ऐसा नही है, कि प्राचीन काल में कन्याओं को वर चुनने का अधिकार नहीं था। उस समय वैवाहिक बाधाओं या किसी विशेष गुणधर्म के कारण स्वयंवर समारोह सम्पन्न होते थे पर लोगों में नैतिक तथा चारित्रिक बल मजबूत होता था, इस तरह के विवाह सामाजिक मान्यता के अनुसार ही सम्पन्न होते थे तथा वर-वधू के दाम्पत्य जीवन में कटुता एवं वैमनस्यता नहीं आ पाती थी। वस्तुतः विवाह संस्कार जीवन का श्रेष्ठतम संस्कार है। विवाह के पश्चात पति-पत्नी का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। विवाह सम्बन्ध तय करने से पूर्व, दोनों परिवारों का एक दूसरे से अच्छी तरह सामाजिक, पैतृक व नैतिक दृष्टिकोण, रहन-सहन से परिचित होना आवश्यक है।
यहां विवाह का सम्बन्ध कुछ दिनों अथवा कुछ वर्षों के शारीरिक उपभोग के लिये नहीं किया जाता। वह किया जाता है जीवन भर के लिये और कभी-कभी तो जन्म-जन्मान्तरों के लिये। इसका उद्देश्य इतना महान और पवित्र है कि संसार के इतिहास में और कहीं भी इसकी तुलना का कोई उदाहरण नहीं मिलता। इसमें शारीरिक वासनाओं को कुछ महत्त्व नहीं दिया गया हो, ऐसा तो नहीं है, पर उनकों जो स्थान दिया गया है, वह है संयम और आदर्श के बन्धन में ही रखकर। केवल शारीरिक तृप्ति के लिये ही इसकी रचना नहीं हुई। इसका एकमात्र उद्देश्य यह है कि दोनों पति-पत्नी मिलकर उन्नति के पथ की ओर अग्रसर हों और दोनों की आत्मायें इस प्रकार एक हो जाये जिस प्रकार जल में जल मिलकर एक होता है। सागर में गिरते समय नदियों का जल और तरह का रहता है। पर जिस समय वह सागर में मिल जाता है, उस समय किसी में सामर्थ्य नहीं जो भेद करके उसे विलग कर सके। पत्नी भी पति के अस्तित्व में अपने अस्तित्व को इसी प्रकार एकाकार कर देती है कि दोनों को चेष्टा करने पर भी अलग-अलग नहीं किया जा सकता। राम के साथ सीता, कृष्ण के साथ राधा, शिव के साथ पार्वती का नाम जिस प्रकार एकाकार हो गया है, ऐसे ही पति-पत्नी का एकाकार होना ही सार्थक है। प्रेम की सार्थकता इसी में है कि प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी दोनों इस प्रकार घुल-मिलकर एक हो जायें, जिससे उनका पृथक कोई अस्तित्व ही नही रहे। यह एकाकार हो जाना ही प्रेम की सर्वश्रेष्ठ भूमिका है। इसकी को सच्चा प्रेम कहा जाता है।
वर्तमान युग में विवाह प्रत्येक परिवार की प्रमुख समस्या के रूप में सामने आई है। प्रत्येक माता-पिता चाहते हैं, कि उनके पुत्र-पुत्री पढें लिखें और उन्हें योग्य जीवन साथी मिले, जिससे उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय हो सके, किन्तु कितने लोगों के सपने साकार हो पाते हैं, अथवा उनके पुत्र या पुत्री को योग्य जीवन साथी मिल पाता है? यह तो काफी हद तक प्रारब्ध पर ही निर्भर करता है। इस युग में सामाजिक ढ़ाचे में आये व्यापक परिवर्तन के फलस्वरूप कन्याओं के लिये योग्य वर ढूंढना कठिन हो गया है। अनेक ऐसे कारण हैं, जिनके रहते ये समस्यायें और भी जटिल हो जाती हैं। योग्य जीवन साथी न मिलने से जीवन नीरस हो जाता है। भविष्य की सम्पूर्ण आशायें धूमिल हो जाती हैं और जीवन बोझ लगने लगता है।
समय पर विवाह सम्पन्न न होना, योग्य साथी न मिलना, विवाह होने के उपरान्त दाम्पत्य जीवन कलहपूर्ण होना, पति-पत्नी में मतभेद, सन्तानहीनता आदि अनेक रूपों में बाधायें आती ही हैं। इस तरह की बाधायें दम्पति को हर रूप में कमजोर करती हैं। और उनका जीवन असामान्य बनकर रह जाता है। आज वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी के मध्य मतभेदों एवं कलह के कारण न्यायालयों में तलाक के मुकदमें की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, यह स्थिति देखकर हृदय में अपार वेदना होती है। कभी एक समय था, जब हमारी संस्कृति में नारी को घर की लक्ष्मी माना जाता था, किन्तु आज की स्थिति बिल्कुल भिन्न होती जा रही है। इसकी पृष्ठभूमि में अनेक कारण हो सकते हैं, अतः परिवार में उत्पन्न तनाव व कलह के मूल बिन्दुओं पर पति-पत्नी को धैर्यपूर्वक चिन्तन कर समाधान के लिये प्रयास करना चाहिये।
गृहस्थ में रहते हुये दम्पति को एक दूसरे के लिये स्वार्थ त्याग, अनुचित व्यवहार में भी क्षमा, अत्यन्त कष्ट में भी धैर्य आदि गुणों का प्रयोग करना अनिवार्य हो जाता है। यही गुण विकसित होकर मनुष्य को सामाजिक क्षेत्र में विशिष्ट व्यत्तिफ़त्व प्रदान करते हैं। त्याग, क्षमा, धैर्य, संतोष इन्हीं गुणों के संग्रह तथा अभ्यास से ही वैवाहिक सफलता मिलती है। जब दम्पति इन दैव गुणों का प्रयोग ईश्वर प्राप्ति एवं अध्यात्म मार्ग में करते हैं, तो तब वे भगवत्य प्राप्ति के अत्यन्त सिन्नकट पहुंच जाते है, जो मानव का परम लक्ष्य है। विवाह जीवन में सुनिर्माण की नींव होती है।
भावी जीवन के सुखद निर्माण के लिये इस संस्कार रूपी ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक है, जिससे पति-पत्नी आजीवन मित्रवत, एक-दूसरे के सहयोगी बने रहें, सुख दुःख में साथ चलें न कि एक ही छत के नीचे रहते हुये शत्रुवत जीवन व्यतीत करें।
ऐसा ही सुन्दर, सुस्ंकारो से युक्त वैवाहिक जीवन का निर्माण सद्गुरू के आशीर्वद और सानिध्य में पावन परिणय जुड़ाव में प्रत्येक साधक-साधिका को आबद्ध करने की क्रिया सम्पन्न होगी। वन्दनीय माता जी के ममतामयी सान्निध्य में जानकी गौरी सौभाग्य शक्ति दीक्षा और शिव वैभव प्राप्ति दीक्षा प्राप्त कर सकेंगे। जिसके द्वारा पति-पत्नी के मध्य आत्मिक रूप से सामंजस्य बनने से वैवाहिक जीवन सुदृढ़ और सफल होगा। निश्चित रूप से दोनों पक्ष अपनी न्यूनताओं को दूर कर सुखद वैभव पूर्ण जीवन की प्राप्ति करने में सफल होंगे। महा प्रसाद की व्यवस्था सूर्यास्त से पूर्व प्रदान की जायेगी। आप सपरिवार आत्मीय भाव से आमंत्रित हैं। आशीर्वाद प्राप्त कर आनन्द तत्व की प्राप्ति कर सकें।
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