गुरु की पूजा करने से इष्ट की पूजा हो जाती है, गुरु का तर्पण करने से और गुरु भक्ति करने से ही इष्ट का तर्पण व भक्ति हो जाती है। गुरु वन्दना करने से ही सर्व देव-देवियों की स्तुति सम्पन्न हो जाती है। ऐसा ही शिष्य को समझना चाहिए।
गुरु शिष्य को अपने समकक्ष बनाने का सदैव प्रयास करते हैं और इसी कारण से उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप रूप धारण करना पड़ता है, परन्तु यह शिष्य की अज्ञानता होती है, जो वह गुरु को सामान्य मनुष्य के रूप में देखता है। उसके लिए ऐसा चिन्तन दुर्भाग्यपूर्ण होता है।
गुरु जो भी आज्ञा देते हैं, उसके पीछे कोई रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु आज्ञा का अविलम्ब पूर्ण तत्परता से पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यों आया है, उसका इस युग में क्यों जन्म हुआ है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इन सबका ज्ञान केवल गुरु को ही होता है।
यदि शिष्य के मन में यह अहंकारी भाव है कि मैं एक श्रेष्ठ जाति में उत्पन्न हुआ हूं, मैं बहुत धनाढय हूं, मैं बहुत ऐश्वर्यवान हूं, मेरा परिवार बहुत सुप्रतिष्ठत है, मेरा यश बहुत फ़ैला हुआ है या मैं बहुत विद्वान हूं आदि, तो उसे गुरु के सम्मुख उपस्थित नहीं होना चाहिए। इन भावों को तिरोहित कर ही गुरु कृपा प्राप्त की जा सकती है।
गुरु की कृपा से सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है, क्योंकि गुरु से उच्च कोई अन्य तत्व नहीं है, अतः मोक्ष मार्ग पर चलने वाले शिष्य को सदैव गुरु का ही चिन्तन, मनन करते रहना चाहिए।
गुरु कृपा से ही ब्रह्मा सृजन में, विष्णु पालन में तथा रूद्र संहार करने में समर्थ हो पाते हैं। अतः शिष्य को गुरु सेवा परम सौभाग्य समझना चाहिए। समस्त भारतीय ऋषि परम्परा इस बात का जीवन्त प्रमाण है, कि गुरु सेवा द्वारा ही सर्व भौतिक आध्यात्मिक सुख प्राप्ति सम्भव है।
यदि शिष्य अपने जीवन में पूर्णता चाहता है, तो उसके लिए गुरु साधना आवश्यक है, क्योंकि गुरु ही परम तत्व हैं।
शिष्य के पास जो भी चिंताएं है, दुख हैं, परेशानियां है, बाधाएं है उन सबको गुरु के चरणों में समर्पित कर देना है।
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