जहां ध्यान है, वहां और कोई चीज नहीं रह सकतीं। ध्यान के लिए न निराकार की आवश्यकता है, न साकार की आवश्यकता है….जहां आकार है हीं नहीं वहीं ध्यान है। आकार तो हमने बनाया है, हमने राम को देखा नहीं है, पोथी में जो लिखा है उसके अनुसार चित्र बनाया और उसी को राम की संज्ञा दी गई। आकार के माध्यम से ध्यान कीं स्थिति नहीं हों सकतीं।
जो निराकार को मानते हैं वे कहते हैं कि एक ज्योति है, एक दीपक की लो है, वह आंख बंद करता है तो चारों ओर लालीं सीं दिखाई देती है वह उसी को ध्यान समझ बैठता है, पर ये ध्यान नहीं है।
ध्यान तो बुद्धि से परे हटने की क्रिया है। बुद्धि हीं सगुण और निर्गुण में भेद करती है। जहां बुद्धि है, वहीं निराकार या साकार का प्रश्न हैं, वहीं छल-झूठ, ढोंग-पाखण्ड भी है। ध्यान तो अन्दर उतरने की क्रिया है।
जब व्यक्ति ध्यानावस्था में पहुंच जाता है, तो फिर जीवन में किसी अन्य प्रकार का सुख उसे रास नहीं आता, फिर समस्त सिद्धियां उसके सामने नृत्य करती रहती है।
ध्यान के लिए यह आवश्यक नहीं कि आप हिन्दू हों, मुस्लिम हों, सिख हों, या ईसाई हों। बस आप मनुष्य हैं, इसलिए अपने अन्दुर उतरकर सुदुर गहराइयों में पहुंच सकते हैं, यदि बुद्धि से परे हट सकते हैं तो।
हजारों-लाखों व्यक्तियों में से कोई एक बिरला व्यक्ति ऐसा निकल पाता है, जो सदुगुरू कीं उंगलीं पकड कर आगे बढने की क्रिया प्रारम्भ करता है। हजारों-लाखों व्यक्तियों में सें किसी एक में हीं ऐसी चेतना प्राप्त होतीं है, जो उनकी वाणी को समझ सकता है। हजारों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक में ही ऐसे भाव जाग्रत होते हैं, जब वह सदुगुरू के पास रह सकता है… उनके साथ चलने की क्रिया प्रारम्भ करता है, वह पहिचान लेता है, उसकीं आंखें पहिचान लेती है – ‘यह व्यक्तित्व साधारण नहीं है।
जब शिष्य अपने आप को हटाकर पूर्ण रूप से सदुगुरू के प्राणों में लीन करने की क्रिया प्रारम्भ कर लेता है, तो सदुगुरू एक ही छलांग में उसको उस अवस्था तक पहुंचा देते हैं, जो ध्यान की अवस्था है, जो चैतनयता की अवस्था है।
यह तो एक छलांग है। यदि आप डरपोक हैं तो धीरे-धीरे कदम बढायेंगे, यदि आप साहसी हैं तो एकदम से छलांग लगा देंगे। यदि आप कायर हैं, तो धीरे-धीरे अपना हाथ गुरू के हाथ में सोपेंगें। यदि दृढ चित्त हैं, तो एकदम से सर्वस्व गुरूर को सौंप दोगे। आप अपने आप को कितना खोलते हैं, यह आप पर निर्भर है, जितना आप सौपेंगें उतना हीं गहराई में उतर सकेंगें।
ध्यान कीं इस गहराई में उतरने का अपना हीं एक आनन्द है, अपना हीं एक अलौकिक सौन्दर्य है। ज्यो-ज्यों व्यक्ति ध्यान में अभ्यस्त होता जाता है, उसके चेहरे की तेजस्विता बढती जाती हैं।
जिस क्षण गुरू यह निश्चय कर लेता है, कि अब मुझे इसको उठाकर परम अवस्था तक पहुंचा देना है, तों फिर भले हीं शिष्य में कितने हीं विकार हों, गुरू उसको सीधे उस ध्यान के महासमुद्र में उतार देंता है।
समर्पण के पहले गुरू सैकड़ों बार उसकी परीक्षा लेता है, जेसे सोने के मुकुट बनाने से पहले सोने को सैकडों बार तपाया जाता है, उसे आग में झोंका जाता है, कूटा जाता है, बार-बार उसको तोड़ा जाता है, खींच कर तार बनाया जाता है, मगर फिर भी सोना उफ नहीं करता है, क्योंकि उसने समर्पण कर दिया है स्वर्णाकार के हाथों। फिर स्वर्णाकार उसे मुकट बना देंता है, जो मनुष्य नहीं देवताओं के सिर पर शोभायमान होता है। सतुगुरू भी शिष्य को इसी तरह तपा कर कून्दन बना देंते हैं।
शिष्य बनने की कसौटी है आज्ञा पालन। आज्ञा पालन की पगडण्डी पर चलकर हीं शिष्य बना जा सकता हैं। समर्पण करके हीं शिष्य बना जा सकता है। अपने सिर को उतार कर हथेली पर रखकर घूमने की जो कला जानते हैं, वे हीं शिष्य बन सकते हैं।
जो शिष्य नहीं बन सकता, वह जीवन में कुछ भी नहीं कर सकता, वह जीवन में असफल होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता हैं। जो शिष्यता नहीं सीखा सकता, उसके चेहरे पर ओज नहीं आ सकता, उसकी चाल में दृढ़ता नहीं आ सकतीं, उसका सिर हिमालय से ऊँचा नहीं बन सकता, वह अपने आप में अद्वितीय नहीं बन सकता।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,