिल, 4 गजकर्ण, 5 लम्बोदर, 6 विकट, 7 विघ्ननाशक, 8 विनायक, 9 धूमकेतु, 10 गणाध्यक्ष, 11 भालचन्द्र, 12 गजानन।
इनमें से प्रत्येक नाम का एक विशेष अर्थ है और विशेष भाव है, संक्षिप्त में यही कहना उचित है, कि साधक की अपने पूजा कार्य में गणेश की पूजा एवं इन नामों के जप को एक निश्चित स्थान देना चाहिए। मंत्र-साधना ओर तंत्र-साधना का मार्ग गुरु गम्य माना गया है, जो साधक गुरु-परम्परा से गणपति सपर्या की विद्या प्राप्त करते हैं, उन्हें ही उपासना में प्रवेश का अधिकार है।
तंत्र शास्त्र के सबसे महान रचयिता भगवान परशुराम माने गये है ओर ‘परशुराम कल्पसूत्र’ में जो कि तंत्र शास्त्र का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है, लिखा है –
देवं सिद्धलक्ष्मी समाश्लिपृष्पार्श्वम्,
अर्धोन्दुशेखरमारक्तवर्ण
मातुलुगंदापुण्ड्रेक्षुकार्मुकशूलसूदर्शन
शंखषाशोत्पलधयान्यमंजरी
निजदन्तांचलरत्नकलश
परिष्कृष्णाण्येकादशकं प्रभिन्नकटमानन्द
पूर्णमशेष विघ्नध्वंसिनं विघ्नेश्वरं ध्वात्वा।
अर्थात् महागणपति के बाएं भाग में सिद्ध लक्ष्मी, मणिमय रत्न सिंहासन पर विराजमान है, और गणपति का शरीर करोड़ों सूर्यों के समान चमकीला रक्तवर्णीय है, मस्तक पर अद्धर्चन्द्र हे, ग्यारह भुजाओं में मातुलंग, गदा, इक्षु, सुदर्शन, शूल, शंख, पाश, कमल, धान्य, मंजरी भग्नदन्त तथा रत्नकलश हैं, ऐसे परमानन्द, पूर्ण सर्व विघ्न-विनाशक महागणपति का ध्यान करना चाहिए।
लोक जीवन में गणपति का स्थान महागणपति का लोक जीवन में लोक कथाओं में जो विवरण एवं स्थान है, उतना विवरण किसी अन्य देव शक्ति का नहीं होता, सामान्य बातचीत में किसी कार्य का शुभारम्भ करने को कार्य का श्री गणेश कहा जाता है, किसी भी प्रकार के पूजन में यदि गणेश जी की मूर्ति नहीं होती है तो पंडित लोग सुपारी पर मौली बांध कर गणेश की स्थापना करते है। दीपावली पर्व हो तो लक्ष्मी के साथ गणेश की प्रतिष्ठा निश्चित है, उत्तर-प्रदेश में तो किसी भोज के समय एक मंगल-घट चूल्हे के पास रख दिया जाता है, जल से भरे घड़े अथवा मंगल कलश में गणेश की प्रतिष्ठा सभी शुभ कार्यो में सम्पन्न की जाती है, बंगाल में वसन्त पंचमी महोत्सव तथा शिक्षा संस्कार समारोह में ‘‘सरस्वती गणेश’’ की पूजा की जाती है, गणेश चतुर्थी को उत्तर-प्रदेश के अवध क्षेत्र में ‘बहुला चौथ’ के रूप में सम्पन्न किया जाता है – जिसमें माताएं विधि-विधान सहित गणेश की पूजा करती है, महाराष्ट्र तथा दक्षिण भारत में भाद्रपद सुदी-चतुर्थी को स्थान-स्थान पर गणेश प्रतिमा समारोह के साथ प्रतिष्ठित की जाती है और अनन्त चतुर्थी को गणेश विसर्जन सम्पन्न किया जाता है।
पंजाब अथवा बंगाल, महाराष्ट्र अथवा मध्य-प्रदेश, तमिलनाडु अथवा राजस्थान प्रत्येक प्रदेश के साहित्य में जनजीवन में गणेश के पूजन का विधान है, और यह पूजन का अंग ही बन गया है।
यदि मन में आस्था है, तो कृपा किसी न किसी रूप में हो ही जाती है, लेकिन प्रत्येक पूजा-विधान के कुछ विशेष नियम है, उनका पालन करने से विशेष फ़ल अवश्य ही प्राप्त होता है।
गणपति के पूजा-विधान में विशेष बात यह है कि चतुर्थ गणपति का प्रकट दिवस है, इसी कारण प्रत्येक मास कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ‘गणेश-चतुर्थी’ और शुक्ल पक्ष चतुर्थी को ‘विनायक-चतुर्थी’ कहा जात है।
गणपति मूल रूप से जल तत्व प्रधान देवता है, और जल ही जीवन है, इसलिए अपने जीवन में जल तत्व को तीव्र करने हेतु, पूर्णता प्राप्त करने हेतु गणपति का पूजन विशेष रूप से प्रभावकारी है।
दैनिक कार्यों में विनायक स्वरूप गणपति साधना सम्पन्न करनी चाहिये, जिसे घर परिवार में शान्ति, शुभ-लाभ स्थायी भाव में रहते हैं एवं देवताओं और गुरु का आशीर्वाद निरन्तर प्राप्त होता रहता है।
शत्रु बाधा, शान्ति तथा तांत्रोक्त साधनाएं प्रारम्भ करने से पहले उच्छिष्ट गणपति साधना अवश्य सम्पन्न करें
आकर्षण वशीकरण स्तम्भन हेतु की जाने वाली विशेष साधनाओं में आधी सफ़लता तो हरिद्रा गणपति साधना से प्राप्त हो जाती है, शेष सफ़लता गुरु कृपा द्वारा इच्छित साधना सम्पन्न करने से प्राप्त होती है।
1 शास्त्रोक्त विनायक गणपति गणपति साधना में, पूजन में, ‘विनायक गणपति चित्र’, ‘विनायक गणपति यंत्र’ ताम्र पात्र, मौली, पुष्प, अबीर, गुलाल, नैवेद्य जल तथा दूर्वा दूब और अक्षत विशेष रूप आवश्यक है, इसके अतिरिक्त सुपारी को भी आवश्यक माना गया है।
सर्वप्रथम अपने स्थान पर स्वच्छ आसन पर बैठ कर आसन की पूजा करें, और सामने विनायक गणपति चित्र तथा विनायक गणपति यंत्र के लिए साफ़ आसन बिछाएं, और उस पर गणपति यंत्र तथा चित्र स्थापित करें, अपने दांए हाथ में ताम्र पात्र से जल लेकर पूजन का संकल्प करें और जल को भूमि पर छोड़ दे, इसके पश्चात पात्र में जल लेकर चारों और छिड़के, यंत्र और प्रतिमा को धोकर आसन पर स्थापित करें, और हाथ में दीपक लेकर यह प्रार्थना करें कि – ‘हे देव! आप समस्त विघ्न रूपी वनो का दहन करने में प्रबल है, विपत्ति एवं विघ्न के समय विघ्न विजयी रूपी सूर्य के प्रकाश को दसों दिशाएं प्रकाशित कर देते है, आप समस्त विद्याओं, वैभव के अधीश्वर है, आप स्थान ग्रहण करें।’
इसके पश्चात् पुष्प, अबीर-गुलाल, अक्षत इत्यादि अर्पित करें और मौली, वस्त्र-स्वरूप चढ़ाएं गणपति पूजन में तुलसी को प्रयोग सर्वथा वर्जित है, दूर्वा अर्थात् दूब विशेष फ़लप्रदायक मानी गयी है।
इसके पश्चात एक कोने में चार सुपारी चावलों की ढेरी पर स्थापित करें, और उनके सामने गणपति को चढ़ाया गया नैवेद्य रखें, ये चार सुपारियां गणपति के चार सेवकों – गणप, गालब, मुद्गल और सुधाकर की प्रतीक है, इन्हें गणपति पर चढ़ाया हुआ प्रसाद ही चढ़ाएं, अब प्रतिमा के सामने बारह चावल की ढेरियां बनाकर प्रत्येक पर गणपति के बारह स्वरूपों – सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्ण, लम्बोदर विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र, गजानन्द का ध्यान करते हुए प्रत्येक का पूजन करे।
गणपति पूजन में मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त ‘विनायक गणपति यंत्र’ विशेष आवश्यक है, क्योंकि यह गणपति की शक्तियों का साकार स्वरूप है, इसके पश्चात् नारियल तथा ऋतु फ़ल अर्पित करें, और अपने स्थान पर खड़े हो कर दोनों हाथों से ताम्र पात्र में जल अर्पित करें, गणपति के बीज मंत्र के संबंध में बहुत अधिक मत-मतांतर है, इस संबंध में मूल बीज मंत्र तो केवल ‘गं’ ही है।
मंत्र की पांच माला का जप ‘गणपति माला’ से उसी स्थान पर बैठकर करना चाहिए। इसके पश्चात प्रदक्षिणा सम्पन्न कर आरती सम्पन्न की जानी चाहिए, गणपति की प्रतिमा का एक बार ही प्रदक्षिणा का शास्त्रोक्त नियम है।
गणपति की पूजा उपासना चाहे किसी भी विपरित स्थिति में विधि-विधान सहित सम्पन्न की जाय, तो साधक की कामना पूर्ति, यश-लाभ, विघ्नों में शान्ति, कष्टों का नाश अवश्य ही प्राप्त होता है।
कुण्डलिनी जागरण में भी प्रथम चक्र अर्थात् मूलाधार चक्र को गणेश स्थान कहा गया है, अतः योग और तंत्र में भी सिद्धि तभी प्राप्त हो सकती है, जब गणपति की साधना प्राप्त हो।
वाद-विवाद, मुकदमा, लड़ाई, शत्रु बाधा शान्ति, भय नाश जुए में जीत इत्यादि कार्यों के लिए शत्रुहन्ता गणपति की साधना सम्पन्न की जाती है।
विनियोग
ऊँ अस्येच्छिष्ट गणपति मन्त्रस्य
कंकोल ऋषिः विराट छन्दः शत्रुहन्ता गणपति
देवता सर्वाभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः।
इस प्रकार संकल्प लेकर चार भुजा वाले, रक्त वर्ण, तीन नेत्र, कमल दल पर विराजमान, दाहिने हाथ में पाश एवं दन्त धारण किये हुए, उन्मत्त मुद्रा स्थिर शत्रुहन्ता गणपति का ध्यान करना चाहिए।
इसके पश्चात् आठ मातृकाएं-ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डा एवं लक्ष्मी। इनकी आठ दिशाओं में स्थापना कर पूजन करना चाहिए। पूजन हेतु शत्रुहन्ता गणपति चित्र, शत्रुहन्ता गणपति यन्त्र अष्टमातृका प्रतीक की स्थापना पर विधिवत पूजा होनी चाहिए। प्रसाद स्वरूप में लड्डू अर्पण करने चाहिए।
तत्पश्चात् निम्न शत्रुहन्ता गणपति मंत्र का 21 माला जप शत्रुहन्ता माला से ग्यारह दिन तक करना चाहिए।
मंत्र अनुष्ठान के पश्चात् साधक को हवन अवश्य करना चाहिए, हवन में घी, शहद, शक्कर तथा खील (खाजा) से वशीकरण क्रिया सम्पन्न होती है, पुष्प एवं सरसों के तेल का हवन करने से शत्रुओं का विद्वेषण होता है।
जीवन में जिसके पास आकर्षण शक्ति है, अपने शत्रुओं को स्तम्भन करने की क्षमता है, वही व्यक्ति पूर्ण सफ़ल रहता है हरिद्रा गणपति, गणपति साधना का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है।
विनियोग
ऊँ अस्य श्री हरिद्रागणनायक मंत्रस्य
मदन ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः हरिद्रागणनायको
देवता ममाभीष्टसिद्धये जपे विनियोग
अंगन्यास
ऊँ हुं गं ग्लौं हृदयाय नमः।
हरिद्रागणपतये शिरसे स्वाहा।
वरवरद शिखायै वषट।
सर्वजनहृदयं कवचाय हुं।
स्तम्भय स्तम्भय नेत्रत्रयाय वौषट्।
स्वाहा अस्त्राय फ़ट्।
ध्यान
पाशांकुशी मोदकमेकदन्तं करैर्दधानं
कनकासनस्थम् मनमोहकप्रतिम त्रिनेत्रं
पीतांकुशं रात्रिगणेश मीडे।।
अर्थात् दाहिने हाथों में अंकुश एवं मोदक तथा बांए हाथ में पाश एवं दन्त धारण किये हुए, सोने के सिंहासन पर स्थित हल्दी जैसी आभा वाले, तीन नेत्र वाले, पीत वस्त्र धारण करने वाले मनमोहक गणपति की वन्दना करता हूं।
पूजा स्थान में अपने सामने गुरु चित्र के साथ ही एक तांबे की प्लेट अथवा कटोरी में हरिद्रा गणपति स्थापित कर दें और उसे सिन्दूर से रंग दें। उसी सिन्दूर से अपने ललाट के मध्य तिलक लगायें और लेख के प्रारम्भ में दी गई विधि से गणपति पूजन सम्पन्न करें और तत्पश्चात यह विशिष्ट मंत्र ‘पीठ माला’ से जपें। सवा लाख मंत्र जप का एक पुनश्चरण होता है, जिसे 30 दिन में अवश्य ही पूर्ण कर लें
ये सभी उत्तम साधनाएं है और जो इन्हें सम्पन्न करता है, उसके जीवन में कष्ट, बाधाएं आ ही नहीं सकते। गणपति अपने भक्तों पर निरन्तर कृपा दृष्टि प्रदान करते वाले सहज, सरल देव है।
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