वैसे तो भारत में प्रचलित कई सिद्धियां हैं, अष्ट सिद्धियां हैं, गौण सिद्धियां है और उनके बल पर कुछ भी करना असम्भव नहीं रह जाता। परन्तु यह बात भी सत्य है कि ये अत्यधिक कठिन, दुष्कर एवं श्रम साध्य हैं, इनको सम्पन्न करना ही मानो जीवन को दांव पर लगा देना है। एक ही सिद्धि करने के लिए कभी-कभी जीवन लग जाता है और अंततः सफलता भी हाथ नहीं लगती—
ऐसी स्थिति में साधारण मानव का मन तो उचट ही जाता है, वह सोचता है, क्यों मैं इन सिद्धियों-साधना के चक्कर में पडूं और अपना जीवन बर्बाद करूं? कुछ हाथ तो लगने वाला ही नहीं है, तो फिर जवानी के मनमोहक क्षण ही क्यों गंवाऊं, क्यों न मैं भी औरो की तरह ही धन कमा लूं, कुछ बन जाऊं?
ऐसी स्थिति में साधारण मानव सोचता है कि ये सब साधना एवं सिद्धियां केवल साधु-संन्यासियों के लिए हैं, इनसे उसका कुछ लेना-देना नहीं। यह तो केवल उन लोगों का काम है, जिनका घर-बार नहीं, जिनके पास हिमालय में बैठने के सिवाय कोई काम नहीं। उसे तो घर की जिम्मेवारी पूरी करनी है, उनके लिए कमाना है, अतः वह इन चीजों से कटकर ही रहता है—– हालांकि ऐसा नहीं, कि उसके मन में जिज्ञासा नहीं उठती या उसके मन में सिद्धियों के प्रति आकर्षण पैदा नहीं होता, परन्तु पूरा जीवन एक चीज के पीछे लगा देने वाली बात भी उसे नहीं जचती और वह अपने भाग्य को कोसकर रह जाता है।
यह असल में एक गलत धारणा है, यह अवास्तविकता है, क्योंकि माना जा सकता है, कि कई सिद्धियां प्राप्त करना अति दुष्कर होता है, परन्तु उनके लिए घर-परिवार एवं उनके प्रति अपने कर्त्तव्य को छोड़ने की जरा भी आवश्यकता नहीं, यह मात्र एक भ्रांति है।
फिर हमारे ऋषियों एवं महायोगियों ने ऐसी साधनाएं भी प्रतिपादित की हैं, जो कि उनके तप से पूर्णतः आपूरित हैं और जो अत्यन्त ही कम समय में सिद्ध हो जाती है। अगर अटूट विश्वास हो और गुरु पर पूर्ण श्रद्धा हो, तो यह साधना शीघ्र ही सिद्ध हो जाती है और व्यक्ति को न तो हिमालय की ओर जाना पड़ता है, न ही अपने सम्पूर्ण जीवन को ताक पर रखना पड़ता है। उसे तो बस, ‘विश्वास और श्रद्धा’, इन दोनों की सीढ़ी बनाकर निरन्तर ऊपर की ओर गतिशील होना होता है।
इन्हीं स्वयं सिद्ध साधनाओं में से एक हैं ‘अपरा शक्ति साधना’। यह साधना अपने आप में प्रचण्ड तेजस्वी एवं दिव्य होने के साथ-साथ अत्यधिक सरल भी है। इस साधना के पीछे जो नाम है, वह है महर्षि विश्वामित्र! जब विश्वामित्र एक बार अष्ट सिद्धियों की साधना में संलग्न थे तो बाकी सारी साधनाएं तो उनके सामने उपस्थित हो गई सिवाय प्राकाम्य के—- महर्षि विश्वामित्र का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया, उन्होंने उसी क्षण उसी उपलब्धि के लिए एक नवीन साधना विधि रच डाली, जो कि पहले से कहीं ज्यादा सरल और उपयोगी थी। प्राकाम्य का अर्थ होता है, कि व्यक्ति किसी भी लोक में क्षण भर में जा सकता है, वहां के प्राणियों से मिल सकता है, उनकी बोली समझ सकता है, बोल सकता है और ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान कर सकता है।
विश्वामित्र की इस नवीन साधना पद्धति में बस इतना ही अन्तर था, कि व्यक्ति पृथ्वी पर ही रहते हुए किसी भी लोक के प्राणी से सम्पर्क स्थापित कर उनसे ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान कर सकता था और इसी दिव्य एवं अत्यन्त सरल, गृहस्थों एवं संन्यासियों के लिए समानुपयोगी साधना को उन्होंने ‘अपरा शक्ति साधना’ की संज्ञा से विभूषित किया।
‘परा’ का अर्थ है- बाहर, अलग। ‘अपरा’ का अर्थ है- अन्दर, विलग। अतः अपने शरीर में स्थित शक्ति की साधना को अपनी ही आन्तरिक चेतना, आन्तरिक शक्ति को पूर्णतः जाग्रत करने की साधना को विश्वामित्र ने ‘अपरा शक्ति साधना’ कहा। उन्होंने कहा, ‘तुम लोग करो बाहर शक्ति की साधना, तुम लोग ढूंढो शक्ति को बाहर, मैं तो अपने अन्दर ही उसे पा लूंगा, अपने अंदर ही उसे जाग्रत कर लूंगा, सिद्ध कर लूंगा।
और वास्तव में ही उन्होंने ऐसा करके भी दिखा दिया और जब उन्होंने इस नवीन साधना के द्वारा अपनी समस्त आन्तरिक शक्ति को जाग्रत कर लिया, तो बाद में थोड़े ही प्रयत्नों के उपरांत प्रकाम्य को भी उनके सामने वरमाला लेकर उपस्थित होना ही पड़ा।
यह अपरा साधना वास्तव में ही एक अद्वितीय साधना है, क्योंकि इससे व्यक्ति की सारी आन्तरिक शक्ति, सारी आन्तरिक ऊर्जा, सारी आन्तरिक चेतना, एक विस्फोट की तरह जाग उठती है और वह अपने आपको बिल्कुल ही एक नवीन व्यक्तित्व में पाता है। पहली बार उसे एहसास होता है कि सौन्दर्य वास्तव में क्या होता है, उसके शरीर का एक-एक अंग सांचे में ढल जाता है, उसका आकर्षण कई सौ गुणा बढ़ जाता है, उसके शरीर में अपरा शक्ति का संचरण होने लग जाता है, एक आभा मण्डल उसके चारों ओर निर्मित हो जाता है और जो कोई भी उससे एक बार मिल लेता है, वह हमेशा उसके सम्पर्क में रहना चाहता है।
उसकी वाणी में एक ओज स्थापित हो जाता है, उसकी वाणी अत्यन्त मधुर एवं कर्णप्रिय हो जाती है और उसमें एक प्रकार से वाक् सिद्धि का निवास हो जाता है। वह जो कुछ भी कहता है, निकट भविष्य में सत्य हो जाता है। फलस्वरूप सभी व्यक्ति उसे आदर भाव से देखते हैं, उसे सम्मान देते हैं और वह संसार में पूर्ण सम्मान, यश, लक्ष्मी एवं सम्पदा का भागी होता है।
इस साधना की सबसे बड़ी विशेषता है, कि इसमें व्यक्ति का अचेतन मन -‘समग्र अचेतन’ हो जाता है। फलस्वरूप वह जब चाहे ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक के किसी भी प्राणी से मानसिक सम्पर्क स्थापित कर सकता है और विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है। इस प्रकार से उन अपूर्व रहस्यों का ज्ञाता हो जाता है, उस अद्वितीय ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जो बहुत ही बिरले व्यक्तियों के भाग्य में होता है।
और जब वह अपने ज्ञान को विद्वत परिषद के सामने रखता है, जब वह धारा प्रवाह रहस्यों की परतें उधाड़ता हैं, तो समस्त विद्वत समाज मूक रह जाता है और उसके सामने पराजित हो जाता है। वास्तव में ही यह साधना अपूर्व है, इसका कोई जोड़ नहीं। प्राचीनकाल में गोरखनाथ एवं शंकराचार्य इसके जानकार रहे, परन्तु न जाने फिर यह साधना पद्धति किस अंधकार में खो गई। इसका कोई भी ज्ञान सामने उभर कर नहीं आया। परन्तु यह इस पीढ़ी का सर्वाधिक सौभाग्य है कि सद्गुरुदेव ने साधना की इस लुप्त प्रायः कड़ी को पुनः संसार के सामने उजागर किया है और उजागर ही नहीं किया, उसे अपनी तपस्या के अंश से और अधिक तेजस्वी और अधिक प्रभावकारी बना दिया है।
अपरा शक्ति साधना
यह साधना पांच दिवसीय है और इसमें साधक को जो उपकरण चाहिए वे हैं- 1- अपरा शक्ति महायंत्र, 2- लोकानुलोक, 3- ब्रह्माण्ड माला। ये तीनों ही उपकरण पूर्ण चैतन्य मंत्रों से अभिमंत्रित और आपूरित होने चाहिए, तभी साधना को पूर्ण फल प्राप्त हो सकेगा।
यह साधना साधक 24 मई भद्रकाली एकादशी या किसी भी माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी अथवा किसी शनिवार से प्रारम्भ करें। रात्रि दस बजे के उपरांत वह स्नान आदि से निवृत्ति हो श्वेत धोती धारण कर, श्वेत आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे। तत्पश्चात् अपने सामने श्वेत वस्त्र से ढके बाजोट पर सिन्दूर से ‘ऊँ’ अंकित करे और उस पर ‘अपरा शक्ति महायंत्र’ स्थापित करे।
फिर उसके साथ गुरु चित्र स्थापित कर उनका मानसिक पूजन और साधना में सफलता हेतु प्रार्थना करें। इसके उपरांत अपने मन में साधना-सिद्धि का संकल्प दोहराते हुए ‘लोकानुलोक’ को यंत्र पर अर्पित करे और फिर महायंत्र का पंचोपचार पूजन सम्पन्न करे। घी का दीपक जलाएं और फिर पूर्ण विश्वास एवं श्रद्धा के साथ ‘ब्रह्माण्ड माला’ से निम्न मंत्र की 11 मालाएं जप करें-
साधना के दौरान अगर विभिन्न आकृतियां या विभिन्न ध्वनियां सामने आएं, तो डरने की आवश्यकता नहीं, न ही साधना से उठें, यह तो बस इस बात का संकेत है, कि साधना सही दिशा में गतिशील हो रही है।
यह पांच दिवसीय साधना है और पांच दिनों में अगर व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा के साथ साधना में संलग्न होता है, तो उसकी समस्त चेतना शक्ति जाग्रत हो जाती है और वह बाहरी लोकों के प्राणियों से इच्छानुसार सम्पर्क स्थापित कर सकता है। बाद में थोड़ी ऊंची स्थिति प्राप्त करने पर वह चाहे तो देवताओं (इन्द्र, वरूण, कुबेर आदि) से भी सम्पर्क स्थापित कर सकता है।
पांच दिनों के बाद महायंत्र तथा लोकानुलोक को किसी जलाशय में अर्पित कर दें और ब्रह्माण्ड माला को एक माह तक धारण करे। नित्य 21 बार यह मंत्र उच्चारण करें। इसके पश्चात् माला भी विसर्जित कर दें। जब भी साधक चाहे तो 21 बार मंत्र का उच्चारण कर बाहरी प्राणियों से सम्पर्क स्थापित कर सकता है।
यह साधना अद्वितीय है, जहां मानव इसके बल पर परलोकगत बातों का ज्ञाता हो जाता है, वहीं उसे वे सारी उपलब्धियां प्राप्त हो जाती है। वास्तव में ही यह साधना एक हीरक खण्ड के समान है, यह सहज प्राप्य नहीं। निश्चित ही वे तो भाग्यशाली होते है, जो इतनी उच्चकोटि की साधना को सिद्ध कर पाते हैं।
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