प्रत्येक मनुष्य, चाहे वह किसी भी समुदाय से सम्बन्धित क्यों न हो, उसे लक्ष्मी की प्राप्ति एवं उसके महत्व को स्वीकार करना पड़ता ही है। बिना धन के धर्म का अस्तित्व आज के युग में संभव नहीं है और यह स्पष्ट है, कि धन की महत्ता एवं आवश्यकता प्राचीन काल से ही रही है।
आज मानव रात-दिन अर्थ संचय के लिये प्रयासरत रहता है। प्रातः काल उठकर अपने दैनिक कार्य से निवृत्त होने के उपरांत अपने व्यवसाय के लिये चल पड़ता है। महानगरों की स्थिति देखने से तो, व्यक्ति के जीवन पर अत्यधिक तरस आता है। वह प्रातः काल घर से निकल कर अपने कार्य पर जाता है, वहां पहुंचने तक उसे मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि सड़कों पर भीड़ भरे वाहन में चढ़ना, उतरना अथवा अपने वाहन के माध्यम से कार्य-स्थल पर पहुंचना अत्यंत जोखिम पूर्ण हो गया है। थोड़ी सी भी असावधानी अत्यंत घातक सिद्ध हो सकती है।
इन विषम परिस्थितियों में व्यक्ति कड़ी मेहनत से अर्थोपार्जन कर, अपने परिवार का भरण-पोषण करता है और यदि समुचित परिश्रम के उपरांत भी धन संचय न हो सके, तो पूरे माह अथवा वर्ष भर की मेहनत व्यर्थ चली जाती है अर्थात् पूरे माह या वर्ष पर्यन्त परिश्रम से जो अर्थोपार्जन होता है, वह यदि पत्नी, बच्चे या माता-पिता की बीमारी पर खर्च हो, तो व्यक्ति के भविष्य की योजनायें धरी की धरी रह जाती हैं।
उसके जीवन का निर्माण उसके खुद के हाथों से निकल कर उन दैनिक जीवन-व्यापन की घटनाओं पर निर्भर हो जाता है, और फिर वह अपने जीवन को एक निष्कम्प गति प्रदान करता हुआ सिर्फ जीवन व्यतीत करता रहता है। आज का मानव विवश दिखाई देता है, हारा हुआ, थका हुआ, निस्तेज दिखता है। उसमें जोश, हिम्मत, ताकत का अभाव दिखाई पड़ता है। वह किसी अन्य के लिये तो कुछ करने में असमर्थ होता ही है। खुद के लिये भी कोई ऐसा कार्य नहीं कर पाता, जिससे उसे सन्तुष्टि का अनुभव हो। इसके अलावा यदि उससे दुख, तनाव या किसी समस्या के बारे में पूछा जाये तो फिर ज्ञात होता है, कि उसका पूरा जीवन ही समस्या ग्रस्त है, उसमें कहीं प्रसन्नता है ही नहीं। फिर मानव अपने दुःख, तकलीफ को मिटाने के लिये गुरू की शरण लेता है।
देखा जाये तो संसार का प्रत्येक व्यक्ति ही गुरू का आश्रय पाने के लिये भटकता है। गुरू के पास जाकर उसे दो क्षण की शांति का अनुभव तो होता ही है। और निरन्तर सम्पर्क में रहने से वह शीघ्र ही अपनी समस्याओं से निजात पा जाता है।
आपको आरती करके, भजन गाकर, नृत्य करके मानसिक संतुष्टि मिल सकती है, लेकिन आपके जीवन की जो मूलभूत आवश्यकतायें हैं, वे पूर्ण नहीं हो सकेंगी। उनको पूरा करने के लिये आपको स्वयं साधना और दीक्षा के मार्ग पर गतिशील होना पड़ेगा, आपको उस मार्ग पर गतिशील होना पड़ेगा, जहां आपको अपने गुरू की चेतना से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने का सुनिश्चित उपाय मिले। और इसके लिये आवश्यक है कि आप जिस मार्ग पर गतिशील हों, वह श्रेष्ठ हो, सरल हो, सहज हो तथा आडम्बर रहित हो।
साधक के जीवन में सबसे आवश्यक और महत्वपूर्ण बात यह है, कि वह अपने घर में एक ऐसे वातावरण का निर्माण करे, कि लक्ष्मी खुद आने के लिये बाध्य हो जाये, अपने समस्त सहस्र रूपों में। किसी भी व्यक्ति को यदि सम्मान दिया जाये, उसका प्रेम पूर्वक स्वागत किया जाये, उसके मनोनुकूल व्यवहार किया जाये, तो वह अपना सर्वस्व समर्पित करता ही है। सही अर्थों में लक्ष्मी को स्थायी रूप से स्थापित करने का मास केवल श्रावण मास ही है क्योंकि भगवती लक्ष्मी ही पार्वती की स्वरूपा मानी गई हैं और सावन मास ही एक ऐसा मास जब भगवान शिव मां आद्या शक्ति के साथ भूमि भ्रमण के माध्यम से पृथ्वी वासियों को आध्यात्मिक चेतना के साथ-साथ आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने हेतु तत्पर एवं संलग्न रहते हैं। इसीलिये उनकी संज्ञा जगत पिता के रूप में दी गई है।
वस्तुतः कोई अभिभावक अपनी संतान के प्रति सदैव आशुतोष के समान शीघ्र प्रसन्न होने वाला ही रहता है। उसकी तो केवल यही स्पृहा होती है, कि उसकी संतान उससे कुछ मांगे तो सही। अपने माता-पिता से कुछ मांगना ही तो सूचक होता है, मांगना किसी भी प्रकार की याचना नहीं होती, मांगना और आग्रह करना तो बस एक क्रिया होती है। भगवान शिव स्वरूप पूज्य सद्गुरूदेव की अपेक्षा भला और कौन हो सकता है जो क्षण मात्र में आपकी कामना पूर्ण कर सकता हो अथवा आपकी समस्याओं का निराकरण कर सकता हो?
जीवन की सभी विसंगतियों को समाप्त कर अक्षुण्ण धन लक्ष्मी प्राप्ति जीवन निर्माण की क्रियायें 29-30 अगस्त श्रावणी पूर्णिमा के दिव्य अवसर पर उगना महादेव की तपोभूमि पर शिव शक्ति लक्ष्मी वृद्धि साधना महोत्सव मधुबनी बिहार में सम्पन्न होगी। जिसमें साधक अपने सांसारिक जीवन के मूल तत्व लक्ष्मी की प्रकाशमय चेतना से प्रकाशित होकर गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्यों को पूर्ण करने की ऊर्जा प्राप्त कर सकेंगे।
अवश्य ही वे शिष्य सौभाग्य शाली हैं जिन्हें श्रावण मास की पूर्णता और रक्षा बंधान के तेजमय स्वरूप को पूज्य सद्गुरूदेव के सानिध्य में ग्रहण करने का अवसर प्राप्त होगा। इसी हेतु श्रावण मास के प्रारम्भिक 02, 03 अगस्त और 13,14,15,16,17 अगस्त इन सात दिवसों में श्रावण मास को पूर्ण रूप से धारण कर जीवन में आनन्द रस, प्रसन्नता, चेतना, अमृत, धन, यश, सुख, समृद्धि से अपने परिवार को शिव-शक्तिमय स्थितियों से युक्त कर सकें। ऐसा ही इन सप्त दिवसों में दीक्षा, हवन, साधना, स्वःरूद्राभिषेक की क्रियायें दिल्ली सिद्धाश्रम धाम में सद्गुरूदेव जी के सानिध्य में सम्पन्न होगी। इस हेतु आप सपरिवार आयें तो गुरू-शिष्य के बीच रक्षा बंधन का पर्व पूर्णता से सम्पन्न कर निश्चिन्त रूप से जीवन के भौतिक सुखों को श्रेष्ठता से भोग सकेंगे।
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