





रोग मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं, जिनके रहते वह कुछ भी नहीं कर सकता, उसका चिंतन, मनन, इच्छा सब खण्ड-खण्ड हो जाती हैं। रोग रूपी शत्रु उसके साथ चिपका रहता है, वह कितने ही एकान्त में क्यों न चला जाये, ये देह विकार साथ ही साथ चलते है। रुग्ण शरीर से ही रुग्ण मानसिकता का जन्म होता है और रुग्ण मानसिकता अवनीति और पराभाव की ओर अग्रसर होता है। मन की गति तो बहुत तीव्र है, वह बहुत कुछ प्राप्त करना चाहती है, लेकिन मन की गति को तन की बाधाएं अर्थात रोग रोक देते हैं।
इसलिए जो व्यक्ति अपने शरीर की पूजा नहीं करता, जो इसे पूर्ण रूप से स्वस्थ, सुन्दर बनाए रखने के लिए उपाय नहीं करता, वह खुद का तो नाश करता ही है, वह भगवान का भी अपमान करता है, उनके दिए गए उपहार को प्रत्यक्ष रूप से ठुकराता है। आज मानव इस प्रकार का जीवन जी रहा है कि उसे ज्ञात ही नहीं होता है, कि कब उसकी शैशवास्था समाप्त हो जाती है, कब उस पर यौवनकाल आता है, कब वह प्रौढ़ बन जाता है। यदि सर्वेक्षण किया जाए तो मानव के अन्दर का उल्लास, जोश मात्र 25 या 30 वर्ष की अवस्था तक ही रहता है।
आखिर क्या कारण है कि हमारे पूर्वज दीर्घायु होते थे, उनकी कार्य क्षमता आज के व्यक्ति से कही अधिक थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि उनके पास श्रेष्ठ आहार-विहार था और ऐसी चिकित्सा पद्धति भी थी, जिसका वे उपयोग कर अपनी बीमारीयों को ठीक कर लेते थे। ऐसा तो नहीं है, कि वे रोग ग्रस्त नहीं होते थे, रोग तो पहले भी थे।
आज भी आदिवासी क्षेत्रों में जहां आधुनिक सुविधायें नहीं पहुंच सकी हैं, वहां पर रोगों का इलाज मंत्रों के माध्यम से तथा उनके प्रयोगों के माध्यम से होता है तथा वे प्रयोग पूर्ण रूप से प्रभावी होते हैं। आज भी कुछ ऐसी साधनाएं है, जिनको सम्पन्न कर आज भी संन्यासी-ऋर्षि एकान्त कन्दराओं में रहने के बाद भी स्वस्थ रहते हैं। प्रस्तुत है ऐसी ही साधनाओं में से एक अद्वितीय पूर्ण आरोग्य प्राप्ति साधना जिसको धनवन्तरी सिद्धि साधना कहते हैं।
साधना विधानः-
इस साधना में आवश्यक सामग्री धनवन्तरी यंत्र, अश्मिनी तथा धनवन्तरी माला है। यह एक दिन की साधना है। यह साधना सम्पन्न करने वाला साधक को धनवन्तरी जयंती के दिन एक समय अन्न ग्रहण करना चाहिये। साधक यदि साधना सम्पन्न करने के लिये एक बार आसन पर बैठे, तो फिर मंत्र जप पूर्ण करके ही आसन से उठे। यदि बीच में उठे, तो पुनः हाथ पैर मुंह धोकर ही आसन पर बैठे। साधना करते समय मन एकाग्रचित ही रखें और साधक उस दिन जितना हो सके कम बोले।
साधक जिस स्थान पर साधना करे, उस स्थान को साफ, स्वच्छ करे तथा स्वयं भी स्नान कर पीले वस्त्र धारण करें। साधक स्वयं के लिये भी पीले रंग का ऊनी आसन प्रयोग में ले। पीले रंग का वस्त्र बिछाकर उस पर ‘धनवन्तरी यंत्र’ को स्थापित करें, यंत्र का पूजन पंचोपचार विधि से करें। यंत्र की बायीं ओर कुंकुम से रंग कर चावल की ढेरी बनाकर, उस पर ‘अश्मिनी’ रखें। अश्मिनी का पूजन कर, घी का दीपक जलाएं। धनवन्तरी का ध्यान करते हुए पुष्प यंत्र पर अर्पित करें-
सत्यं च येन निरतं रोगं विधूतं, अन्वेषितं
च सविधिं आरोग्यमस्यागूढं निगूढं
औषध्यरूपम, धन्वन्तरीं च सततं प्रणमामि नित्यं।।
मंत्र जप अनुष्ठान के पश्चात साधना सामग्री को एक मिट्टी के पात्र में रख दे, प्रतिदिन धनवन्तरी माला से एक माला जाप करें और देवउठनी एकादशी 13 नवम्बर को जिस दिन साधना समाप्त हो रही हो, उस दिन ही मिट्टी के पात्र में यंत्र, अश्मिना तथा माला रख कर उसमें दो मुठ्ठी चावल रखें और उसे नदी में प्रवाहित कर दें।
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