जिसमें समुद्र में छंलाग लगाने की हिम्मत है, वह मोती प्राप्त कर सकता है और जो समुद्र के किनारे बैठा रहता है, जो छंलाग लगाने की सोचता ही रहता है, लेकिन छंलाग लगा नहीं पाता, बार-बार गुरु उकसाये तब भी एक कदम चले और बैठ जाय, बार-बार याद आए कि मेरे पीछे समाज है, पुत्र है, बन्धु हैं, बान्धव हैं, वे क्या सोचेंगे? क्या होगा? कैसे होगा? वह व्यक्ति समुद्र में छंलाग नहीं लगा सकता।
जहां सुख हो, वहां हमेशा सुख ही रहे, ऐसा सम्भव नहीं, जहां दिन है तो रात भी आयेगी। सुख के बाद दुःख आएगा ही, परन्तु आनन्द के बाद आनन्द ही आता है। आनन्द और सुख में मूलभूत अन्तर है, आनन्द के बाद मृत्यु नहीं आ सकती, चिन्ता व्याप्त नहीं हो सकती।
अगर तुम जीवन में आनन्द प्राप्त करना चाहते हो, तो समर्पित होने की क्रिया सीखनी पडे़गी, अपने प्राणों को गुरु के प्राणों में समावेश करने की क्रिया सीखनी ही पडे़गी, अपने को भुलाना पडे़गा।
तुम्हारे पास जो भी चिन्ताएं हैं, दुःख हैं, परेशानियां हैं, बाधाएं हैं, वे सभी तुम्हें मुझको समर्पित कर देनी है।
तुम्हें बिल्कुल खाली पात्र की तरह मेरे पास आना है, खाली कागज की तरह मेरे पास आना है, जिसमें मैं पूर्णत्व लिख सकूंगा। मैं तुम्हें बता सकूंगा, कि जीवन की पूर्णता क्या है? जीवन का आनन्द क्या है? जीवन की सर्वोच्चता क्या है? श्रेष्ठता क्या है?
अणु से विराट बनाने की क्रिया केवल गुरु जानता है, मनुष्य से देवता बनाने की क्रिया केवल गुरु जानता है, मूलाधार से सहस्त्रार तक पहुंचाने की क्रिया केवल गुरु जानता है और इसीलिए जीवन का आधार केवल और केवल गुरु ही होता है।
गुरु तो तुम्हें कहीं भी भगवा कपड़ों में मिल जांएगे, मगर सद्गुरु न कोई भगवे कपड़े पहिनता है, न कोई चालाकी करता है। उसकी वाणी में ओज होता है, एक सत्यता होती है, एक दृढ़ता होती है, वह ठोकर भी मार सकता है, वह तुम्हें चेतना युक्त भी बना सकता है, यदि तुम तैयार हो तो।
साधना पथ की ये पगडण्डियां चाहे ऊबड़-खाबड़ हों, चाहे कटीली हों, चाहे इस रास्ते में टेढ़े-मेढ़े पत्थर बिखरे हों, परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन रास्तों का जो समापन है, वह अद्भुत है, पूर्ण आनन्दयुक्त है, पूर्णता देने वाला है और वहां पहुंच कर पूरी यात्र की थकान अपने आप में समाप्त हो जाती है।
मंत्रों के माध्यम से उस दैवी सहायता को प्राप्त करना, जिसके माध्यम से हम जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सकें, उसको साधना कहते हैं। साधना के लिए यह आवश्यक है, कि हम उन देवताओं से परिचित हों— और यह परिचय मात्र और केवल मात्र सद्गुरु ही करवा सकते हैं।
उन रास्तों पर पैर लहुलुहान तो होते हैं, थकावट तो आती है, रास्ते की धूप सहन करनी पड़ती है, परन्तु अन्त में अलौकिक अनिवर्चनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, जिसे समाधि सुख कहा गया है।
गुरु तो बहुत दूर की देखता है, वह देखता है कि शिष्य को जीवन की पगडण्डी पर कहां खड़ा करना है, और जहां खड़ा करना है, उसके लिए आज इसको कौन सी आज्ञा देनी है। इसलिए शिष्य को आज्ञा का पालन करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए।
पूर्णता तो तब सम्भव होती है, जब शिष्य गुरु के चरणों में सिर रखकर आंसुओं से उनके चरणों को धोए, अपने को पूर्ण विसर्जित करे, उसका हृदय गद्गद् हो जाय, गला भर जाय, और रूंधो हुए गले से जो कुछ शब्द निकले, तो ‘गुरुदेव’ शब्द ही निकले।
समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं हो सकता, और न ही गुरु की आरती उतारने से आ सकता है। समर्पण का तात्पर्य है, कि गुरु जो आज्ञा दे, उसका बिना ना नकूर किए पालन किया जाए।
शिष्य तो वह है, जिसकी हर समय मन में यही इच्छा हो, कि मैं गुरु के पास दौड़कर पहुंच जाऊं— हो सकता है कोई मजबूरी हो, नहीं जा सके, यह अलग चीज है, मगर मन में उत्कण्ठा हो, तीव्र इच्छा हो, छटपटाहट बनी रहे कि उसे हर हालत में गुरु के पास पहुंचना है।
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