गुरु कुछ करता ही नहीं, समुद्र चलकर गंगोत्री के पास नहीं पहुंचता। शिष्य को गुरु के पास जाना पड़ता है और उससे ज्ञान प्राप्त करना होता है।
सेवा, समर्पण और श्रद्धा- ये तीनों ही रास्ते हैं जिनके माध्यम से शिष्य अपने खून को शुद्ध कर सकता है।
शिष्य को ज्ञान देने से पहले उसका अहं गलाना जरूरी है। शिष्य का कर्तव्य है कि वह इस कार्य में गुरु का पूरा सहयोग करें।
ज्ञान के पुंज को प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि शिष्य को कसौटी पर कसा जाए। शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की हर कसौटी पर खरा उतरे।
शिष्य के मानस में, चिंतन में, विचार में, ज्ञान की गरिमा स्थापित गुरु करता है।
इसलिए शिष्य का धर्म है कि वह गुरु सेवा करें और ज्ञान प्राप्त करें।
गुरु तो हर क्षण ही शिष्य को अपने समकक्ष बनाने का प्रयास करते हैं और इसी कारण उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप स्वरूप धारण करना पड़ जाता है, परन्तु यह शिष्य की अज्ञानता होती है, जो वह गुरु को सामान्य मनुष्य के रूप में देखता है, उसके लिए ऐसा चिंतन दुर्भाग्यपूर्ण होता है।
शिष्य के लक्षण, शिष्य का चिन्तन, शिष्य का विचार मधुर होना चाहिए, हर क्षण गुरु की आज्ञा का पालन करे, किसी भी तर्क या वितर्क में न फ़ंसे। सेवा, समर्पण और श्रद्धा से ही तुम लोहे से कुन्दन बन सकते हो।
तुम्हें अपने जीवन में रूकना ही नहीं है, तुम्हें अपने जीवन में एक क्षण भी विचार नहीं करना है, क्योंकि तुम्हारा जीवन बहुत कम बच गया है और पगडंडी बहुत लम्बी है। हिमालय से पूरी समुद्र तक की यात्रा, जीवन में धीरे-धीरे चलने से समुद्र नहीं मिल सकेगा क्योंकि नदी धीरे-धीरे चलेगी तो बीच में ही सूख जाएगी।
बाधाएं आज भी तुम्हारे सामने हैं, मगर इन बाधाओं को पार करते हुए तुम्हें बढ़ना है—- और जिस समय तुम मुझमें— अपने आप में विसर्जित हो जाओगे, लीन हो जाओगे, वही जीवन का लक्ष्य, जीवन का आनन्द और जीवन की चेतना है।
दीन-हीन बनना शिष्य बनने की क्रिया नहीं है, दीन-हीन बनकर पिता और पुत्र बनने की क्रिया भी नहीं है, दीन-हीन बनकर जीवनयापन और जीवन में चिन्तन करने की जरूरत भी नहीं है। इस समय तुम्हें अपने पूरे प्राणों का विस्फ़ोट करना है और ऐसा विस्फ़ोट करना है कि वह जीवन का एक अद्वितीय क्षण बन सके।
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