शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए शिव ही मानव शरीर धारण कर, उसे पूर्णता प्रदान करते हैं।
शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है उसकी बराबर अवस्था में ही आकर ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। अतः शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरु भी उसी स्थिति में आते हैं।
सद्गुरु के समीप बैठने से ही मन आनन्द पूर्ण हो जाता है। गुरु का शरीर साधारण प्राणियों के शरीर की तरह नहीं होता। उनका शरीर तपस्या की ऊर्जा से परिपूर्ण होता है। जो भी साधक उनकी सामीप्यता प्राप्त करता है, वह आनन्दमय हो जाता है।
शिष्य अज्ञानतावश जन्म मृत्यु को अपने ऊपर आरोपित कर दुःख भोगता है। गुरु ऐसे मिथ्या ज्ञान को समाप्त करके शिष्य को उसके स्वरूप से परिचित कराते हैं।
गुरु शिष्य के लिए सदैव वंदनीय हैं, उसके आराध्य देव हैं। इस जीवन में कोई संबंध सत्य और स्वार्थ रहित है, तो वह गुरु शिष्य संबंध है।
गुरु सदैव अत्यंत करूणा से शिष्य के हित के लिए युक्त होते हैं। शिष्य अनेक जन्मों से भटकता हुआ और संतृप्त है। गुरु ही उसे अध्यात्म की ओर प्रेरित करते हैं।
जब साधक समर्पण की सीमा पर पहुंचता है, तब गुरु के अतिरिक्त संसार में उसे कुछ भाता नहीं, सारे सांसारिक संबंध गौण हो जाते हैं। गुरु शिष्य का संबंध तो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
जब संसार में सभी संबंधी विपत्ति आने पर साथ छोड़ देते हैं तो गुरु ही उसके लिए सहायक सिद्ध होते हैं। यही सबसे अधिक उनके पहिचान का स्वरूप है।
गुरु का निरन्तर चिंतन करने से साधक की बुद्धि गुरु के प्राणों से जुड़कर पवित्र हो जाती है। तभी गुरु का ब्रह्ममय स्वरूप प्रकट होकर शिष्य का कल्याण करता है। मैं सबका पिता हूं, आपकी मां हूं, आपका भाई हूं, बहन हूं, आपका रखवाला हूं और रहूंगा। कहीं भी मन में हिचकिचाहट लाने की जरूरत नहीं, कोई भी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
आप साधना करें, नहीं करें, आप सिद्धियां प्राप्त करें अथवा नहीं करें। इस बात की कोई मुझे इच्छा है ही नहीं। मुझमें ज्ञान, तेजस्विता का अंश होगा, तो आप जैसे भी हों, जिस स्थिति में भी हों आपको कंधो पर बिठाकर भी लेकर चला जाऊंगा, इस बात की गारण्टी है क्योंकि मेरे अन्दर ब्रह्मत्व है और जाग्रत अवस्था में है।
ये चेतना, ये ज्ञान पूरे आर्यावत में व्याप्त करनी चाहिए हमें, हमें एहसास करना चाहिए, शेर की तरह अगर एक पांव आगे बढ़ाएंगे तो हाथी अपने आप हिल जाएगा, पहाड़ रास्ते से अपने आप हट जाएगा और ऊनती नदी भी रास्ता छोड़ देगी— बस एक पैर आगे बढ़ाने की जरूरत है।
विष्णु को सहस्त्राक्षि कहा गया है, उनके हजार हाथ हैं, हजार आंखे हैं और आप भी कोई मेरे हाथ हैं, कोई पांव हैं, कोई नेत्र हैं, कोई नासिका हैं और आपके शरीर के प्रत्येक अंग, आप से मिलकर के एक गुरु बनता है, जिसका नाम निखिलेश्वरानन्द है।
जो कायर और बुजदिल हैं, उनके सफ़ेद बाल भी आ जाएंगे, वे एक तरफ़ बैठे भी रहेंगे और मृत्यु को प्राप्त भी हो जाएंगे। वह जीवन नहीं है, वह चेतना नहीं है, वह बुद्धिवादिता है, न्यूनता है, अल्पज्ञता है, अपौरूषता है।
कभी क्षण ऐसा आए जब आपकी आंख भीगे, कभी ऐसा क्षण आए जब ‘गुरुदेव’ शब्द सुनते ही तुम्हारा हृदय गद्-गद् हो जाये, कभी ऐसा क्षण आ जाए जब आप रह ही न सकें, गुरु आपके पास से जाएं और आप रूक जाएं, आपके हाथ रूक जाएं, आपका शरीर रूक जाये तो आप शिष्य क्या हुए, तो आपमें पात्रता क्या हुई— मैं गुरुदेव को देखूं और उनके पीछे एक मील दौड़ता हुआ उनके चरणों से न लिपट जाऊं तो मेरी शिष्यता क्या चीज है—- वही सही अर्थों में गुरुमय शिष्य है।
नदी कभी नहीं रूकती, बहती रहती है, जब तक समुद्र में विलीन नहीं हो जाती— दौड़ती चली जाती है और समुद्र में पूर्णता से विलीन होती है। उसको नदी कहते हैं, उसको शिष्यता कहते है, उसको पात्रता कहते हैं—–।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,