नवरात्रि व होली के पर्व बीत जाने के बाद तुम्हारे गुरूदेव के जन्मोत्सव पर्व के क्षण सम्मुख हैं और मुझे विश्वास है, कि तुम सभी ने इस पर्व के आगमन की आहट को सुन भी लिया होगा। जिस तरह से शरद ऋतु के घने कोहरे को बेधती हुई पौष माह के शुक्ल पक्ष के सूर्य की कोमल स्वर्णिम किरणें हर एक द्वार पर जाकर दस्तक देकर बताने लग जाती हैं, कि अब जड़ता को व्यर्थ में ओढ़ कर बैठे रहने का कोई अर्थ नहीं, अब उदासियों के घने कोहरे में स्वयं को घिरा मानते रहने की विवशता नहीं, अब मृत भावनाओं से उपज आए शीत में स्वयं को हिमवत् पाषाण किए रहने का कोई प्रयोजन भी नहीं क्या वही क्रिया तुम्हारे साथ नहीं सम्पन्न होने लग जाती जब 21 अप्रैल के माध्यम से तुम्हारे गुरूदेव का जन्मोत्सव पर्व निकट आ जाता है?
क्या इस पर्व के आने से कई दिनों पूर्व से ही प्रकृति स्वयं हर एक हृदय द्वार पर दस्तक दे-दे कर कुछ कहने को आतुर नही हो जाती है? कोई प्रकाश सा तुम्हारे हृदय में, कोई सुखद ऊष्मा सी तुम्हारे प्राणों में नर्तन नही करनें लग जाती है? कुछ-कुछ घटित हो गया नही लगने लग जाता है तुमको इस सम्पूर्ण प्रकृति में? कुछ बड़ा अद्भुत सा, कुछ बड़ा मनोहर सा और कुछ बड़ा विलक्षण सा! घटित हो रहा है।
क्योंकि कुछ अलग हट कर ही तो होती है यह प्रकाश के आने क्रिया भले ही कोई अपने द्वारों को कितना जकड़ कर क्यों न बैठा हो, भले ही उसने सोच रखा हो, कि बस अब शीत का और सामना नहीं करना, अब तो द्वारों को मजबूती से बंद कर लेना ही अच्छा रहेगा लेकिन जो प्रकाश होता है वह प्रविष्ट होने का उपाय ढूंढ निकाल ही लेता है। वह कहीं न कहीं से एक सुराख जितनी जगह पाकर प्रविष्ट हो ही जाता है – अंधेरे बंद कमरों में भी और जीवन में स्पन्दन हीनता से मृतप्रायः हो गए व्यक्तियों के हृदय मे भी, क्योंकि यही प्रकाश का धर्म जो होता है।
प्रकाश तो एक स्वंयमेव आने की क्रिया होती है, उसके किए तुमको कोई प्रयास करने की आवश्यकता ही नही। यदि प्रयास करना ही है तो बस इतना ही करना कि जब प्रकाश तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे तो उस समय किसी सोच-विचार या संकोच में न आना, उसका स्वागत कर लेना। इसके विपरीत इसी स्वप्निल तंद्रा में कुछ समय और व्यतीत कर लिया जाए। क्योंकि बड़ी मोहक होती है स्वप्निल तंद्रा! इससे कुछ भी नहीं होता और वह लहरों में डूब कर निकलना चाहता ही नहीं है तो जीवन अंधकार में ही रहेगा।
यह जानने के बाद भी, कि अभी कुछ ही देर में सब कुछ एक झटके से खत्म हो जाएगा यथार्थ का ठोस धरातल सामने आ जाएगा, तुम हाथ पांव मारते रहते हो, कि शायद कुछ हाथ आ जाए और इसी ऊहापोह में उठ कर खड़े ही नहीं हो पाते हो, कि किसी प्रकाश के लिए द्वार खोल सको, स्वागत करना तो बहुत दूर की बात है।
लेकिन जो एक बार प्रयास करके द्वार को खोल दिया, तो सारा अन्तस एकाएक प्रकाश से आलोकित हो जाएगा, आलोडि़त हो चलेगा। यूं आप ऐसा नहीं भी करोगे तब भी प्रकाश किसी गवाक्ष का आधार ले कर प्रविष्ट तो होना ही चाहेगा। वह तुम्हें अपनी उपस्थिति से परिचित तो करा ही जाएगा। शेष जैसा तुम उसके स्वागत, उसकी अभ्यर्थना में प्रस्तुत हो सकों वह तो तुम्हारी पात्रता की बात होगी।
और ध्यान रखना प्रकाश का आगमन कभी भी निःसंग रूप में होता ही नहीं है। अतः प्रकाश का स्वागत करोगे, तो उसका सहज प्रतिफल ऊष्मा प्राप्त होगी ही। केवल तन को ही नहीं मन को भी और जो तुम्हारे जीवन के लिए अत्यावश्यक हो चला है वह यही है कि तुम ऊष्मा के अर्थ को समझ सको, ऊष्मा का तुम्हारे जीवन में समावेश हो सके, प्राणों की निर्जीवता में स्पंदन आ सके, नृत्य आ सके, हास्य आ सके और सर्वोपरि तो यह कि इन सभी की उपस्थिति को सार्थक बनाने का बोध आ सके।
कभी देखा है तुमने, कि यह सम्पूर्ण प्रकृति ही कैसे एक लय में बंधी हुई है? कभी अनुभव किया है तुमने, कि एक नृत्य का सृजन कैसे होता है? केवल मानव देह में ही नहीं इस जगत के कण-कण में? अनुभव किया है तुमने कभी, कि कैसे उस नृत्य में लीन होते हुए तुम अपने अस्तित्व को विस्मृत करने लग जाते हो? खो जाते हो पता नहीं किस शून्य में रोम-रोम से उल्लास सृजित करते हुए और जुड़ जाते हो सहसा किसी विराट बोध के साथ, आनन्द मग्न होते हुए, जीवन के संगीत को सुनते हुए, बिखर कर जुड़ते हुए और जुड़-जुड़ कर फिर बिखरते हुए?
यही है वह समाधि की अनूठी अवस्था, जो तुम न जाने कब से खोज रहे हो, शास्त्रें में पढ़-पढ़ कर जिसका स्वरूप समझने की व्यर्थ चेष्टा कर रहे हो। जिस अद्वितीय तत्व का निरूपण वे शास्त्र ‘नेति-नेति’ करते हैं उसका स्वरूप तुम समझ भी सकोगे तो कैसे? और तब तक समाधि की चर्चा तक करना व्यर्थ है। मुख्य बात तो यह है, कि तुम वह स्वरूप साक्षात् कर लो, उसका दर्शन प्राप्त कर लो, जिसे निहारने के बाद समाधि कोई पृथक भावभूमि रह ही नहीं जाती। गुरू से मिलना, ऐसा ही साक्षात् करने का क्षण होता है। वही समाधि की वास्तविक दशा होती है और ऐसी समाधि किसी भी परिभाषा से बद्ध नहीं होती। न यह निर्विकल्प होती है न सविकल्प। निर्विकल्प अथवा सविकल्प होना तो जड़ समाधि की स्थिति हो सकती है, किन्तु यह स्थिति तो प्रत्येक जड़ता से उन्मुक्त होने की घटना है।
जब सूर्य की पहली किरण नववधू सी बन अपनी स्वर्णिम उंगलियों से जाकर किसी वृक्ष की शाखा को छू देती है और वह सहसा चौंक कर, जाग कर अपने ऊपर पड़ी ओस की बूंदों की चादर को हटा कर अंगड़ाई लेता हुआ जाग जाता है, चैतन्य बन जाता है, उसके एक-एक रोम में उसके पत्तों में कोई सिहरन सी दौड़ जाती है और उड़ चलते हैं अलसाए से पक्षी अपनी सारी तंद्रा को छोड़, डैनों में नयी चेतना को भर कर इस नृत्य के संदेश को दूर-दूर तक फैला देने के लिए।
21 अप्रैल वस्तुतः आपके ही नूतन जन्म लेने का पर्व है, क्योंकि गुरू जन्म-मरण की उपाधियों से नितांत मुक्त ही होते हैं। गुरू का ‘जन्म’ तो प्रतिक्षण होता रहता है। प्रतिक्षण वे जन्म लेने को एक प्रकार से कहूं तो आतुर ही रहते हैं- अपने शिष्य के हृदय में, उसकी मनोभावनाओं में। जिस प्रकार से प्रकाश का धर्म होता है, कि वह जहां-जहां अंधकार है, वहां-वहां प्रविष्ट होने के उपरांत अंधकार का चिन्ह भी नहीं रहने देता है, ठीक वही क्रिया गुरू की भी होती है। एक प्रकाश पुंज की ही तरह मैं भी प्रतिपल आपको प्राण तत्व देने की क्रिया में संलग्न हूं, प्रतिपल तुम्हें अनहद का वह मूक श्रवण ग्रहण कराने की चेष्टा में निमग्न हूं, जो समाधि का वास्तविक परिचय होता है, नित्य ही तुम्हारे जीवन मे स्मित का प्रवेश कराने को आतुर हूं।
और ऐसी ही अनेक भावनाओं के सम्मिलित पुंज को वास्तव मे ‘गुरू’ कहा जा सकता है तथा जो तुम्हारे जीवन में सप्रयास और अत्यन्त आग्रह से ऐसा करने के लिए निरन्तर सचेष्ट बने रहें, उन्हें ही ‘गुरूदेव’ की संज्ञा से अभिनन्दित किया जा सकता है। गुरू को पहचानने का कोई अन्य उपाय नहीं होता केवल उनके उस आग्रह के जो प्रतिपल सूर्य की उस पहली किरण की तरह आकर दस्तक के साथ सूचित कर जाती है, प्रातःकाल आगमन को या हो सकता है तो उनके निःशर्त प्रेम के असीम प्रवाह से!
यह मेरा धर्म नहीं था, कि मैं तुमसे स्वयं अपने परिचय के विषय मे कहता। तुम्हारे शिष्यत्व का सौन्दर्य तो यह होता, कि तुम स्वयं अपने आत्म चक्षुओं से मुझे पहचानने की क्रिया में केवल संलग्न ही नहीं निमग्न से हो जाते और उमड़ते हुए आकर मुझमें विलीन हो जाते। मैं तो आज से ही नहीं कई-कई वर्षो, कई-कई जन्मों से बाहें फैलाए खड़ा हूं। इसके उपरान्त भी मैंने अपना परिचय देने की क्रिया की तो केवल इसी कारणवश, कि यदि मैंने तुम्हें अपने विषय मे नहीं बताया, तो यह कार्य और कौन करेगा?
किन्तु पूर्णता मुझ तक आकर मिल जाने में ही नहीं है वरन् इस बात में है, कि मैं अत्यन्त आह्लाद के साथ तुम्हारे अन्तःस्थल में जन्म ले सकूं और इस प्रकार से तुम्हें ही नया जन्म दे सकूं। तुम्हारे विगत की काली परछांई को अपने प्रकाश से दूर कर सकूं और यह सब एक उत्सव के साथ हो।
21 अप्रैल का पर्व कोई सद्गुरूदेव के जन्मोत्सव का दिवस नहीं है वरन् शिष्य के अस्मिता का जन्मोत्सव का पर्व है और सदैव ध्यान रखना, कि जीवन केवल वही कहा जा सकता है, वे पल ही जीवन के पल कहे जा सकते है, जो एक चैतन्य गुरू के सानिध्य मे व्यतीत हों अन्यथा जीवन को अनेक विद्रूपों में घेर कर, चाहे वह धन जमा करने का विद्रूप हो या पत्नी की मनुहारें करने का या जोड़-तोड़ कर पद प्रतिष्ठा ग्रहण करने का, वह ‘कला’ तो तुम्हें स्वयं ही आती है उसके लिए गुरू की आवश्यकता ही क्या?
जहां तक मेरे चिंतन का विषय है, मैने तो इस बात पर प्रत्येक क्षण विचार किया है और आगे भी करता रहूंगा, कि ऐसे महापर्व पर मेरे शिष्यों के जीवन में पूर्ण समृद्धि, ऐश्वर्य, आनन्द और तृप्ति आ सके। और तुम वैभव युक्त जीवन की प्राप्ति कर सको, जीवन के प्रत्येक क्षण को मुस्कुराते हुए व्यतीत कर सको।
अक्षय तृतीया के महानतम सुअवसर पर ऐसा प्रथम बार हमारे प्राणेश्वर और चेतना से आलोकित करने वाले सद्गुरू का जन्मोत्सव का ये श्रेष्ठतम पर्व भगवान सदाशिव महादेव की ज्योर्तिमय नगरी काशी में सम्पन्न हो रहा है। और वह नगरी जहां निर्मल गंगा अविरल रूप से करोड़ों- करोड़ों आस्था रखने वाले साधकों को असीम सुख और तृप्ति प्रदान करती है। ऐसी काशी विश्वनाथ की देव भूमि में प्रदीप्त साधनात्मक ज्ञान की मशाल के आलोक को पूरी पृथ्वी पर विस्तारित कर प्रत्येक व्यक्ति के व्यथित हृदय को शक्ति प्रदान कर सुख व शान्ति दे सकें, जिससे जीवन की जीर्ण-शीर्ण मलिनता समाप्त हो सके और साथ ही अष्ट सिद्धि-नव निधि युक्त स्थितियों की चेतना प्राप्ति हेतु साधनात्मक क्रियाएं सम्पन्न करेंगें जिससे कि साधक का जीवन धर्म, अर्थ, काम की शक्तियों से युक्त हो सकें, जिसमें आप अपने इष्ट की चेतना को आत्मसात कर, सभी सुखों से युक्त हो सकेंगे।
शिविर स्थल- नारायण मैदान, C.M.G इण्टर कालेज के पास, दान्दूपुर वाराणसी (उ.प्र.)
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,