जीवन तो फ़ना होने की ललक है, दीवाना बन जाने का जुनून है——–और जो ऐसा नहीं कर सकता वह तो मूढ़ और पत्थर है। ऐसा जीवन बहती हुई नदी नहीं बन सकता, जो अपने आप में सिमट कर रह गया, उसके जीवन का कोई अस्तित्व नहीं है।
और शिष्य वह है जो जिसमें एक तड़फ़ हो, एक बेचैनी होनी चाहिये, वह अपने आप को कितना ही काबू करे, मगर हर क्षण उसके मन में एक भावना, एक चिन्तन-विचार बना रहे कि मुझे अपने जीवन में वह प्राप्त करना ही है, जो मेरा लक्ष्य है। क्योंकि मैं पगडण्डी के प्रारम्भ से शुरू हुआ हूं और मुझे पगडण्डी के अंत तक पहुंचना है और पगडण्डी के अंत तक पहुंचने में ही मेरे जीवन की पूर्णता है। ऐसा चिन्तन केवल शिष्य का हो सकता है।
जब तक वह अपने इष्ट से, गुरु से साक्षात नहीं कर लेता, तब तक उसके अन्दर विरह की एक आग धधकती रहती है और उसका इलाज फि़र किसी वैध के पास नहीं होता। उसका इलाज तो इष्ट के पास ही होता है, प्रिय के पास ही होता है कि जब वे आयेंगे तब मैं उसमें अपने आप को समाहित कर दूंगा, कर दूंगी। जब प्रियतमा का यह भाव साधक में आ जाता है, तब उसमें कोमलता आ जाती है।
एक सामान्य मनुष्य का ब्रह्म में लीन हो जाना, अपने आप की परिपूर्णता है। वह एक जर्रे को आफ़ताब बना देने की क्रिया है, गुरुता है, श्रेष्ठता है, दिव्यता है। और जब शिष्य के जीवन में ऐसा हो जाता है, तब वह चैतन्य हो जाता है, तब वह सड़कों पर उतर जाता है और झूमता हुआ आगे बढ़ता है। लोग उसे पागल कहते हैं, पत्थर फ़ेंकते हैं, गालियां देते हैं, जहर देते हैं, झकझोरते हैं, मगर वह इस बात की परवाह नहीं करता।
जिस दिन यह दिल काबू में नहीं रहे, जिस दिन लोग समझायें, पावों में बेडि़या डाल दें और उसके बावजूद भी वह रूक नहीं सके———तब समझना चाहिये कि उसका हृदय जाग्रत हुआ है। तब समझना चाहिये कि उसके दिल में एक क्रान्ति की चिनगारी पैदा हुई है। तब समझना चाहिये कि वह गुरु से एकाकार हो जाने के लिये और प्रभु में अपने आप को विसर्जित करने के लिये तैयार हो गया है और विसर्जित कर देने की यह क्रिया उस दिन प्रारम्भ होती है, जब उसका अपने हृदय पर काबू नहीं रहता।
जब जीवन में गुरु से और इष्ट से एकाकार हो जाने की तीव्र प्यास पैदा हो जाती है, तब वह साफ़ कहता है कि तुम्हारा प्रेम मेरे सीने में जाग्रत है, मैं तुम्हें जानता हूं, मैं बहुत अच्छी तरह से तुम्हें पहिचानता हूं। तुम कहो तो मैं इस बात को पूरी दुनिया में फ़ैला दूं, मैंने तुम्हारे प्यार को अपने हृदय में छिपा कर रखा है, मेरे हृदय में एक जज्बा पैदा हुआ है।
गुरु को प्राप्त करने की क्रिया है – गुरु के अन्दर उतरने की क्रिया और उतरने के लिये कौन सा रास्ता है, कौन सी पगडण्डी है – वह पगडण्डी है प्रेम की, वह पगडण्डी है प्यार की, वह पगडण्डी है फ़ना होने की, वह पगडण्डी है अपने आप को मिटा देने की।
जब गुरु से निकटता बनती है, तब उनकी याद आते ही आंखों से आंसू छलक जाते हैं, आंखों के कोर से सिमटे आंसू की बूंद में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाया हुआ होता है, उस आंसू की बूंद में प्रेम का सागर लहरा रहा होता है—- जो गालों पर लुढ़क कर नीचे उतर जाता है।
अगर प्रिय का स्मरण हो, और आंखों में आंसू झिलमिलाये ही नहीं तो फि़र जीवन का कोई अर्थ ही नहीं—यदि हम आंख बंद करें और प्रिय का एहसास ही न हो, तो फि़र प्रेम ही कैसा हुआ? क्योंकि प्रेम तो सम्पूर्ण रूप से सिमटा हुआ एक अश्रु कण ही तो है, जो आंख की कोर से निकलता है और पूरे संसार में व्याप्त हो जाता है, झकझोर देता है, प्रेमी के मन को, आत्मा को, वह प्रेमी चाहे ईश्वर हो, वह प्रेमी चाहे गुरु हो।
जो सब कुछ दे दे, जो सब कुछ पूर्ण कर दे, जो शिष्य को एक कण से आकाश बना दें, जो एक मामूली से वाष्प को बादल बना दे, गंगोत्री बना दे, वह गुरु है।
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