जिस प्रकार से हिन्दू धर्म का एक मूल-भूत विश्वास और आस्था हैं कि ईश्वर अपने भक्तों के कष्ट-निवारणार्थं समय-समय पर अवतरण के माध्यम से आकर उन्हें पाप-ताप संताप से मुक्त करने की क्रिया करते हैं। यह भी हिन्दू धर्म का एक आधारभूत विश्वास है। इस विश्वास के पीछे जो मुख्य बात है, वह यही हैं कि भारतीय चिंतन में कभी भी ईश्वर से अलगाव की कल्पना तक नहीं की गई हैं जिस प्रकार जीवन एक सहज घटना है उसी प्रकार ईश्वर का निश्चित कालावधि पर अवतरण भी एक सतत् घटना है, जो मत्स्यावतार से लेकर इस कलियुग में होने वाले कल्कि अवतरण के रूप में पुराणादि शास्त्रों में विस्तार से वर्णित है। जैसा कि लोक श्रुतियों में मान्य है, जब यह धरा ढाई हजार वर्ष तक तपस्या करती है, तब ईश्वर युग के अनुरूप स्वरूप ग्रहण कर इस धरा पर अवतरण के माध्यम से अपने भक्तों का कल्याण करते है तथा उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने के उपाय सृजित करते हैं।
वस्तुतः प्रत्येक अवतरण का एक निश्चित अर्थ रहा हैं और सामान्य लोक विश्वास से पृथक (कि ईश्वर ऐसा प्राणी मात्र के उद्धार के लिए करते हैं) अवतरण की घटना के विशिष्ट अर्थ भी होते हैं। प्रत्येक अवतरण किसी एक या दो भक्त की विपत्ति में रक्षा करने अथवा उसके उद्धार तक ही सीमित न रह कर अनेक गूढ़ संदेश भी छिपाए हुए होता है, यद्यपि पौराणिक कथाओं से अभिव्यक्त ऐसा ही होता है मानों ईश्वर ने किसी भक्त-विशेष की पुकार पर इस धरा पर आना स्वीकार किया और यही बात भगवान श्री विष्णु के नृसिंहावतार के संदर्भ में भी पूर्ण प्रासंगिक है।
पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगवान विष्णु के दो द्वारपालों ने एक बार आज्ञापालन के क्रम में भगवान ब्रह्मा के चार प्रथम मानस पुत्रें में से एक को भीतर प्रवेश करने से वर्जित कर दिया, जिससे उन्होंने क्रोधयुक्त हो उन दोनों को राक्षस योनि में चले जाने का श्राप दे दिया। बाद में क्रोध शांत होने व वास्तविकता का ज्ञान होने पर उन्होंने द्वारपालों की प्रार्थना पर उन्हें यह वरदान दिया, कि यद्यपि उनका वचन मिथ्या नहीं हो सकता अतः वे राक्षस योनि में तो जाएंगे ही, किन्तु उनका वध स्वयं भगवान विष्णु के हाथों से होने के कारण वे मुक्त होकर परमपद की प्राप्ति कर सकेंगे।
कालान्तर में ये दोनों द्वारपाल ही क्रमशः हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यप के रूप में आए, जिनके अत्याचारों से सारी धरा ही नहीं देवलोक आदि तक त्राहि-त्राहि कर पड़े, जिन्हें समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने दो बार अवतार लिया। हिरण्याक्ष को समाप्त करने के लिए शूकर अवतार तथा हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिए नृसिंह अवतार इसी कारणवश संभव हो सका।
पौराणिक गाथाओं की कथात्मक शैली में क्या तथ्य छुपे होते हैं अथवा क्या वे केवल विशिष्ट घटनाओं का कथात्मक विस्तार भर होती हैं, यह तो पृथक विवेचना और चिंतन की बात हैं, किंतु जैसा कि प्रारम्भ में कहा, कि प्रत्येक अवतरण स्वयं में एक संदेश भी निहित रखता है, उसी क्रम में चिंतन करने पर स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है, कि भगवान श्री विष्णु के इस विशिष्ट अवतरण (नृसिंह अवतरण) का भी एक गूढ़ संदेश है और संदेश हैं, ‘नृ’ अर्थात् नर या मनुष्य ‘सिंह’ अर्थात् पराक्रमी बनने का संदेश। यह जीवन का एक सुस्वीकृत तथ्य है, कि केवल इस युग में ही नहीं वरन् प्रत्येक युग में वही व्यक्ति जीवित रह सका है, जिसने जीवन में संघर्ष किया है। जीवन संघर्षों का एक अविराम क्रम होता है तथा इसमें जो क्षण भर चूका, जीवन उसकी प्राण शत्तिफ़ का हनन कर देता है और फिरं ऐसा व्यक्ति जिसके प्राणों को ही हनन किया जा चुका हो, कोई आवश्यक नहीं, कि जीवित रहते हुए भी वह जीवित व्यक्तियों की श्रेणी में आता हो, क्योंकि केवल श्वास-प्रश्वास के चलते रहने को ही तो ‘जीवन’ नहीं कहा जा सकता।
वास्तव में जीवन तो उसका कहा जा सकता है, जो अपने जीवन के लक्ष्यों कों सिंह की भांति झपट कर प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो। वन्य प्राणियों में सर्वाधिक ओजस्वी पशु सिंह को ही माना गया है, जो अनायास कभी किसी पर हमला करता ही नहीं, किंतु आवश्यकता पड़ने पर अथवा क्रुद्ध हो जाने पर जब वह हुँकार भर कर खड़ा हो जाता है, तो अन्य छोटे-छोटे जानवरों की कौन कहे, मस्त गजराज भी कतरा कर निकल जाने मे ही अपनी भलाई समझते है। ऋषियों ने भी पुरूष की इसी ‘सिंहवत्’ रूप में कल्पना की थी। ‘सिंहवत्’ बनना केवल शौर्य प्रदर्शन की ही एक घटना नहीं होती वरन् सिंहवत् बनना इस कारण से भी आवश्यक हैं, कि केवल इसी प्रकार का स्वरूप ग्रहण करके ही जीवन की गति को सुनिर्धारित किया जा सकता हैं, अन्यथा एक-एक आवश्यकता के लिए वर्षों वर्ष घिसट कर उसे प्राप्त करने में जीवन का सारा सौन्दर्य, सारा उत्साह समाप्त हो जाता हैं।
भगवान विष्णु ने तो एक ही हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिए नृसिंह स्वरूप में, पौराणिक गाथाओं के अनुसार अवतरण लिया था, किंतु मनुष्य के जीवन में तो प्रतिदिन नूतन राक्षस आते रहते हैं, जो हिरण्यकश्यप की ही भांति अस्पष्ट होते है, यह अस्पष्ट ही होता कि उनका समापन कैसे संभव हो, उनसे मुक्ति पाने का क्या उपाय हो सकता है? और यह भी सत्य है, कि यदि जीवन में अभाव, तनाव, पीड़ा (शारीरिक, मानसिक अथवा दोनों), दारिद्रय जैसे राक्षसों से एक-एक करके निपटने का चिंतन किया जाए, तो मनुष्य की आधी से अधिक क्षमता तो इसी विचार-विमर्श में निकल जाती है, शेष जो आधी बचती है, वह किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने देती। साथ ही जीवन के ऐसे राक्षसों से तो केवल सामान्य प्रयास से ही नहीं वरन् ऐसे क्षमता युक्त प्रयास से जूझना आवश्यक होता है, जो साक्षात् नरकेशरी की ही क्षमता हो। तभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो सकता है, जिस पर गर्वित हुआ जा सकता है।
सामान्यतः साधना का क्षेत्र अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है, क्योंकि साधना जीव को वास्तविकताओं को यथावत् प्रस्तुतिकरण व विवेचन कर देती है। उसमें भक्ति जगत की भांति दिवास्वप्नों की मधुर लहर नहीं होती है, किंतु अन्ततोगत्वा व्यक्ति का हित, साधना से ही साधित होता है, क्योंकि साधना जीवन की कटु वास्तविकताओं का यथावत् वर्णन करने के साथ-साथ उससे मुक्त होने का उपाय भी वर्णित करती चलती है। वस्तु स्थितियों का विवेचन इस कारणवश आवश्यक होता हैं, जिससे साधक के मन में एक सुस्पष्ट धारणा बन सके, कि अन्ततोगत्वा उसकी समस्या क्या हैं किस प्रकार से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है? यहां नृसिंहावतार की संक्षिप्त व्याख्या से भी यही तात्पर्य था और साधकों की सुविधार्थ उस साधना विधि का प्रस्तुतिकरण भी किया जा रहा हैं, जो इस व्याख्या को पूर्णता देने की क्रिया हैं अर्थात् केवल वर्णन-विवेचन नहीं, वह उपाय भी प्रस्तुत करने का प्रयास हैं, जिसके माध्यम से कोई भी साधक अपने जीवन को संवारता हुआ, अपनी जीवन की उन समस्याओं पर झपट्टा मार सकता है, जो नित नये स्वरूप में आती रहती है तथा यह भी जीवन का एक कटु सत्य हैं, कि जब तक जीवन रहेगा तब तक ये आती रहेगी, जिनके मन में सर्वोच्च बनने का भाव हिलोरे ले रहा होता है, वे अवश्यमेव ऐसी साधना सम्पन्न कर अपने जीवन को एक नया ओज व क्षमता देते है, जैसा की नीचे की इन पंक्तियों में प्रस्तुत साधना विधि की भावना है।
नृसिंह साधना को मूलरूप में सम्पन्न करने के इच्छुक साधक के पास ताम्रपात्र पर अंकित ‘नृसिंह यंत्र’, ‘नरकेशरी माला’ आवश्यक उपकरण के रूप में होनी चाहिए। यह साधना नृसिंह जयंती अथवा किसी भी रविवार की मध्य रात्रि में सम्पन्न की जा सकती है। साधक इसमें वस्त्र आदि का रंग काला रखें तथा दिशा दक्षिण की ओर मुख करके हो। यंत्र व माला का सामान्य पूजन कुंकुंम, अक्षत, पुष्प की पंखुडि़यों से कर तेल का एक बड़ा दीपक लगा दें व निम्न मंत्र की 51 मालाएं ‘नृसिंह माला’ से दत्तचित्त भाव से करें-
साधक यह मंत्र जप दो बार में भी सम्पन्न कर सकते हैं, अर्थात् एक बार में 21 माला मंत्र जप कर पुनः विश्राम कर 30 माला मंत्र जप सम्पन्न करके कर सकते हैं, किंतु सम्पूर्ण मंत्र जप एक ही दिन में सम्पन्न हो जाना आवश्यक होता है।
मंत्र जप के अगले दिन यंत्र व माला को दक्षिण दिशा में जाकर कहीं सुनसान में गड्ढ़ा खोदकर दबा दें तथा घर आकर स्नान कर लें। संभव हैं मंत्र जप के पश्चात् साधक को आगामी दस-पन्द्रह दिनों तक शरीर में विभिन्न से खिंचाव आदि होते महसूस हों, किंतु ये सभी साधना में सफलता के विशेष लक्षण होते हैं।
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