न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायु र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न ग्रीष्मो न शीतं न देशो न वेषो न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे
जो न पृथ्वी है, न जल है, न अग्नि है, न वायु है और न आकाश है। जो न तन्द्रा है, न निन्द्रा है, न ग्रीष्म है और न शीत है तथा जिनका न कोई देश है, न वेश, उस देवत्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश की मैं स्तुति करता हूं।
भगवान शिव के ही स्वरूप भगवत्पाद आद्यशंकराचार्य से अधिक श्रेष्ठ ढंग से कोई अन्य इस तत्व की व्याख्या कर भी नहीं सकता था, जो शिव तत्व हैं, जो गुरू तत्व हैं और जो मानव जीवन का वास्तविक आधार है। ज्ञान की चरम सीमा तक पहुंचकर ब्रह्म का साक्षात्कार कर भगवत्पाद भाव-विभोर होकर स्तुति में केवल इतना ही कह सके। समस्त भाव व्यक्त करने के बाद जो अव्यक्त रह गया, वही तो गुरूतत्व है और जिसकी ओर भगवत्पाद केवल इंगित करके रह गये क्योंकि स्वयं गुरूपद पर आसीन होने के कारण वे स्पष्टतः कह भी नहीं सकते थे कि वह मूर्तिहीन त्रिमूर्ति मै ही हूं। गुरूत्व का गुरूपद का यथार्थ परिचय किन्तु यही है। परम शांत, निर्विकल्प, निश्चिंत, द्वंद्वों से सर्वथा रहित, निष्प्रपंच और अपने क्रियाशील स्वरूप में भी निरन्तर जीवों का उद्धार करते हुये इसी प्रकार आत्मीय और सरस। क्योंकि ‘गुरूत्व’ केवल एक चिन्तन के वशीभूत होकर ही तो उद्भूत होता है, जो अपार करूणा से सम्बन्धित होता है, और जो जीवों के कल्याण मात्र से ही सम्बन्धित होता है, जो भगवान शिव की ही भांति निरन्तर कृपा-वृष्टि में समर्थ होता है और उसे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए वह केवल और केवल शिव ही होता है, अनुग्रहकारी और आत्मीय ही होता है।
भगवान शिव आत्मलीन और आत्मतृप्त होते हुये भी गुरूत्व के मूर्तरूप हैं। जीवन के सभी पक्षों को समेटे वे जिस प्रकार से द्वंद्व रहित निजस्वरूप में स्थित हैं वही व्यक्तित्व गुरू का व्यक्तित्व हो सकता है, क्योंकि इसी प्रकार गुरूदेव भी समस्त विश्व को अपने कंठ में समेटे, मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण कर शीतलता की प्रतिमूर्ति बने रहते हैं।
केवल अर्धचन्द्र ही नहीं, वरन् गुरू का स्वरूप तो पूर्ण चन्द्र की ही भांति प्रत्येक स्थिति में अमृत की वर्षा करने में तत्पर और प्रवाहमान रहता है, चाहे वह उनके नेत्रें से बहती अमृत धारा हो अथवा स्मित हास्य में छुपी ममता। वास्तव में वह प्रतीक रूप में अर्धचन्द्र धारण कर पूर्ण चन्द्र ही हैं। प्रतीक रूप में गंगा धारण कर निरन्तर अपने शिष्यों को निर्मल और उज्ज्वल करने की क्रिया में संलग्न महादेव ही हैं।
इसी कारणवश गुरूदेव का स्वरूप पूर्ण चन्द्र तुल्य आभा प्रदान करने वाला माना गया है और ऐसे शिवरूपी गुरूदेव के इसी पूर्णत्व का, आह्लाद का जो दिवस विशेष होता है, भारतीय तिथि के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा का अवसर, जब गुरूदेव मात्र आत्म स्वरूप में ही नहीं वरन् अपनी पूरी परम्परा के साथ इस धरा पर अवतरित, आलोकित व कृपावान होते हैं। गुरू पूर्णिमा तो ऐसा दिवस विशेष है जब सम्पूर्ण गुरू परम्परा अपनी दिव्यता, करूणा और ममत्व के साथ इस धरा पर आवाहित होती है। जब पूज्यपाद गुरूदेव स्वयं ही नहीं वरन् परम गुरूदेव परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी तथा सिद्धाश्रम के विशिष्टतम महायोगी कृपा पूर्वक अपनी दिव्य आभा से सूक्ष्म बिम्ब अथवा प्रच्छन्न रूप में पधार कर अपने समस्त शिष्यों एवं प्रशिष्यों को अपना वर और आशीर्वाद प्रदान कर ऐसी चैतन्यता से अभिभूत कर देते हैं जिसकी प्राप्ति तो जीवन में किसी अन्य दिवस पर सम्भव ही नहीं हो सकती, और यह भी निश्चित है कि जब इस प्रकार सम्पूर्ण गुरू-परम्परा अपनी अनुकम्पा के परिणाम स्वरूप आवाहित हो, तो वह दिवस विशेष गुरूदेव का अत्यन्त आह्लादकारी दिवस होता है। ऐसे आह्लाद के क्षणों में ही तो उनके उस लाभ को प्राप्त किया जा सकता है, उनकी उस कृपा का सान्निध्य ग्रहण किया जा सकता है, जिसे भगवान शिव का औघढ़दानी स्वरूप कहा गया है।
गुरू पूर्णिमा इसी कारण शिष्यों के लिये पूरे वर्ष भर का पर्व कहा गया है, चारों पुरूषार्थों की प्राप्ति का दुर्लभ क्षण माना गया है, जीवन में सर्वविध सम्पन्न होने का पर्व कहा गया है। गुरू पूर्णिमा का सीधा सा अर्थ है कि जो व्यक्ति गृहस्थ एवं योगी है, जो साधनाओं की जटिलताओं में और शास्त्रीय पक्षों में उलझने की आवश्यकता नहीं समझता है अथवा जीवन की व्यस्तताओं के कारण जिसके समक्ष ऐसा अवसर नहीं होता है, वह भी अपने सामाजिक कर्त्तव्यों को पूर्ण करता हुआ अपने जीवन को पूर्णता दे सकें। यह पूर्णता तभी प्राप्त हो सकती है जब जीवन में चारों पुरूषार्थ हो क्योंकि जब तक जीवन में चारों पुरूषार्थें नहीं होंगे तब तक जीवन में चैतन्यता आ भी नहीं सकेगी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये जीवन के चार स्तम्भ हैं, इन्हीं से जीवन का विस्तार सन्तुलित होता है, किन्तु इन्हें किस प्रकार हस्तगत किया जाए, किस प्रकार सन्तुलित किया जाए कि कोई एक पक्ष आवश्यकता से अधिक बढ़कर असन्तुलन न पैदा कर दें? इसका रहस्य केवल गुरू-चरणों का आश्रय लेकर ही अपने जीवन में उतारा जा सकता है। इन चारों पुरूषार्थों को केवल प्राप्त करने का ही नहीं वरन् जीवन में आत्मसात कर लेने का पर्व ही तो गुरू पूर्णिमा है। जो जीवन में सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हो वही पूर्णिमा है और षोड़श कला युक्त जीवन का तात्पर्य भी यही है। जीवन में चारों पुरूषार्थों की प्राप्ति करना ही जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, यही समस्त शास्त्रों का निचोड़ है।
जो वास्तव में साधक हैं, शिष्य हैं और जीवन में आगे बढ़कर इस रूप में सक्रिय हैं कि जीवन का यथार्थ सुख और लक्ष्य प्राप्त करना ही है, वे ही समझ सकते हैं कि ऐसे दिवस का क्या तात्पर्य होता है, क्या चैतन्यता होती है और किस प्रकार अपने आप को एक सामान्य जीव की कोटि में न रखते साक्षात् ब्रह्मतुल्य बनकर शिष्य बनने की क्रिया करता है और समाज के लाखों-करोड़ों लोगों से अलग हटकर जीवन जीने की एक नई शैली अपनाता है। गुरू-चरणों में बैठकर उस आनन्द और दिव्यता की अनुभूति करता है, जिसकी सामान्य जन कल्पना ही नहीं कर सकते हैं।
ऐसे व्यक्ति के जीवन की ही सार्थकता होती है क्योंकि ऐसे व्यक्ति ही फिर आगे बढ़कर जीवन में किसी के लिये सार्थक बन सकते हैं, जिनके स्वयं के आनन्द से और जिनके स्वयं के प्रकाश तथा जिनकी पूर्णिमा तुल्य आभा एवं निर्मलता से अनगिनत लोग प्रभावित व तृप्त होते हैं, यही गुरू पूर्णिमा की जीवन में आवश्यकता है और यही जीवन में गुरू पूर्णिमा का अर्थ है कि साधक अपने आप को भीड़ से हटाकर, अपने आप को प्रखर व्यक्तित्व बनाकर अपने जीवन की चैतन्यता को खुद अपने लिए भी और दूसरे के लिए भी सुस्पष्ट करता है।
गुरू के सान्निध्य में जो क्षण बीतेंगे वे काल के मापदंड पर नहीं नापे जा सकते, जबकि समस्त भारत से आये शिष्य, साधक और साधिकायें परस्पर मिल-जुल कर ऐसा वातावरण प्रस्तुत करेंगे, जो सही अर्थों में इनकी विशालता को प्रकट करने वाला होगा। जहां इस प्रकार प्रेम हो एक-दूसरे को देखकर दौड़कर मिलने की भावना हो, परस्पर मिल-जुल कर गुरूदेव के स्वप्न को पूरा कर देने की भावना हो, जो निर्मल प्रवाह पूज्य गुरूदेव द्वारा प्रवाहित किया गया है, वहीं तो परिवार और शिष्यता है। इन्हीं भावनाओं से ही कुछ निर्मित होता है।
जहां ऐसे आह्लाद के क्षण होते हैं, जहां ऐसी शालीनता होती है, वहीं पूज्य गुरूदेव की शिवमयता भी प्रकट होकर पुण्य सलिला गंगा की भांति कलकल कर बहने लगती है क्योंकि शिव का वास तो आनन्द में ही है। हमारा आपका कर्त्तव्य हो जाता है कि अपनी भावना, अपने चिन्तन से ऐसा ही कुछ निर्मित करें, जिसमें शिवरूपी गुरू का वास हो सके। जहां शिवरूपी गुरू का वास है, वहीं समस्त सिद्धिया भी होंगी। वहीं जीवन की श्रेयता जीवन का सुख, वैभव, आनन्द, वैराग्य, करूणा, ममता सभी की प्राप्ति इस पवित्र दिवस पर गुरू रूपी चेतना के माध्यम से ही प्राप्त होना संभव हो पाता है।
गुरु का दिव्य अक्षय ज्ञान शक्ति रूपी भंडार विशिष्ट साधकों को प्रदान करने के लिये गुरू के साथ अनेक देवी-देवता धरा पर आते ही हैं। वे अपनी सम्पूर्ण दैविक विभूतियों को प्रत्यक्ष में धारण कर प्रदान करते हैं। जिसने अपने को साधना की भट्टी में सालों भर तपाया है, अपने अन्दर-बाहर को परिशुद्ध किया वही साधक को ऐसी ही चेतना प्रदान करता है। उसी गुरू के माध्यम से गुरू पूर्णिमा पावन पर्व पर, अपनी लौकिकता के खालीपन को परलौकिकता से भर सकता है।
ऐसे ही प्रेममय वातावरण में गुरू की शिवत्व शक्ति प्रत्येक साधक को ऊर्जा व चेतना प्रदान करती है जिससे कि उसका गृहस्थ जीवन हर दृष्टि से श्रेष्ठमय बन सके। ऐसा ही यह शिष्यत्व पूर्णिमा का महापर्व दिव्यमय योगी स्वरूप साधको और सद्गुरू के सानिध्य में सम्पन्न होगा इसके प्रभाव से साधक के सांसारिक जीवन में किसी भी तरह की न्यूनता नहीं रहती है और साधक निरन्तर श्रेष्ठता और उच्चता को प्राप्त करता ही है। ऐसे ही दिव्यतम अवसर पर सागर रूपी सद्गुरू में डूब कर जीवन वृद्धि रूपी रत्नों को प्राप्त करने की क्रिया 29-30-31 जुलाई रायपुर में शिवोहम् गुरू पूर्णिमा महोत्सव सम्पन्न होगा। साथ ही जीवन के चारों पुरूषार्थों को पूर्ण रूप से आत्मसात करने हेतु ‘शिवोहम् धनदा लक्ष्मी दीक्षा’ और ‘अक्षय राज राजेश्वरी चेतना दीक्षा’ व जीवन के पापों को आहूत करने हेतु प्रत्येक साधकों द्वारा हवन और अपने जीवन को शिव लक्ष्मीमय स्थिति से युक्त करने हेतु स्वरूद्राभिषेक पूर्ण वेद मंत्रों के माध्यम से सम्पन्न कराया जायेगा।
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