विकृत प्रेम ने मानव मन को अतृप्त कर दिया है। सुरसा मुख की तरह बढ़ती आवश्यकताएं और उनकी पूर्ति में व्यस्त जीवन। यह सोचने और समझने का अवसर ही नहीं प्राप्त नहीं होता कि प्रेम क्या है। स्वर्ण मृग के लिए भागता आदमी, केवल भागता ही रहता है, दौड़ता ही रहता है, अन्ततः हाथ कुछ भी नहीं लगता! कुछ क्षण ऐसे भी होने चाहिए जो केवल खुद के लिए हो, जब उन क्षणों में आदमी केवल अपने लिए जिये और सोचे, जीवन क्या है? मेरा जन्म क्यों हुआ? क्या मैं जो इतनी भाग-दौड़ करता हूं, यह प्रेम है? शादी की है, पत्नी ने अपना तन सौंप दिया, तो उसको जीवन भर खिलाना ही पड़ेगा, मजबूरी है, प्रेम नहीं, यह वासना है, प्रेम का तो अंश मात्र भी नहीं है और यदि जीवन में प्रेम नहीं होगा, तो व्यक्ति तनावों से, बीमारियों से, चिन्ताओं से ग्रस्त होकर समाप्त हो जायेगा।
जब मन जाग्रत होता है, तभी जीवन में प्रेम की उत्पत्ति होती है। वास्तविकता यह है, कि व्यक्ति प्रेम के बगैर रह ही नहीं सकता। परन्तु प्रेम केवल भाग्यशाली व्यक्तियों को ही प्राप्त हो पाता है। जिनके मन में प्रेम की कोंपल फूटती हैं, वे अति सौभाग्यशाली होते हैं। प्रेम का जागरण होने का तात्पर्य है, जीवन में अनन्त सम्भावनाओं के द्वार खुलना। जिनके मन में प्रेम पैदा होता है, स्वतः ही उनके जीवन में रस प्रवाहित होने लगता है। ऐसा रस जो व्यक्ति के जीवन को आनन्द से परिपूर्ण करने में पूर्ण सक्षम होता है। प्रेम में कभी किसी प्रकार का सौदा नहीं होता, प्रेम तो मात्र सब कुछ दे देने की प्रक्रिया है। जो व्यक्ति कुछ प्राप्त करने की लालसा रखते हैं वे प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम तो अपने आपको विसर्जित करने की प्रक्रिया है, अपने आपको पूर्ण समर्पित करने की भावना है।
‘काम’ शब्द का नाम आते ही लोग इस प्रकार विचार करने लग जाते हैं मानों वे किसी विचित्र वस्तु के बारे में विचार कर रहे हैं, जो कि जीवन के लिये अनिष्टकारी है। जबकि यह धुव्र सत्य है कि जीवन का आधार ही प्रणय है, काम है और जिसके कारण ही यह सृष्टि निरन्तर अग्रसर हो रही है। प्रत्येक आर्य ऋषि ने विवाह किया, सन्तानें हुईं, प्रत्येक देवता ने विवाह किया और यहाँ तक कि जब हम सर्व श्रेष्ठ त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की चर्चा करते हैं तो विष्णु ने लक्ष्मी से, भगवान शिव ने पार्वती से तथा सृष्टि निर्माता ब्रह्मा ने सरस्वती से विवाह कर गृहस्थ धर्म निभाया और यह सृष्टि क्रम निरन्तर चला आ रहा है। इसका आधार स्त्री-पुरूष संबंध अर्थात् काम और रति ही हैं जब तक पुरूष में काम भाव जाग्रत नहीं होगा और स्त्री में रति भाव जाग्रत नहीं होगा तब तक जीवन का नवनिर्माण और जीवन में सरस्वती नहीं आ सकती है। इसीलिये पुरूषों में पुर्ण पराक्रमी, पौरूषयुक्त मनुष्य को कामदेव तथा रति अनंग सौन्दर्य युक्त स्त्री को अप्सरा की संज्ञा दी गई है।
पांच पत्रिका सदस्य बनाने पर कामदेव रति अंनग शक्ति दीक्षा उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी।
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