एक ज्ञानी इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार से देगा कि जीवन का ब्रह्म में लय हो जाना जीवन है, तो वहीं किसी भक्त की दृष्टि में प्रभु का स्मरण करना जीवन का पर्याय होगा। किन्तु यदि यही प्रश्न किसी प्रज्ञावान व्यक्ति से पूछा जाये तो जो उत्तर वह देगा वही जीवन की यथार्थ परिभाषा हो सकती है- जीवन में जितना शीघ्र हो सके सद्गुरुदेव की खोज करके उनके माध्यम से अपने जीवन का लक्ष्य समझ कर उसकी प्राप्ति में सचेष्ट हो जाना ही जीवन है। लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में होते हैं, कोई शिक्षा में सफल होने का चिंतन कर रहा है, कोई रोजगार प्राप्ति के लिए सचेष्ट है, कोई धन सम्पदा एकत्र करने के लिए प्रयासरत है, तो कोई किसी खास स्त्री से विवाह रचाने के लिए—–
जीवन का लक्ष्य किसी रटी-रटाई परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता है क्योंकि प्रत्येक शिष्य की अलग-अलग पृष्ठभूमि होती है और इसी कारणवश प्रत्येक शिष्य के लक्ष्य भी पृथक होते हैं। यह बात तो प्रत्येक मनुष्य जानता है कि ईश्वर में लीन हो जाना जीवन का परम लक्ष्य है किन्तु यह लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा, उस पथ पर चलने के लिए ऊर्जा कहां से प्राप्त होगी- इसे केवल सद्गुरुदेव ही व्यक्त कर सकते हैं।
शिष्य के मानस में प्रतिक्षण सद्गुरुदेव अभिव्यक्त हो सकें, इसे ही दीक्षात्मक उपाय के रूप में लक्ष्य भेदन सिद्धि दीक्षा की संज्ञा दी गयी है। लक्ष्य भेदन सिद्धि दीक्षा अपने सूक्ष्म रूप में शिष्य को उसके पूर्व जन्मों से परिचित कराते हुए उसके समक्ष उसका भविष्य स्पष्ट कर देने की पूज्यपाद गुरुदेव की ओर से प्रारम्भ की गयी एक चेतना होती है। शिष्य के जीवन का जो बाह्य स्वरूप है वह तो बना ही रहता है किन्तु जब शिष्य को प्रामाणिकता से इस बात का ज्ञान हो जाता है कि वह कौन है और किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसका जन्म हुआ है, तब उसके मन में कोई उहापोह, संशय, बेचैनी या छटपटाहट नहीं रह जाती क्योंकि तब उसके समक्ष जीवन में कोई रहस्य नहीं रह जाता। जहां कोई रहस्य नहीं रह जाता वहां किसी भी भय के उत्पन्न होने का कोई प्रश्न शेष नहीं रह जाता।
वास्तव मे प्रत्येक व्यक्ति अपनी ऊर्जा अनुसार अपने लक्ष्यों को (चाहे वे भौतिक हो या आध्यात्मिक) पूर्ण रूपेण प्राप्त करने की दिशा मे सचेष्ट रहता है किन्तु काल या भविष्य के एक अज्ञात भय से घिरा रहने के कारण उसकी ऊर्जा का एक बहुत बड़ा भाग केवल संकल्प-विकल्प में ही निकल जाता है। मैं इस कार्य को ऐसे कर लूं, मैं यदि ऐसे न करके ऐसे कर लूं, यदि मैं उसकी मदद ले लूं, जैसे सैकड़ों सकंल्प-विकल्प के विचारों से प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में घिरा होता है क्योंकि समाज में रहकर कोई भी व्यक्ति अपने-आप में सिमट कर नहीं रह सकता और यहीं से द्वंद्वों का प्रारम्भ होता है।
लक्ष्य भेदन सिद्धि दीक्षा ऐसी ही स्थिति में शिष्य को भयमुक्त करके, उसमें स्वयं में निहित शक्तियों से परिचित कराकर उसमें एक आत्मविश्वास भर देती है तथा जीवन में आत्म विश्वास का उदय होना ही गति का आधार बनता है। लक्ष्य भेदन सिद्धि दीक्षा का मर्म यह नहीं है कि शिष्य अपनी मनोकामना को लेकर गुरुदेव के समक्ष जाये और कहे कि वह इस दीक्षा के माध्यम से अपने जीवन के इस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है। लक्ष्य का निर्धारण तो गुरुदेव करते हैं न कि शिष्य।
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