प्राचीन काल से योगी, ऋषियों द्वारा परमेश्वर का साक्षात्कार पाने का सहज मार्ग प्रेम ही बताया गया है। जब हम उसके प्रेम में आकंठ डूबने लगते हैं तो उनकी महानता, व्यापकता, संवेदनाओं का संगीत बनकर गुंजरित होने लगता है। प्रेम भावनाओं का प्रवाह बन बहता है और आनन्दरूप ही अंतः करण को रससिक्त करता है।
प्रेम अजर-अमर है। इस संसार में प्रेम शायद अकेली ऐसी चीज है जो नश्वर है। गुरु के प्रेम में सदैव रत रहने का सर्वोत्तम तरीका है उसका सत् स्मरण करना। गुरु के सत्-स्मरण के लिए यह मानकर चलें कि आप जो भी कार्य कर रहे हैं वह आप नहीं, बल्कि गुरु ही कर रहे हैं। गुरु सर्वव्यापी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान है और सम्पूर्ण जड़ चेतन उनके अधीन हैं। फिर उसे हम कैसे अपने वशीभूत कर सकते हैं। उसे तो प्रेम की डोर से ही बांधा जा सकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि सद्गुरु प्रेम के भूखे हैं, भाव के भूखे हैं। प्रेम वाणी का वाक्जाल नहीं, बल्कि प्रेम तो विकल हृदय की करूणामयी भाषा है। जब भक्त भगवान को प्रेम रूपी पुष्प अर्पित करे तो भला वह कैसे शांत रह सकते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि जब गुरु को प्रेम से पुकारते हैं तो वह हमारी पुकार अवश्य सुनते हैं।
जब अंतःकरण द्रवित होने लगे, हृदय पसीजने लगे और पर पीड़ा आंसू बनकर झरने लगे तो समझें कि प्रेम का आविर्भाव हो रहा है। जागते हुए अहंकार को सुलाने वाला और सोती हुई अंतरात्मा को जगाने वाला प्रेम ही तो है। अंतहीन अतृप्ति में एकमात्र तृप्ति का नाम ‘प्रेम’ है। प्रेम में आनन्द और वेदना का सम्मिश्रण है। तभी तो भगवान को साक्षात् प्रेमी और प्रियतम कहा गया है।
प्रेम शब्द नहीं अनुभूति है। प्रेम ऐसा गीत है, जो गाया नहीं जा सकता। यह तो अनहद नाद है, प्रेम की मस्ती में तुम भीतर गुनगुनाओगे, थोड़ा नर्तन करोगे और कुछ कह न पाओगे। शब्द के पीछे का दिव्यभाव देखो। प्रेम पाती है और शब्द लिफाफा। प्रेम की भाषा तो मौन है, जो हृदय से सीधे निकलकर परमात्मा तक पहुंचती है। प्रेम के प्रदर्शन से प्रेम की गहराई कम हो जाती है। प्रेम को अपने भीतर फूल की तरह खिलने दो। सच्ची श्रद्धा रखो कि उसकी सुगंध सहज ही बाहर फैल जाएगी। आत्मिक प्रेम को दिखावे की जरूरत नहीं है, वह तो दैनिक कार्यों में अनायास ही प्रकट होता रहता है।
कभी देखा है तुमने, कि यह सम्पूर्ण प्रकृति ही कैसे एक लय में बंधी हुई है? कभी अनुभव किया है तुमने, कि एक नृत्य का सृजन कैसे होता है? केवल मानव देह में ही नहीं इस जगत के कण-कण में? अनुभव किया है तुमने कभी कि कैसे उस नृत्य में लीन होते हुए तुम अपने अस्तित्व को ही विस्मृत करने लग जाते हो? खो जाते हो पता नहीं किस शून्य में, रोम रोम से उल्लास सृजित करते हुए और जुड़ जाते हो सहसा किसी विराट बोध के साथ, आनन्द मग्न होते हुए, जीवन के संगीत को सुनते हुए, बिखरते जुड़ते हुए और जुड़-जुड़ कर फिर बिखरते रहते हैं।
प्रेम हृदयस्थ रसानुभूति है। जब हृदय प्रेम के रस से लबालब भर जाता है तो ‘निज गति’ समाप्त हो जाती है। वाणी अपने आप ठहर जाती है और द्वैत-अद्वैत में घुल जाता है। प्रेम में डूबने की यह अनूठी दशा है।
जिस प्रकार से प्रकाश का धर्म होता है, कि वह जहां-जहां अंधकार है, वहां-वहां प्रविष्टि होने के उपरांत उसका चिन्ह भी नहीं रहने देता, ठीक वही क्रिया गुरु की भी होती है। एक प्रकाश पुंज की ही तरह गुरु भी प्रतिपल तुमको प्राण तत्व देने कि क्रिया में संलग्न हैं, प्रतिपल तुम्हें अनहद का वह मूक श्रवण ग्रहण कराने की चेष्ठा में निमग्न हैं, जो समाधि का वास्तविक परिचय होता है। श्रीराम की छवि निहारते ही सीताजी मौन हो जाती थी। सखियों के बार-बार कुरेदने पर भी वे मौन रही। निः शब्द मौन! ऐसा क्यों? उत्तर है, वाणी नेत्रहीन है और नेत्र वाणीहीन। यदि नेत्र के पास वाणी होती तो प्रेम की मौलिक अभिव्यक्ति होती, अतः मौन ही एकमात्र विकल्प है।
परमात्मा तो केवल अनुराग की भाषा समझते हैं। निश्छल अनुराग की भाषा में शब्द नहीं है, केवल रसीले भाव हैं। प्रेम को परमात्मा कहा गया है, जो स्वभाव से अनिवर्चनीय है। देवर्षि नारद ने ‘भक्ति सूत्र’ में इसी सत्य को उद्घाटित किया है, ‘अनिवर्चनीय प्रेमस्वरूप’। रसखान ने प्रेम और परमात्मा को एक ही तत्व के दो नाम बताया है। ‘एक होय द्वै यो लसै ज्यों सूरज अरू धूप’ प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम के महासागर से सर्व रस तरंगित है। ‘प्रेम-पयोधि’ में जो डूबता है वह वहीं मस्ती में उछल-कूद करता है वह न किसी की सुनता है और न किसी को सुनाता है।
सुने न काहू की कही कहै न अपनी बात।
नारायण वा रूप में गमन रहत दिन रात।।
अगर हमारे प्रेम की पुकार गुरु नहीं सुनते तो समझना चाहिए कि हमारा प्रेम गुरु के प्रति सच्चा नहीं है जिससे वह हमारी पुकार नहीं सुन रहे। भक्तों के अनेकों उदाहरण हैं जिनकी पुकार गुरु सुनते ही है। उनकी साधना में, भक्ति में, ध्यान में प्रेम होता है। अपने गुरु के प्रति उनका प्रेम निश्छल था। प्रेम गुरु के प्रति किया गया समर्पण भाव है, जिसमें भक्त अपना सर्वस्व गुरु पर अर्पित कर देता है। अपने सच्चे प्रेम भक्त को गुरु कभी निराश नहीं करते। वह उसकी प्रेममयी पुकार से दौड़े चले आते हैं। इसलिए आस्था और विश्वास के साथ गुरु से किया गया प्रेम निष्फल नहीं होता। गुरु तो कण-कण में व्याप्त हैं, उस सर्वशक्तिमान को प्रेम से ही पाया जा सकता है। जहां प्रेम है, वही गुरु हैं।
इस धरा पर जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, भय, आशा, तृष्णा आदि अष्ट पाशों से ग्रसित है और यही कारण है कि उसका जीवन ‘काल’ या ‘मृत्यु’ की इच्छा पर निर्भर है। जिस क्षण मृत्युरूपी यमराज की इच्छा होती है, वह व्यक्ति के पास आती है और उसे अपने साथ लेकर चल देती है।
लेकिन इन अष्ट पाशों से बंधे रह कर जीवन भर समस्याओं, परेशानियों, दुःखों, तकलीफ़ों, रोग, पीड़ा आदि से युक्त रह कर मृत्यु का ग्रास बन जाने के लिए इस मनुष्य शरीर की प्राप्ति नहीं हुयी है। जिस मानव शरीर को धारण करने के लिऐ देवता भी प्रयत्नशील रहते हैं और विभिन्न रूपों में अवतरित होकर अपनी इस इच्छा की पूर्ति भी करते हैं, वह इस तरह मल-मूत्र में लिप्त रहते हुए मात्र श्मशान की यात्र करने के लिए तो हो नहीं सकता। अतः निश्चय ही कोई अन्य तथ्य है, जिसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं हो पाता और वह विषय-वासनाओं में लिप्त रहता हुआ एक दिन श्मशान में जा कर सो जाता हैं और पुनः जन्म लेने के लिए बाध्य होता है।
84 लाख योनियों में से एकमात्र मानव योनि ही ऐसी है, जिसमें जन्म लेने पर मनुष्य सद्गुरु की शरण में जाकर उनके द्वारा निर्देशित वैदिक कर्मकाण्ड व साधना रूपी शक्ति का सहारा लेकर मनुष्य पशु कर्म-ज्ञानरूपी जो अष्ट पाशों के प्रभुत्व व मृत्यु का कारण बनते है, उससे परे हो जाता है, अर्थात् गुरुज्ञान द्वारा मृत्यु को पार किया जा सकता है। मृत्यु से परे होने के उपरान्त विद्या की प्राप्ति होती है अर्थात् ब्रह्म साक्षात्कार होता है, जिससे देवत्व और अमृतत्व की प्राप्ति होती है।
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