शिष्य गुरु से उसी प्रकार प्रेम करता है जिस प्रकार मार्कण्डेय शिव से प्रेम करते थे। साधना का अर्थ ही है प्रेम, अपने इष्ट से, अपने गुरु से और उस प्रेम को व्यक्त करने की क्रिया में काल-समय भी बाधक नहीं हो सकता, ऐसा मार्कण्डेय ने सिद्ध करके दिया। ऐसा ही प्रेम शिष्य का गुरु से हो।
शिष्य और गुरु के बीच थोड़ी भी दूरी न हो। इतना शिष्य गुरु से एकाकार हो जाए कि फि़र मुंह से गुरु नाम या गुरु मंत्र का उच्चारण करना ही न पड़े। जिस प्रकार राधा के रोम-रोम से सदा कृष्ण कृष्ण कृष्ण—– उच्चरित होता रहता था उसी प्रकार शिष्य के रोम-रोम से गुरुमंत्र उच्चरित होता रहे- सोते, जागते, चलते, फि़रते।
शिष्य को स्मरण रहे कि सद्गुरुदेव सदा उसकी रक्षा के लिए तत्पर हैं। कोई क्षण नहीं जब सद्गुरु उसका ख्याल न रखते हो। जिस प्रकार हिरण्यकश्यप के लाख कुचक्रों के बाद भी प्रहलाद का बाल भी बांका न हुआ, उसी प्रकार शिष्य की आस्था है तो संसार की कोई भी शक्ति उसका अहित नहीं कर सकती।
शिष्य को यह अहसास रहे कि सद्गुरु ही उसके माध्यम से कार्य कर रहे हैं, वे ही सब करवा रहे हैं। शिष्य स्वयं से कुछ भी नहीं करता। जिस प्रकार भगवत प्रेरणा से वाल्मीकि जैसे डाकू भी एक श्रेष्ठ ऋषि हो सके और रामायण की रचना कर सके, उसी प्रकार शिष्य द्वारा किए हर कार्य के प्रेरणा स्त्रोत सद्गुरु ही हैं।
शिष्य याद रखे कि उसकी वास्तविक शक्ति तो उसके सद्गुरु ही हैं। सद्गुरु से वह एकाकार है तो बेशक समस्त संसार उसका शत्रु हो जाए, उसका अहित नहीं हो सकता। जिस प्रकार जगतगुरु भगवान कृष्ण की शक्ति से केवल पांच पांडव, कई वीरों से सुशोभित कौरव सेना का संहार कर पाए उसी प्रकार एक साधारण शिष्य भी संसार में किसी भी विषम परिस्थिति में सद्गुरु कृपा से विजयी होता ही है।
हर कार्य करते समय, साधना सम्पन्न करते समय, हर मंत्र जप या यज्ञ करते समय शिष्य अनुभव करता है कि सद्गुरुदेव उसके समीप ही हैं तथा सूक्ष्म रूप से उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं तथा उसकी त्रुटियों को सुधार रहे हैं। यही निरंतर भावना वास्तविक गुरु पूजा है, गुरु वंदना है, गुरु आराधना है तथा जो शिष्य इस भावना के साथ अग्रसर होता है, तो किलता उसको स्पर्श भी नहीं कर सकती।
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