सेवा समर्पण और श्रद्धा- ये तीनों ही रास्ते हैं जिनके माध्यम से शिष्य अपने खून को शुद्ध कर सकता है। जो गुरु कहे वह करे, उसे सेवा कहते हैं। जो तुम्हारी मर्जी हो वह करना सेवा नहीं हैं।
शिष्य को ज्ञान देने से पहले उसका अहं गलाना जरूरी है। शिष्य का कर्तव्य है कि वह इस कार्य में गुरु का पूरा सहयोग करे।
शिष्य को चाहिए कि वह पाद पद्म न बने, उसे चाहिए वह विवेकानन्द बने और उसके लिए सर्वोत्तम उपाय है श्रद्धा एवं समर्पण।
ज्ञान के पुंज को प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि शिष्य को कसौटी पर कसा जाए। शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की हर कसौटी पर उतरे।
शिष्य पर गुरु का ऋण हैं क्योंकि गुरु शिष्य को ज्ञान देता है। ज्ञान केवल गुरु की सेवा से प्राप्त हो सकता है।
शिष्य के मानस में, चिंतन में, विचार में, ज्ञान की गरिमा स्थापित गुरु करता है, इसलिए शिष्य का धर्म है कि वह गुरु सेवा करे और ज्ञान प्राप्त करे।
शिष्य का लक्षण, शिष्य का चिन्तन, शिष्य का विचार मधुर होना चाहिए। हर क्षण गुरु की आज्ञा का पालन करे, किसी भी तर्क या विर्तक में न फ़ंसे। सेवा, समर्पण और श्रद्धा से ही तुम लोहे से कुन्दन बन सकते हो।
शिष्य को चाहिए कि गुरु जो भी मंत्र दे, उसे पूर्ण भक्तिभाव से ग्रहण करें, कभी भी मन में गुरु या मंत्र के प्रति कुतर्क या अश्रद्धा न लाये।
गुरु तो हर क्षण ही शिष्य को अपने समकक्ष बनाने का प्रयास करते हैं और इसी कारण उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप स्वरूप धारण करना पड़ता है। परन्तु यह शिष्य की अज्ञानता होती है, जो वह गुरु को सामान्य मनुष्य के रूप में देखता है। उसके लिए ऐसा चिन्तन दुर्भाग्यपूर्ण होता है।
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