त्रैलोक्य पाविनी मां भगवती जगदम्बा का मातृ स्वरूप भी अपने अन्दर शक्ति की कैसी चैतन्यता समाहित किए है, इसे इस सामान्य बुद्धि और इन सामान्य चर्म चक्षुओं से जाना भी कैसे जा सकता है? मां भगवती जगदम्बा के भीतर कैसा वरदायक रूप और प्रभाव छुपा है और कैसा ममतामय अनुग्रह, इसका सहज अनुमान लगाना कठिन है।
पग-पग पर जीवन में सहायक बनती भगवती जगदम्बा को पहिचानने के लिए ही पूरे वर्ष में नवरात्रि के पर्व रचे गए। साधनाओं को सम्पन्न कर उनकी कृपा का प्रत्यक्ष फल प्राप्त करने का मुहूर्त प्राप्त किया गया। इस चराचर जगत के मूल में मां भगवती जगदम्बा की शक्ति सर्वत्र क्रियाशील है। वे ही आनन्दरूपा हैं, वे ही पालनकर्ता हैं और वे ही अपने भक्तों का उद्धार करने में समर्थ हैं। केवल इस धरा के भक्तों का ही नहीं वरन रूद्र, वसु, मित्र, वरूण, अग्नि, अश्विनी कुमारों, विष्णु, ब्रह्मा और प्रजापति का भी पोषण करने वाली आध्या शक्ति मां भगवती ही हैं। कहीं महाकाली के रौद्र रूप में अशुभ का विनाश कर सहायक होती हुईं, कहीं महालक्ष्मी के विविध आभूषणों से युक्त श्रृंगारमय स्वरूप में ऐश्वर्य देती हुईं और कहीं महासरस्वती के पावन स्वरूप में जीव को आध्यात्मिक उच्चता की ओर ले जाती हुईं, पल-पल गतिशील रहती हुईं, पल-पल मुखरित और चैतन्य रूपा बन कर।
यह एक सुस्थापित मान्यता है कि न केवल इस जगत वरन इस अखिल ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के मूल में कोई आदि शक्ति ही क्रियाशील है। यह समस्त ब्रह्माण्ड जिस प्रकार से एक क्रिया और लय में बद्ध है, जिस प्रकार से समस्त ग्रह एवं पिण्ड गतिशील हैं, वह किसी शक्ति के अभाव में सम्भव ही नहीं। किसी भी वस्तु का सृजन शक्ति के अभाव से सम्भव ही नहीं। प्रत्येक वस्तु का सृजन शक्ति के द्वारा होता है और विनाश भी शक्ति के द्वारा ही होता है। इसी कारण शक्ति को त्रिगुणात्मक माना गया है अर्थात आदि शक्ति के ही तीन रूप सत्, रज एवं तम हैं। सृजन का कार्य सम्पन्न करने के कारण शक्ति को स्त्री रूपा, देवी रूपा माना गया है।
जिस तरह से किसी भी जीव का निर्माण उसकी मां के रक्त मज्जा से ही होता है, ठीक उसी प्रकार से शक्ति तत्व भी प्रत्येक जीव के अर्न्तगत निहित होता है। अंतर केवल यह हो जाता है कि किसी को यह बात स्मरण में रहती है और किसी की स्मृतियों में खो जाती है। वर्ष में पड़ने वाले चार नवरात्रि पर्व (दो प्रकट एवं दो गुप्त) इसी बात का स्मरण कराने के लिए निर्मित किये गये हैं। यह स्वयं आदि शक्ति भगवती जगदम्बा नहीं कहती कि तुम अमुक-अमुक दिवसों में मेरी उपासना करो तो मैं प्रसन्न होऊंगी वरन वे अवसर, काल के विशिष्ट क्षण ढूंढे गये हैं हमारे उन पूर्वजों द्वारा जिन्हें हम ऋषि कहते हैं और उनका वंशज होने का गौरव का अनुभव करते हैं। हमारे वे पूर्वज प्रकृति से पूर्ण रूप से सामंजस्य युक्त करते थे और इसी कारणवश शक्तियुक्त भी रहते थे।
मनुष्य ने जब से प्रकृति के साथ सामंजस्य को छोड़ा तभी से उसने क्लेश में रहना प्रारम्भ कर दिया। ऋषिगण इस तथ्य को भली-भांति समझते थे कि आने वाले युगों में मनुष्य की क्या मानसिकता होगी और इसी कारणवश उन्होंने नवरात्रि जैसे पर्वों का सृजन किया। जीवन में शक्ति तत्व के महत्व को कोई भी उपेक्षित नहीं कर सकता। दुर्बल व्यक्ति का जीवन पग-पग पर अपमानित होता है। उसे इस संसार और समाज में तो कोई श्रेयता मिलती नहीं, उसके लिये आत्मज्ञान का पथ भी अवरूद्ध होता है। ‘नायम् आत्मा बलहीने लभ्यः’ अर्थात दुर्बल व्यक्ति को आत्मा या अध्यात्म की उपलब्धि नहीं होती, ऐसा हमारे उपनिषदों का स्पष्ट कथन है। शक्ति तत्व जीवन में दान से नहीं मिल सकता, उसे भक्ति से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। उसे अपने दृढ़ संकल्प से, अपने पौरूष से अर्जित करना पड़ता है।
शक्ति के बिना कोई भी पुरूषार्थ सफल नहीं हो सकता। प्रत्येक अणु-परमाणु में देव प्रदत्त शक्ति है और वही उसका संचालन करती है और वस्तु का धर्म कहलाती है। अग्नि में ऊष्णता, प्रकाश व दाहकता उसकी शक्ति है, और उसका धर्म भी है। शिव-शक्ति से युक्त होकर ही सृजन, पालन व संहार में समर्थ होते हैं। यदि वे शक्ति रहित हैं तो स्पन्दन भी नहीं कर सकते हैं। इसीलिए सारे देव शक्ति से युक्त होकर ही उपास्य हैं।
मार्कण्डेय पुराण और वाराह पुराण में इसी को वैष्णवी की संज्ञा दी गई है। जिस तरह भगवान शिव के प्रताप से काशी भारत का प्रमुख तीर्थ बना, ब्रह्मा, अग्नि, इन्द्रादि देवताओं की तपोभूमि तथा श्रीकृष्ण के गीता उपदेश से कुरुक्षेत्र तीर्थमय स्थान को प्राप्त हुआ। ठीक उसी तरह दस महाविद्याओं के पूर्ण स्वरूप में सांसारिक व्यक्ति को अभय और शक्ति प्रदान करने में माता वैष्णों देवी प्रमुख तीर्थ रूप में अवस्थित हैं। गुरु के चरणों में दो प्रकार के लोग उपस्थित होते हैं- साधक और शिष्य। साधक के लिए कोई बंधन नहीं है, वह जो भी कार्य करता है, एक प्रकार से अंधेरे में हाथ पांव मारने के समान है। वह पुस्तकों में लिखित क्रियाओं को संपन्न कर अर्चना, ध्यानादि करता है, भले ही वह क्रिया उसके लिए अनुकूल हो या नहीं हो। इसके विपरीत शिष्य वह है, जो कार्य, मन, वाणी, और धन से गुरु सेवा के लिए तत्पर हो, गुरु आज्ञा के लिए समर्पित हो, विद्या-जाति आदि के अभिमान से परे हो। जब ऐसा होता है, तब वह शिष्य बनने लगता है, तब उसके अंदर सद्गुरु तत्व शाश्वत चैतन्य हो जाता है।
विशाल सागर का विस्तार अनंत है और अनंत रहस्य छिपे हैं इसकी अतल गहराईयों में। इसलिए हर नदी बहती है केवल और केवल सागर में विलीन होने के लिए। और सागर मतभेद नहीं करता, उसका विस्तार सभी के लिए सदा निमंत्रण संप्रेषित करता रहता है। परन्तु तट पर पहुंच कर वहां खड़े रहने से कुछ भी नहीं होगा, आगे बढ़कर समाना होगा।
ऐसे खुले निमंत्रण से एकाएक आप भयभीत हो जाते हैं, संकोच करते हैं, भ्रमित होते हैं और अपने व्यर्थ के आभूषणों- अहंकार, मोह, लोभ, आदि से चिपके रहते हैं। वह संसार छोड़ने को नहीं कह रहा, ना ही परिवार को त्यागने का तुमसे आग्रह कर रहा है। अपितु कह रहा है अपने शीश को, अपनी बुद्धि को, अपनी समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात्रा में यह बाधक रही है। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह रूपांतरण नहीं हो पाएगा, जिसका मानव जगत अधिकारी है।
सद्गुरु कहता है भूल जाओ, छोड़ दो सब, आ जाओ मेरी बाहों में। गुरु तो देने को तैयार हैं, एक क्षण मात्र में यह घटित हो सकता है। इसके लिए वर्षों का परिश्रम नहीं चाहिए। हां, उसे ग्रहण आपको करना है। गंगा तो विशुद्ध जल सदा प्रवाहित करती ही रहती है, तृष्णा शान्त करनी है तो आपको उठकर जाना ही होगा, झुकना ही होगा, अंजुली में पानी भर कर होठों तक लाना ही होगा।
जब सौभाग्य जागता है, तो उसके लिए कोई पूर्व तैयारी नहीं की जाती है। यह तो एक क्षण होता है, कि सोया हुआ भाग्य करवट बदलकर एकदम से उठ बैठता है और व्यक्ति की जीवन वाटिका में हजारों रंग-बिरंगे पुष्प सुगंध बिखेरते हुए खिल उठते हैं। शिष्य और साधक स्वयं अनुभव करने लगता है सद्गुरुदेव की चैतन्यता, पूर्णता, सुगन्ध। इसी सब का नाम है ‘अहम् ब्रह्मास्मि चैतन्यता’, अर्थात सृष्टि में मेरे समान कोई भी व्यक्ति नहीं हैं, परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य को नूतन रूप में सृष्टि में भेजा है। अतः मेरे समान इस संसार में देह के रूप में, आभा के रूप में अन्य कोई नहीं है। परमात्मा ने सभी का चेहरा कुछ न कुछ भिन्नता लिए हुये ही निर्मित किया है। वर्तमान में विश्व की लगभग आठ सौ करोड़ जनसंख्या है। उसमें प्रत्येक व्यक्ति का चेहरा अलग भाव में दिखायी देता है। इसका तात्पर्य इन करोड़ो लोगो में मैं पूर्ण परमात्मा स्वरूप हूं।
इस परमात्मा स्वरूप को कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से, पूर्ण चेतनावान बनाने के लिए और ज्ञान,, बुद्धि, भौतिक, आध्यात्मिक चेतना से युक्त करने अर्थात इस संसार में जो कुछ भी निर्मित है और जो भी नूतनता संसार में निर्मित करनी है वह केवल मुझसे ही संभव है, अर्थात मैं ही पर बह्म्र स्वरूप हूं। जिस तरह से ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, वैसा ही निर्माण मेरे स्वयं के द्वारा निश्चत रूप से संभव है। इस अहम् ब्रह्मास्मि का भाव चिंतन प्राप्त करने के लिए वह क्रिया, वह दिव्यता केवल और केवल श्रेष्ठ मार्गदर्शन से और गुरु के आर्शीवाद से ही पूर्ण रूपेण संभव है।
अहम् ब्रह्मास्मि के आत्म चिंतन को देह, मन, विचार, भाव और क्रिया के इन पंचभूता तत्वों के युक्त होने से जीवन की मलीनता, जीवन का संड़ाध, जीवन की दुर्बलता, बोझिलता और दुभिर्क्षता निश्चित रूप से समाप्त होती ही है और जीवन मे हर रूप मे आनन्ंद, प्रसन्नता, उल्लास, चैतन्यता और निरंतरता का भाव स्थायी रूप से आता ही है।
इन्हीं आयामों को पूर्णता से प्राप्त करने के लिए सद्गुरुदेव अवतरण उत्सव पर ‘अहम् ब्रह्मास्मि चैतन्य दीक्षा’ प्रदान की जायेगी। इस दीक्षा को प्राप्त करने का श्रेष्ठतम अवसर हनुमान जयंती चैत्र पूर्णिमा 15 अप्रैल से भौमवती अमावस्या 29 अप्रैल के मध्य में प्रदान की जायेगी।
पांच पत्रिका सदस्य बनाने पर टैलीपैथी के माध्यम से सद्गुरुदेव की चैतन्य आत्मीय दिव्य शक्ति द्वारा प्रदान की जायेगी। पूर्व में दीक्षा से सम्बधित राशि भेजने पर उक्त दिवसों में किसी एक दिन आप प्रातः 05:27 से 06:39 के मध्य पूजा स्थान में बैठ जायें और सद्गुरुदेव का ध्यान कर ‘ऊँ अहम् ब्रह्मास्मि’ के मंत्र का 15 मिनिट तक आंखें बंद कर बिना माला के जाप करते रहें। मंत्र उच्चारण के बीच में ही गुरुदेव दिव्य शक्ति द्वारा अहम् ब्रह्मास्मि दीक्षा प्रदान करेगें।
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