अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में जब केवल अंधकार ही था, न दिन था, न रात थी, न सत् (कारण) था, न असत्(कार्य) था। उस समय केवल एक निर्विकार शिव ही विद्यमान् थे। वही अक्षर है वही सबके जनक परमेश्वर का प्रार्थनीय रूप है तथा उन्हीं से शास्त्र विद्या का प्रर्वतन हुआ है।
भगवती श्रुति भी कहती है कि संसार में जो कुछ भी देखा, सुना जाता है, सभी परम शिव तत्व हैं।
सर्व देवतात्मको रूद्रः सर्वे देवाः
शिवात्मकाः रूद्रस्य दक्षिणे रविर्ब्रह्मा पयोऽग्नयः
वामपार्श्वे उमादेवी विष्णुः सोमोऽपि ते त्रयः या उमा
या स्वयं विष्णुर्यो विष्णुः सहि चन्द्रमाः ये नमस्यन्ति
गोविन्दं ते नमस्यन्ति शंकरम् येऽर्चयन्ति हरिं भक्त्या
तेऽर्चयन्ति वृषध्वजम्।।
वह परम शिव तत्व ही सर्वत्र समाया है, वह भजनीय तत्व है, वही मानवीय शक्ति है, वही पूजनीय है, वही सगुण है वही निर्गुण है वही विश्व रूप है, पूर्ण चैतन्य स्वरूप परम आत्मा है।
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है
रूद्रो में मैं ही शंकर हूं। शिव को ही शंकर कहते हैं। शिव से तात्पर्य नित्य, विज्ञानानन्दघन परमात्मा से है।
शंकर का ‘श’ आनन्द का बोधक है और कर करने वाले के लिये प्रयुक्त होता है। अर्थात् जो प्राणी को आनन्द देने वाला है अथवा उसका आनन्द स्वरूप है वही शंकर है। शास्त्रों में शिव की महिमा अनन्त बतायी गयी है। निर्गुण रूप में वही जगत्के कर्त्ता-संहर्त्ता एवं पालयिता है। भक्तों पर अनुग्रह के लिये वे सगुण होते हैं।
शिव सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म हैं। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल हैं। सारा जगत उन्हीं का रूप है। यह सृष्टि उन्हीं की लीला है, शंकर जन-जन के देवता हैं। उनकी भत्तिफ़ से ऋषि-मुनि, देव, दनुज, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मनुष्य, पितर, भूत-प्रेत, देवी, अप्सरा आदि सभी को अभीष्ट फल की प्राप्ति हुई है। उनकी निष्काम पूजा से अन्तः करण शुद्ध होकर मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति होती है, सकाम पूजा से भक्त को भोग-ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं।
एकाकी शिव प्रायः योगी रूप में ही प्रकट हुये हैं, शिव योगीराज है योगाधीश्वर हैं उनका रूप विलक्षण होते हुये भी प्रतीक पूर्ण है। उनकी स्वर्णिम लहराती जटा उनकी सर्वव्यापकता की सूचक है, जटा में स्थित गंगा कलुषता नाश तथा चन्द्रमा अमृत का द्योतक है। गले में लिपटा सर्प, काल स्वरूप है, इस सर्प अर्थात् काल को वश में करने से ही ये मृत्युंज्य कहलाये। त्रिपुण्ड, योग की तीन नाडि़यों इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना की द्योतक है तो ललाट स्थित तीसरा नेत्र आज्ञा चक्र का द्योतक होने के साथ ही भविष्य दर्शन का प्रतीक है। उनके हाथों में स्थित त्रिशूल तीन प्रकार के कष्टों दैहिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है, तो त्रिपल युक्त आयुध सात्विक, राजसिक, तामसिक तीन गुणों पर विजय प्राप्ति को प्रदर्शित करता है, हाथों में स्थित डमरू उस ब्रह्म निदान का सूचक है जिससे समस्त वाड़्मय निकला है, कमण्डल, समस्त ब्रह्माण्ड के एकीकृत रूप का द्योतक है, तो व्याघ्रचर्म मन की चंचलता के दमन का सूचक है, शिव के वाहन नंदी धर्म के द्योतक है, जिस पर वे आरूढ़ रहने के कारण ही धर्मेश्वर कहलाते हैं, उनके शरीर पर लगी भस्म संसार की नश्वरता की द्योतक है।
महापार्थिवेश्वर हिमालय की महाशक्ति रूपा पुत्री का श्री शिव के साथ परिणय होने से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। किसी प्रकार की भी शक्ति क्यों न हो, जब तक वह धर्म से परिणीत-संयुक्त नहीं होती, तब तक कल्याणकारी नहीं होती किन्तु आसुरी शक्ति तो तपस्या चाहती ही नहीं, फिर उसे शिव या धर्म कैसे मिलेंगे? धर्म-संबंध के बिना शक्ति आसुरी होकर अवश्य ही संहार का हेतु बनेगी। प्रकृति माता की यह प्रतिज्ञा है कि ‘‘यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स में भर्ता भवष्यिति’’
अर्थात् संघर्ष में जो मुझे जीत लेगा, जो मेरे दर्प को चूर्ण कर देगा और जो मेरे समान या अधिक बल का होगा, वही मेरा पति होगा। यह स्पष्ट है कि रक्तबीज, शुम्भ-निशुम्भ आदि कोई भी दैत्य, दानव प्रकृति विजेता नहीं हुये। किन्तु सब प्रकृति से पराजित, प्रकृति के अंश काम, क्रोध, लोभ, मोह, दर्प आदि से पद-पद पर भग्न मनोरथ होते रहे हैं। हां, गुणातीत प्रकृतिपार भगवान शिव ही प्रकृति को जीतते हैं। तभी तो प्रकृति माता ने उन्हें ही अपना पति बनाया। यही क्यों कामदेव विजयी शिव की प्राप्ति के लिये तो उन्होंने घोर तपस्या भी की।
शक्ति और शिव
यह सदाशिव अपनी शक्ति से युक्त होकर सृष्टि रचते हैं-
माया प्रकृति है और महेश्वर माया के अधिष्ठाता स्वामी है। माया के द्वारा उन्हीं के अवयव भूत जीवों से समस्त संसार परिव्याप्त हो रहा है। इस प्रकार यह अव्यय सदाशिव सृष्टि की रचना की निमित्त दो हो जाते हैं। क्योंकि सृष्टि बिना द्वैत (आधार-आधेय) हो नहीं सकती। आधेय (चैतन्य पुरूष) बिना आधार (प्रकृति, उपाधि) के व्यक्त नहीं हो सकता। इसी कारण इस सृष्टि में जितने पदार्थ हैं, उनमें अभयन्तर चेतन और बाह्य प्राकृतिक आधार अर्थात् उपाधि (शरीर) देखे जाते हैं। दृश्या दृश्य सब लोकों में इन दोनों की प्राप्ति होती है। इसी कारण इस अनादि चैतन्य परम पुरूष परमात्मा की शिवसंज्ञा सृष्टयुन्मुख होने पर अनादि लिगं है ओर उस परम आधेय को आधार देने वाली अनादि प्रकृति का नाम योनि है, क्योंकि वे दोनों दस अखिल चराचर विश्व के परम कारण है। शिव लिगं रूप में पिता और प्रकृति योनि रूप में माता है।
गीता में इसी भाव को इस प्रकार प्रकट किया गया है।
‘ममद्ब्रह्म (महान् प्रकृति) मेरी योनि है,
जिसमें मैं बीज देकर गर्भ का संचार करता हूं और इसी से सब भूतो की उत्पत्ति होती है।
इसी अनादि सदाशिव लिगं और अनादि प्रकृति योनि से समस्त सृष्टि उत्पन्न होती है। इसमें आधेय बीज-प्रदाता (लिंग) और आधार बीज को धारण करने वाली (योनि) का संयोग आवश्यक है। इन दोनों के संयोग के बिना कुछ नहीं उत्पन्न हो सकता। इसी परम भाव का मनु ऋषि ने इस प्रकार वर्णन किया है-
सृष्टि के समय परम पुरूष अपने ही अर्धांगं से प्रकृति को निकालकर उसमें समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इस प्रकार शिव का लिंग-योनि भाव और अर्ध नारीश्वर भाव एक ही वस्तु है। सृष्टि बीज को देने वाले श्रीशिव जब अपनी प्रकृति से आधार-आधेय की भांति संयुक्त होते हैं तभी सृष्टि की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार शिव अपने तेजमयी प्रकृति को धारण कर उससे आच्छदित होकर व्यक्त होते हैं। अन्यथा उनका व्यक्त होना असम्भव है। इसी कारण कहा है-
अर्थात् हे देवि आपने शिव के आधे शरीर वामभाग को धारण कर लिया है, अतएव आप उनके शरीर हैं।
यह आधार-आधेय जिसका व्यवहार श्री शिव-पूजा में होता है, प्रकृति और पुरूष के संयोग से होने वाली सृष्टि की उत्पत्ति की सूचक है। इस प्रकार यह परम परात्पर जगत् पिता और दयामयी जगत् माता के आदि सम्बन्ध के भाव की द्योतक है।
अतः यह परम पवित्र और मधुर भाव है इसमें अश्लीलता का आक्षेप करना ठीक नहीं, यह अनादि प्रकृति-पुरूष का सम्बन्ध परम् सृष्टि-यज्ञ है, जिसका परिणाम यह सुन्दर सृष्टि है। अतएव शुद्ध मैथुन जिसका उद्देश्य कामोपभोग नहीं बल्कि पितृऋण से उद्धार करने के लिये उत्पत्ति-धर्म का पालन करना है। यह कामाचार नहीं, परम यज्ञ है और इस प्रकार विचार करने से परम कर्त्तव्य है कि वह लिंग-योनि का उत्पत्ति धर्म के पालन के लिये है उचित व्यवहार करें और इनका यज्ञार्थ-धर्मार्थ व्यवहार न करके कामोपभोग के निमित्तप व्यवहार करना दुरूपयोग है और अवश्य ही पापजनक है।
इस प्रकार शिवलिंग का अर्थ ज्ञापन अर्थात् प्रकट करने वाला है। क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। दूसरा अर्थ आलय है अर्थात् यह प्राणियों का परम कारण है और निवास स्थान है। तीसरा अर्थ है लीयते यस्मिन्निति लिगं है। अर्थात् सब दृश्य जिसमें लय हो जायें वह परम कारण लिंग है।
लिखा भी है
लिंग परमानन्द का कारण है, जिससे क्रमशः ज्योति और प्रणव की उत्पत्ति हुई है। इसीलिये शास्त्रों में शिवलिंग के सम्बन्ध में विशेष विवेचन आया है और प्रत्येक गृहस्थ के घर में पारद शिवलिंग, ज्योति शिवलिंग, स्फटिक शिवलिंग, नर्मदेश्वर शिवलिंग, भगवती शक्ति के बाण स्वरूप के साथ अवश्य ही स्थापित होना चाहिये और इसका नित्य अभिषेक भी अवश्य होना चाहिये। इसी से गृहस्थ जीवन में शिव और शक्ति का निवास होता है।
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