यह मानव जीवन अनेकों प्रकार की उलझनों से घिरा हुआ है और सामान्य मनुष्य चाह कर भी उन उलझनों से छुटकारा नहीं पाता। वह बस जीवन में इधर-उधर भटकता रहता है और अंत में उसके हाथ खाली ही रह जाते हैं। दिन-प्रतिदिन की विफलता उसके जीवन में निराशा ही लाती है और ऐसे क्षणों में वह चाहता है कि कोई ऐसी शक्ति, कोई ऐसा व्यक्तित्व उसका मार्गदर्शन कर और उसे सही मार्ग प्रदर्शित करें, जिस पर चल कर वह जीवन की श्रेष्ठता को प्राप्त कर सके। पर विधाता की ऐसी लेखनी है कि हर व्यक्ति इतना सौभाग्यशाली नहीं होता और उसकी खोज समाप्त होने से पहले ही उसे शरीर छोड़ना पड़ता है।
अत्यन्त ही सौभाग्यशाली होते हैं वो लोग जो जीवन में जीवित जाग्रत सद्गुरु को प्राप्त कर पाते हैं। उनसे भी सौभाग्यशाली वो होते हैं जिन्हें ऐसे सद्गुरु की सामीप्यता प्राप्त होती है और उनसे भी ज्यादा सौभाग्यशाली वो शिष्य होते हैं जो ऐसे दिव्य महापुरुष के सान्निध्य में चैतन्य तीर्थों की यात्रा सम्पन्न करते हैं। ऐसे परम सौभाग्यशाली शिष्यों का तो इन्तजार स्वयं सद्गुरुदेव को भी रहता है और उनकी सारी चेष्टा अपने इन सभी शिष्यों के जीवन को ऊंचा उठाने में ही संलग्न रहती है। इसी मनोवृत्ति के अनुरूप ही वो दिव्य तीर्थ स्थानों पर श्रेष्ठ साधना शिविरों का आयोजन करवाते हैं ताकि उनके मानस पुत्र-पुत्रियों के जीवन की सभी अभिलाषाओं को वो पूर्ण कर सकें।
जिस प्रकार एक माता-पिता अपने बच्चों को सम्पन्न देख कर खुश होते हैं, ठीक उसी प्रकार एक गुरु भी अपने शिष्यों को सभी दृष्टि से सम्पन्न देखना चाहते हैं। ऐसी ही अभिलाषा लिये गुरुदेव ने 2-3 मई 2015 को नृसिंह जयन्ती, त्रि-शक्ति स्वरूप छिन्नमस्ता जयन्ती व बुद्ध पूर्णिमा के पूर्ण फलदायी चैतन्य अवसर पर अपने सभी शिष्यों को धन-धान्य, सुख-समृद्धि में पूर्णता प्रदान करने के लिए माता वैष्णों देवी के पावन धाम की यात्रा सम्पन्न की। ऐसे दिव्य अवसरो पर यदि त्रिशक्ति की यात्रा स्वयं गुरुदेव के साथ की गई हो तो फिर भला उस शिष्य की कोई भी मनोकामना अपूर्ण नहीं रहती।
माता वैष्णों देवी की चैतन्यता का अनुभव इसी से लगाया जा सकता है कि मंदिर में नित्य ही हजारों -हजारों लोग आते हैं और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये प्रार्थना करते हैं, किसी की पूर्ण होती है किसी की अधूरी रह जाती है किन्तु ऐसे दिव्य धाम की यात्रा में यदि सर्व समर्थ गुरुदेव का साथ हो तो फिर भला मां को तो विवश होना ही पड़ता है। फिर स्थिति सामान्य रह ही कहां जाती है।
इस दिव्यतम यात्रा का पहला पड़ाव बंदा बहादुर धर्मशाला में हुआ, जहां पर गुरुदेव ने नृसिंह जंयती के अवसर पर भगवान नृसिंह का आह्नान कर प्रत्येक साधक-साधिका को सिंह की भांति अपने लक्ष्यों को झपट कर प्राप्त करने व सिंहत्व शक्ति से अपने शत्रुओं का दमन करने के लिये सिंहत्व चेतना प्राप्ति दीक्षा प्रदान की। साथ ही साथ छिन्नमस्ता दिवस होने के कारण दुःख भंजन छिन्नमस्ता चैतन्य दीक्षा भी प्रदान की जिससे कि हमारे जीवन की सभी प्रकार की मलिनताओं का नाश हो सके और जिस प्रकार मां छिन्नमस्ता सभी दुष्टों का दमन करती हैं, ठीक उसी प्रकार वो हमारे जीवन के सभी दुःख रूपी दोषों का भी शमन करें।
रात्रि में थोड़ा विश्राम कर सभी शिष्य अगले दिन भोर बेला में पहले से ही यात्रा के लिये तैयार गुरूदेव जी के आने का इंतजार कर रहे थे, गुरूदेव जी के आते ही मानों साधको में प्राण संजीवनी का संचार हुआ हो, जय गुरूदेव के जयकारों से पूरा वातावरण गुजांयमान हुआ। गुरूदेव जी ने यात्रा प्रारम्भ करने की अनुमति प्रदान की और वे स्वयं अपने प्रिय मानस पुत्र-पुत्रियों के साथ माता वैष्णो देवी मंदिर की ओर गतिशील हुये। गुरूदेव जी के श्रीमुख से प्राप्त मंत्र का जप करते हुये स्वयं भगवान शिव के साथ यात्रा सम्पन्न करना अपने आप में आद्या शक्ति को समाहित करने की क्रिया प्रतीत हो रही थी, कई साधकों को तत्क्षण अनुभूति भी हुई। वातावरण की शीतलता में बहती ठंडी हवा यात्रा को अत्यधिक आनन्दित बना दिया। साथ ही साथ सभी शिष्य शिष्याओं का निरन्तर यही मनन-चिन्तन बना रहा कि किस प्रकार वो इस यात्रा में गुरुदेव की सामीप्यता प्राप्त कर सकें।
माता वैष्णों देवी दरबार के निकट पहुंच कर थोड़ा विश्राम के पश्चात् गुरूदेव की आज्ञा मिलते ही हम सभी मां आद्या शक्ति की ज्योर्तिमय स्वरूप त्रि-पिण्ड शक्ति के दर्शन हेतु निकल पड़े, आद्या शक्ति के पूर्ण चैतन्य वात्सल्य ममतामयी सान्निध्य में गुरूदेव ने नव निधि लक्ष्मी दीक्षा प्रदान की जिससे कि प्रत्येक साधक-साधिका के जीवन में लक्ष्मी के नव स्वरूप धन लक्ष्मी, आयुष्य लक्ष्मी, सौभाग्य लक्ष्मी, यश लक्ष्मी, काम शक्ति लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी, अचल लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, आरोग्य लक्ष्मी की पूर्ण रुप से स्थापना हो सके और सभी प्रकार की दरिद्रताओं का नाश हो सके। साथ ही गुरूदेव ने स्वयं भैरव रक्षा सूत्र साधकों को बांधा जिससे किसी प्रकार की बाधा, प्रेत बाधा, तंत्र बाधा आदि का प्रभाव न पडे़ और साधक प्रत्येक दृष्टि से सुरक्षित बना रह सकें।
साथ ही साथ गुरुदेव जी ने चांदी की श्लाका से जिव्हा पर सरस्वती, लक्ष्मी, नृसिंह, काली आदि देवी-देवताओं के बीज मंत्रों का अंकन भी किया जिससे वे देवी-देवता हमारी जिव्हा पर स्थापित हों और हमें अपनी पूर्ण शक्ति प्रदान करें। उसके उपरान्त हम सभी भगवान भैरव की यात्रा की ओर चल पड़े। दिन भर की थकान के बाद वैसे तो भैरवधाम की खड़ी चढ़ाई चुनौती भरी ही प्रतीत होती है पर जब साथ में सद्गुरुदेव हों तो फिर कौन सी चुनौती भला शिष्यों को रोक सकती है। सभी शिष्यों ने गुरुदेव के साथ ही भैरवधाम की यात्रा प्रारम्भ की और देखते ही देखते यात्रा पूर्ण भी हो गई। वहां भैरव मंदिर प्रांगण में गुरुदेव ने अपने सभी शिष्यों को भैरव दीक्षा प्रदान की ताकि वो जीवन में पूर्ण रुप से भय मुक्त हो सकें, उन पर किये गये किसी भी प्रकार की तंत्र बाधा का निवारण हो सके, समस्त प्रकार के इतर योनियों के दुष्प्रभाव से वे मुक्त हो सके और उनका जीवन पूर्ण आनन्दायक बन सके। इस पूर्ण यात्रा में सम्मिलित शिष्यों-शिष्याओं से सद्गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्न हैं। इन सभी श्रेष्ठ शिष्यों-शिष्याओं में से प्रमुख शिष्यों-शिष्याओं ने उच्चकोटि का सहयोग किया है।
क्योंकि ये शिष्य ही अपने आप में सही रूप से जांबाज योद्धा बनने की ओर अग्रसर हुये हैं। जिससे कि जीवन रूपी महाभारत में कृष्ण रूपी गुरू के सानिध्य में अपने आपको अर्जुनमय बना सके। गुरू का भाव चिंतन यही रहता है कि साधक को अर्जुन रूपी कृष्णमय बना सके। वे ही सिद्धाश्रम के प्रेरणा स्रोत बन सकेंगे। अतः उन श्रेष्ठ शिष्यों के नाम पत्रिका में प्रकाशित किये जा रहें हैं
दिल्लीः पूनम कुमारी, नारायण पंचाल, विनोद पंचाल, रिकनी, विजयराम पंडित, शानू, मुकेश त्यागी, प्राणनाथ पंडित, रमन अरोरा दिनौरीः ओंकार नागबंसी सहारनपुरः मुकेश कुमार, पंकज, नीलू, अनिल गुप्ता पूनम, अपूर्व, अरुण, ईशान, लखनऊः डॉ- रवि कपूर, नेहा, पूनम, जम्मूः शीतल शर्मा, संध्या शर्मा, मीना शर्मा, अरुण मेहरा अम्बालाः ओम प्रकाश निखिल डिब्रूगढ़ः अशोक कुमार, चुन्नीलाल गुप्ता, टिकेश्वर, सतबीर सिंह, मुकेश कुमार, शिमलाः देवी, विश्वजीत गुप्ता, तारकेश्वर गुप्ता, नागेश्वर, निर्मला गुप्ता कटनीः विनोद पटेल फरीदाबादः दलबीर सिंह, भीकम सिंह, प्रेमलता, सुशील बिलासपुरः रेखा पटेल चंडीगढ़ः राजेन्द्रपाल, ज्योति, पवन कांगड़ाः नरेश शर्मा, चंद्रकांत शर्मा हरदाः पूर्णिमा गवहने उमरियाः शरणजीत, त्रिलोचन कौर सारगढ़ः रमेश पटेल, मालती, सीमा पटेल आजमगढ़ः रवि कुमार अलिराजपुरः शैलेन्द्र, अश्मित, अनिकेत वास्तव में ही धन्य हैं वो शिष्य जिन्हें गुरुदेव का साहचर्य प्राप्त है और जो ऐसे दिव्य शिविरों में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सौभाग्य का द्वार तो गुरू प्रत्येक के लिये खोलता ही है, परन्तु साधक कूप- मण्डूक की स्थिति में ही रहता है, इसलिये वह अधकचरे घेरे से बाहर निकलने का प्रयास ही नहीं करता और साधक होते हुये भी सामान्य बना रहता है।
गुरू रूपी ज्ञान गंगा में वहीं डुबकी लगा सकता है जिसमें जोश, जजब्बा हो और जीवन के दलदल से पार होने का भाव हो। यह तो ऐसे क्षण होते हैं जिसे पकड़ने वाला सौभाग्यशाली ही कहा जा सकता है।
अरूण मिश्रा
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