





यह तो सर्वज्ञात तथ्य है कि लक्ष्मी को धन की देवी माना गया है, लक्ष्मी की ख्याति धन की अधिष्ठात्री देवी होने के उपरान्त भी इसे ज्ञान की देवी सरस्वती के बाद प्रमुख स्थान दिया गया है। क्योंकि संसार मे सबसे बड़ा धन ही ज्ञान धन है, ज्ञान के बिना कोई भी वस्तु स्थाई नहीं रह सकती है। लक्ष्मी को विष्णु की शक्ति कहा गया है जो कि सृष्टि के पालनकर्ता है लक्ष्मी ही वह शक्ति है जो संसार में वृद्धि करती है। यह भाग्य की अधिष्ठात्री देवी हे जो संसार के पालन के लिये आवश्यक हे। वेदों में श्री का ओर लक्ष्मी का वर्णन आया है ओर इन्हें धन भाग्य शक्ति तथा सौन्दर्य की देवी माना गया हे। दोनों के वर्णन में समानता है इस कारण कई विद्वान श्री और लक्ष्मी को एक ही मानते है। वस्तुतः इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का यह मत है कि ‘ श्री ‘ उत्पति, जल और कृषि ही उत्पादनी शक्ति है। अर्थात् श्री के होने से ही जीवन में आगे निरन्तर सृष्टि चलती रहती है, संतान होती रहती है तथा प्रकृति रूप में जल और कृषि को प्रकट करती है, वनस्पति, औषधी को प्रकट करती है। जल और कृषि का गहरा सम्बन्ध हे क्योंकि कृषि से ही हमें सारे भोज्य पदार्थ, वन, ओषधी, पशु-पक्षियों के रहने का स्थान, हरियाली इत्यादि प्राप्त होते है ओर इसके लिये जल भी आवश्यक हे। अत: वेदोक्त विद्वानों का यह कथन सही प्रतीत होता है कि श्री इन तीन स्थितियों की अधिष्ठात्री है जिसमें बाद में लक्ष्मी रूप में सोन्दर्य जुडु गया और यह चारों स्थितियों की अधिष्ठात्री देवी बन गई।
पुराणों के अनुसार लक्ष्मी भूगु ऋषि और उनकी पत्नी ख्याति की पुत्री हे। बाद में वह समुद्र मंथन के पश्चात् समुद्र से उत्पन्न हुई। इस कारण उसे क्षीर सागर राजकन्या कहा जाता है भगवान् विष्णु ने अवतार लिया, लक्ष्मी उनकी कमला के रूप में सहचरी बनी, परशुराम रूप में धारणी रूप में सहचरी बनी राम अवतार में सीता रूप में सहचरी बनी तथा कृष्ण अवतार में रूक्मेणी रूप में सहचरी बनी। वह विष्णु से बिल्कुल भी अलग नहीं है जिस प्रकार शब्द, अर्थ और ज्ञान के बिना अधेरें है, पुण्य कार्य सत्य के बिना अधूरे है उसी प्रकार विष्णु भी श्री लक्ष्मी के बिना अधूरे हे और लक्ष्मी विष्णु के बिना अधूरी हें विष्णु पूर्ण पुरूषभाव को प्रकट करते है और लक्ष्मी पूर्ण स्त्री भाव को प्रकट करती है। लक्ष्मी के सौन्दर्य की तो व्याख्या ही नहीं की जा सकती, लक्ष्मी अपने स्थिर रूप में अपने दोनों हाथों में कमल पुष्प लिये हुए है। साथ ही कमल बीज की माला धारण किये हुए है अधिकतर लक्ष्मी के दोनों और हाथी बताये जाते है जो अपने सुंड में कृंभ को लिये होते है इन्हें अमृत कुंभ कहा जाता है।
लक्ष्मी को गहरे लाल रंग में, गुलाबी रंग में सुनहरे रंग में, पीत वर्ण में और श्वेत वर्ण के रूपों प्रकटीकरण मिलता है। इन सब के भी अलग-अलग गहन अर्थ है। यदि वह गहरे रंग में हे तो इसका यह तात्पर्य है कि वह विष्णु के संग, विष्णु के समान ही हैं। जब लक्ष्मी को स्वर्णप्रभा समान सुनहरे पीले रंग में स्पष्ट किया जाता है तो वह धन की अधिष्ठात्री, धन प्रदान देवी के रूप में स्पष्ट होती है। श्वेत वर्ण में लक्ष्मी का शुद्धतम स्वरूप है, उस रूप में वह प्रकृति के शुद्धतम स्वरूप को प्रकट करती हे जिससे सारी सृष्टि की उत्पति हुई है।
जब लक्ष्मी विष्णु के संग होती हे तो वह केवल द्विभुजा स्वरूप में स्थापित होती है। जब हम मन्दिर में लक्ष्मी मूर्ति देखते हे तो वह कमल के सिंहासन पर स्थित अपने चार हाथों मे पद्म, शंख, अमृत कलश और बिल्व फल लिये हुए प्रकट होती है। मनुष्य को चार विधाएं, चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाले रूप में प्रकट होते है। लक्ष्मी के हाथ में स्थित कमल पुष्प जो कि धीर-धीरे खिलता हुआ प्रतीत होता है वह संसार के प्रकटीकरण के साथ-साथ उसकी वृद्धि को स्पष्ट करता हे। दुर्गा रूप में महालक्ष्मी आठ भुजाओं सहित अवतरित होती है। चार हाथों में बाण तीर, चक्र, भाला धारण किये हुए होती है। लक्ष्मी के हाथ में फल यह स्पष्ट करता है कि पूरे संसार को फल प्रदान करने वाली वही देवी है और कर्म के बिना फल नहीं मिलता। बिल्व फल धारण करने का तात्पर्य यह है कि यह बिल्व फल स्वादिष्ट और सुन्दर नहीं दिखाई देता लेकिन स्वास्थ्य के लिये अति उतम है। यह जीवन के मोक्ष भाव को प्रकट करता है। अर्थात् हम जीवन में स्वाद और स्वरूप की ओर ध्यान देने की बजाय गुणों की ओर ध्यान दें तो जीवन की गति श्रेष्ठ हो जाती है और यह श्रेष्ठ गति पूर्णता की ओर ले जाती है।
कई विद्वानों ने लक्ष्मी के वाहन के रूप में उल्लू को बताया है। यह आश्चर्य है कि लक्ष्मी जेसी धन प्रदात्री देवी उल्लू पर विराजमान है जिसको दिन में दिखाई नहीं देता और रात मे अंधरे में सब कुछ देख सकता हे। वास्तव में संस्कृत भाषा में उल्लूख शब्द उल्लू को प्रकट करता है इसी प्रकार उलूक का दूसरा अर्थ इन्द्र भी हे अर्थात् इन्द्र का एक नाम उलूक है जो देवताओं के अधिराज है। धन, शक्ति, गौरव के देव है अतः लक्ष्मी उलूक रूप में इन्द्र पर विराजमान होती है। इसी प्रकार इन्द्र को पूजने वाले व्यक्तियों को यह सावधानी देती है कि सांसारिक धन, वैभव, गौरव अस्थाई है क्योंकि धन, गौरव और वैभव व्यक्ति को घमण्ड से भर देते है और जब व्यक्ति में घमण्ड भर जाता है तो वह अंधा हो जाता हे और उसे सूर्य के प्रकाश में भी कुछ नहीं दिखाई देता। लेकिन यदि उस पर श्री और लक्ष्मी विराजमान है तो अहंकार, गौरव और वेभव से भरा व्यक्ति अपने मार्ग से विचलित नहीं होता।
जीवन में लक्ष्मी की स्थिरता प्राप्ति के लिये वह गतिशील रहता है ना कि अंधे उल्लु के रूप में धन, वेभव ओर अहंकार उसे चलाते है इसीलिये गीता मे लिखा है कि स्थितप्रज्ञ बनें लेकिन उल्लु की तरह स्थितप्रज्ञ नहीं बनें जों सूर्य की रोशनी में अपनी आंखें बंद कर देता है। इसलिये मनुष्य को ज्ञान रूपी सूर्य की सूर्य के सामने जिससे वृद्धि की किरणें निकलती हैं। कभी भी आंखें बंद नहीं करनी चाहिए। लक्ष्मी पूजा जहां उत्तर भारत में दीपोत्सव के रूप में सम्पन्न की जाती है, वही दक्षिण भारत में लक्ष्मी पूजा वरलक्ष्मी के रूप में श्रावण पूर्णिमा को सम्पन्न की जाती हे।
लक्ष्मी को विष्णु-नारायण-हरि कौ शक्ति माना गया है। नारायण हरि विष्णु तो शुद्ध तत्व स्वरूप ओर लक्ष्मी उनका बाह्य स्वरूप है जो माया तथा प्रकृति के विभिन्न गुणों को दर्शाती है। सांसारिक चमत्कारों को स्पष्ट करती है। संसार में मनुष्य को रहने के लिये बांध देती है। यदि व्यक्ति नारायण विष्णु ओर हरि हो जाता है तो उसे सार मिथ्या लगने लग जाता है उसे यह ज्ञान हो जाता है कि जो कुछ संसार में दिखाई दे रहा है वह सत्य नहीं हैं परमतत्व नहीं है, परमानन्द नहीं है। लेकिन जब लक्ष्मी नारायण के बाह्य रूप को धारण कर लेती है
तो व्यक्ति को संसार में आनन्द, सुख, भोग, विलास, सौन्दर्य, रस, आभूषण, वस्त्र, कीर्ति, यश, गौरव, सन्ता्न प्राप्ति, कामना, इच्छा इत्यादि दिखाई देती है ओऔर इनके सहारे और इनको प्राप्त करने के लिये वह अपना जीवन पूर्ण शक्ति से गतिमान रखता है। इसीलिये संसार में लक्ष्मी की सर्वाधिक आवश्यकता है क्योंकि तत्वों से ही संसार का गतिचक्र चलता रहता है, ओर जब तक यह गतिचक्र चलता है तब तक मनुष्य इस संसार में दुःख से सुख की यात्रा, आलस्य से कर्तव्य की यात्रा, निराशा से आशा की यात्रा, पीडा से स्वास्थ्य की यात्रा, विशाद से आनन्द की यात्रा, करता है और वह भी विष्णु की भांति अपने चारों ओर एक स्वयं की सृष्टि बनाता है जिसमें यह सारे तत्व परिवारजन-पुत्र, बन्धु-बांधव, घर-गांव और संसार होता हे।
लक्ष्मी अपनी शक्ति से संसार को बांधे रखती है वह विद्या लक्ष्मी भी है जो ज्ञान के जिज्ञासुओं को ज्ञान प्रदान करती है। लक्ष्मी के बिना संन्यासी भी अपना कार्य नहीं कर सकते है। वास्तव में गृहस्थ से अधिक संन्यासियों को लक्ष्मी की आवश्यकता होती है। क्यों कि उन्हें स्वंय के हित की अपेक्षा परमार्थ के हित के कार्य, अधिक करने पड़ते है। स्थान-स्थान पर भ्रमण करना पड़ता है, सांसारिक व्यक्तियों के भीतर छाये हुए अंधकार को दूर करना पड़ता है।
आज संसार में जितने भव्य देवालय, सार्वजनिक स्थान, उद्यान, आश्रम जो अपंग व्यक्तियों से लेकर पशु- पक्षियों की सेवा में रहते है उन्हें ऋषियों- संन्यासियों ने ही बनाया। उनके माध्यम से किसी लक्ष्मीवान ने क्रिया सम्पन्न किया लेकिन प्रेरणा के स्रोत संन्यासी और ऋषि, गुरू इत्यादि रहे है। संसार में बेठे-बेठे किसी के मन में दान, धर्म की इच्छा उत्पन्न नहीं होती है जब तक उसे योग्य गुरू, ऋषि, संन्यासी द्वारा प्ररेणा प्राप्त नहीं होती। इसलिये गृहस्थ हो अथवा संन्यासी हो लक्ष्मी की आवश्यकता तो सभी को रहती है। कोई अपने ज्ञान से संसार को जाग्रत करता है। तो कोई अपने धन से संसार को जाग्रत करता हे। दोनों लक्ष्मी के ही स्वरूप हे।
लक्ष्मी के वेसे तो 108,1008 नाम है ओर इससे भी अधिक उसके स्वरूप है। लेकिन मूल रूप से लक्ष्मी के आठ स्वरूप है जो जीवन में अत्यधिक आवश्यक है जीवन में होने ही चाहिये, ये लक्ष्मी के आठ स्वरूप है।
धन लक्ष्मी, भू-लक्ष्मी, सरस्वती लक्ष्मी, प्रीति लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, शान्ति लक्ष्मी, तुष्टि लक्ष्मी, पुष्टि लक्ष्मी। इन सब की प्राप्ति की इच्छा से ही जीवन जीना चाहिये। यदि जीवन में इन लक्ष्मियों के किसी भी स्वरूप का अभाव है तो जीवन अधूरा है। धन है लेकिन बल या शक्ति नहीं है। कीर्ति है संसार में प्रंशसा हे संसार में लेकिन मन में शांति नहीं है तो भी लक्ष्मी का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जब आठों वरदायक स्वरूप जीवन में विद्यमान रहते है तो व्यक्ति सांसारिक और आध्यात्मिक लक्ष्मी से पूर्ण होकर जीवन की यात्रा करता है और उसे जीवन में कीर्ति, तुष्टि, पुष्टि और शंति मिलती है तभी उसके जीवन में लक्ष्मी स्थाई रूप से रह सकती हे।
अतः मेरा तो साधकों से एक ही अनुरोध है कि केवल उल्लू की भांति धन की अंधी दौड़ में सम्मिलित ना होकर जीवन में धैर्य, बल, शांति, पुष्टि और तुष्टि भी लाएं तभी अपने स्वयं की सेवा, समाज की सेवा और गुरू की सेवा शुद्ध रूप से सम्पन्न कर सकेंगे। इसकें लिये जीवन में जो कर्म प्रदान साधनाएं है, उन्हें करना तो आवश्यक ही हे क्योंकि कर्म के बिना जीवन की कोई गति नहीं है।
जीवन के चार पुरूषार्थ माने गये हें, ये चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। इसमें प्रथम पुरूषार्थ धर्म का तात्पर्य है ‘ धर्म सः इति धारयते’ अर्थात् जीवन में जो बातें धारण करने योग्य है उसे धर्म कहा गया है उपनिषदों के इस अर्थ से यह स्पष्ट हे कि हिन्दु, मुसलमान, ईसाई, यहूदी धर्म नहीं है अपितु सम्प्रदाय है और विभिन्न गुरूओं ने अपने-अपने मतानुसार धर्म की व्याख्या कर अपने मत-सम्प्रदाय को आगे बढाया। वास्तविक तथ्य तो यह है कि यदि हम भागवत, गीता, कुरान, बाईबिल इत्यादि सारे ग्रंथ एक साथ खोलकर पढें तो उनमें अधिकतर बातें समान ही प्रतीत होगी। सब महाग्रंथों में यही लिखा है कि हमें प्रकृति के देव जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु और आकाश में नियमों का पालन करना चाहिए। इन तत्वों का शरीर में बराबर समायोजन होना चाहिए। पशु और वनस्पति की रक्षा करनी चाहिए। आहार-विहार विचार शुद्ध होने चाहिए। मन में करूणा, दया की भावना होनी चाहिए। अन्य मनुष्यों के प्रति श्रेष्ठ व्यवहार रखना चाहिए।
सब सूक्तियों से संसार में जीवों अर्थात् मनुष्यों एवं स्त्रियों के संस्कारों की रचना होती है। यही संस्कार जीवन का निर्माण करते है। इसी कारण मनुष्य जीवन निरंतर प्रगति कर रहा है। सब धर्मों में श्रेष्ठ संस्कारों पर विशेष बल दिया गया हे। संस्कार और विचार का निर्माण मनुष्य के जीवन के प्रारम्भ से ही होता है। धर्म को जीवन का आधार माना गया हे। धर्म के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हिन्दू सम्प्रदाय में साक्षात् देवी-देवताओं को माना गया है। वहीं मुस्लिम एवं ईसाई मतानुसार एक ईश्वरीय शक्ति है जिसके प्रतीक स्वरूप, दूत स्वरूप, देव स्वरूप पैगम्बर मोहम्मद साहब तथा ईसाईयों के पैगम्बर ईसामसीह हे।
धर्म जीवन का आधार है लेकिन धर्म से जीवन जीने के लिये प्रधान आवश्यकता अर्थ की रहती हे और इसीलिये इसे दूसरा पूरूषार्थ कहा गया हैं जीवन प्राप्त हुआ है तो धर्म के साथ जीवन जीते हुए अर्थ की प्राप्ति की जाये, उससे जीवन चलाया जाये तभी जीवन के तीसरा ओर चौथा पुरूषार्थ काम और मोक्ष सफल हो सकते है।
सामान्य रूप से अर्थ का तात्पर्य धन, अर्थात् रूपया, पैसा मान लिया गया है। जबकि यह अपने आप में एक अत्यन्त सीमित अर्थ है। यह तो अर्थ का एक छोटा सा रूप हे और इसीलिये हमने हिन्दू मान्यता में अर्थ का तात्पर्य लक्ष्मी को माना है। सामान्य रूप से लक्ष्मी का जो स्वरूप देखते हे वास्तविक रूप में लक्ष्मी का स्वरूप उससे बिल्कुल अलग है। लक्ष्मी के आठ स्वरूपों को जीवन का आधार, अर्थ का आधार माना गया हे। लक्ष्मी के इन आठ स्वरूपों को अष्ट लक्ष्मी कहा गया है और जिसके जीवन में अर्थ अपने पूर्ण स्वरूप में अष्ट लक्ष्मी स्वरूप में विद्यमान है वही जीवन पूर्ण कहा गया है। लक्ष्मी के ये आठ स्वरूप हे धन लक्ष्मी, भू-लक्ष्मी, सरस्वती लक्ष्मी, प्रीति लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, शान्ति लक्ष्मी, तुष्टि लक्ष्मी, पुष्टि लक्ष्मी।
इस प्रकार लक्ष्मी के ये आठ स्वरूप इस माया रूपी संसार को अर्थात मनुष्य के जीवन को आनन्द पूर्वक चलाने के लिये अत्यन्त आवश्यक हे। लक्ष्मी के सहयोग से ही मनुष्य के जीवन में धन सम्पदा, सांसारिक वस्तुएं, सरसता आनन्द प्राप्त हो सकती है।
लक्ष्मी की कृपा से ही मनुष्य सांसारिक जीवन में अपने तीसरे पुरूषार्थ ‘काम’ का पूर्ण रूप से उपयोग कर वह मोक्ष मार्ग पर गतिशील हो सकता है लक्ष्मी का यह स्वरूप जो कि विद्या माया स्वरूप है। वह मनुष्य को निरंतर कर्म पथ पर अग्रसर करते है।
लक्ष्मी के स्वरूप को भी अगर हम देखे तो यह स्वरूप समृद्धि प्रदान करने वाला और जीवन को सुरक्षित रखने वाला, आनन्द देने वाला, धन आभूषणों से परिपूर्ण करने वाला है। जिसके दोनों ओर गज विद्यमान है, जो कि राज्य शक्ति को प्रकट करते है। वहीं लक्ष्मी कमल पर विराजमान है तथा अपने हाथ में पूर्ण विकसित कमल लियें हुए है। ये कमल जीवन की पूर्णता को प्रकट करते है। साथ ही पूर्ण स्वरूप एक ज्ञान आभा के रूप में प्रकट होता है।
अंत में यहीं कहना चाहूगां कि लक्ष्मी जो कि विष्णु की शक्ति है केवल धन और माया के स्वरूप में ही प्रकट नहीं होती है। धन और माया तो जीवन में श्रेष्ठ कार्यों को करने के एक माध्यम हे। संसार में कितने ही धनाधीश हुए और लोग उन्हें भूल गये। लेकिन जिन्होंने लक्ष्मी का सदुपयोग कर मन्दिर, देवालय, धर्मशालायें, अस्पताल, इत्यादि का निर्माण कराया उन्हें संसार ने सदा याद रखा। इस लक्ष्मी की प्रार्थना में ऋषि पराशरभूटारक ने प्रार्थना लिखी है कि-
पितेष त्वत्प्रेयाज्जननि परिपूर्णमसिस जने
हितस्त्रोतोवृत्या भवति चर कदाचित्कलुषधी:।
किमेतन्निदोष: क इह जगतीति त्वमुचिते
रूपायैर्विस्मार्य स्वनयसि माता वदसि नः॥
हे मातृ स्वरूपिणि महालक्ष्मी! जगत के पिता भगवान विष्णु है और अपने बालकों पर क्रोधित हो जाते हे क्योंकि जगत में मनुष्य अपराध करता ही है। तब आप ही भगवान विष्णु को यह कहती है कि इस जगत में कौन निर्दोष है, इस रूप में भगवान विष्णु को उपदेश दे कर उनका क्रोध शांत कर दया को जाग्रत कर मानव को आप अपनाती हे इसीलिये आप हम सब की माता हे।
ऋद्धि का तात्पर्य हैं पूर्णता जो नौ कलाओं की सर्वोच्च स्थिति है और इस नौ कलाओं में से प्रत्येक कला दूसरी कला से जुड़ी है। सांसारिक कर्तव्य करते हुए दान रूपी कर्तव्य जहां होता है वहीं लक्ष्मी की पहली की पहली कला विभूति उपस्थित होती है। विभूति से ही व्यक्ति में नम्नता का आगमन होता है जो लक्ष्मी की दूसरी पीठ शक्ति है। इन दोनों के संयोग से साधक में स्वत: ही कांति का प्रादुर्भाव होता है और तब उसके चेहरे पर दिव्य सौन्दर्य, जो अलोकिक सा लगे, झिलमिला उठता है। तीन कलाओं की प्राप्ति के बाद पुष्टि नामक चतुर्थ कला का आगमन होता हे, वाणी-सिद्धि, कार्य-सिद्धि, पुत्र-पौत्र आदि सुख, जीवन में गति आदि इसी कला से प्राप्त होती है। जिसके फलस्वरूप पांचवी कला कीर्ति का प्रादूर्भाव होता है। व्यक्ति को समाज में और अपने कार्यो में सम्मान मिलता है। उसके जीवन में धन्यता आती है।
कीर्ति साधना से उन्नति मुग्ध होकर विराजमान होती है, और इसके बाद आगमन होता है पुष्टि नामक सातवीं कला का, जिससे साधक जीवन में एक सन्तुष्टि अनुभव करता है तथा वह उत्कृष्टि नामक आठवीं कला को धारण करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है। उत्कृष्टि का जब जीवन में आगमन हो जाता है तब व्यक्ति के जीवन में क्षय दोष समाप्त हो जाता है, फलस्वरूप फिर जीवन में वृद्धि होती है ओर लक्ष्मी स्थायित्व ग्रहण करते हुये ऋद्धि रूप से पूर्णता के साथ विद्यमान हो जाती है।
इन नौ कलाओं से हीन व्यक्ति के पास लक्ष्मी पहले तो आ ही नही सकती और यदि आ भी जाए तो स्थायी नहीं रह सकती। साधक को साधना करते समय इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए। वस्तुतः लक्ष्मी की साधना आध्यात्मिक साधना ही हे।
लक्ष्मी की साधना एकांगी साधना ही नहीं वरन भगवान श्री नारायण क साथ की संयुक्त साधना है। जिसका मूल दया में छुपा है। शास्त्रों में प्रमाण हे कि दया के महागर्भ से ही भगवान श्रीमन् नारायण एवं भगवती महालक्ष्मी अपने जावल्यमान स्वरूप में प्रकट होती है।
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