रोग की मारक शक्ति प्रायः जीवनी शक्ति पर आधारित रहती है। जीवनी शक्ति या अंगों की परिपुष्टता आयु के साथ क्षीण होती जाती है। अतः पहले चक्र में कम और तीसरे चक्र में सबसे अधिक होती है। यदि जीवनी शक्ति बनी रहे, तो शरीर में अमृत तत्त्व शरीर को बचाये रखता है। कर्म-संस्कार-कर्मफल की त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति जीवन काल में हो लेती है और वासना के माध्यम से अगले जन्म के लिये बचे रहते हैं। ग्रहों के फल सूचनात्मक होते हैं और उनके द्वारा उत्पन्न अशुभ प्रभाव मनुष्य पर आधिभौतिक, आधिदैविक और आधिअध्यात्मिक रास्तों से आते हैं।
आधिभौतिक शारीरिक स्तर पर चोट के रूप में, आधिदैविक मन के स्तर पर और आध्यात्मिक संस्कारों (धार्मिक विश्वासों) के माध्यम से शरीर को आक्रान्त करते हैं। आधिभौतिक, आधिअध्यात्मिक और आधिदैविक दुःखों का निश्चय जन्म कुण्डली के ग्रहों की स्थिति द्वारा होता है। इस लेख का उद्देश्य ही इनका विवेचन है, जिससे यह ज्ञान हो कि क्या-क्या रोग होगा, उनका सही उपचार हो पायेगा या नहीं अथवा कब होगा का ज्ञान ग्रहों के भ्रमण (गोचर) से होता है। दशा पद्धतियां लाघव पद्धति की अशुद्धियों और सौरमण्डल में आकस्मिक परिवर्तनों के कारण अशुद्ध हो गई है। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहो को रोगों का, शरीर के अंगों का कारकत्व दिया गया है। स्वयं का शरीर सूर्य के तीन कारकत्वों में से एक है।
चन्द्रमा को मन का कारक तत्व दिया गया है, मंगल शरीर की शक्ति व उतावलेपन का, बुद्धि का द्योतक है, कामवासना का कारक तत्व शुक्र को मिला है, शनिश्चर दुखों, रूकावटों, गरीबी का कारक है, राहु, केतु का कारक तत्व शनि की स्थिति पर निर्भर रहता है। शनि, मंगल का असर ज्योतिष ग्रन्थों में बताया गया है, शुभ ग्रहों के फल का हरण शनि, मंगल और छाया ग्रह (राहु और केतु) करते रहते हैं। जन्मते ही बच्चे पर सूर्य का असर नहीं होता है, बच्चे का कमजोर, दूसरे पर आश्रित शरीर का यही द्योतक है। गोचर वश तभी शरीर में रोग की उत्पत्ति होती है।
मिथुन, कन्या, धनु या मीन राशि का सूर्य यदि षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश हो या सूर्य पर क्रूर मंगल और पापी शनि (राहु या केतु) की दृष्टि हो, तो जातक क्षय रोग से पीडि़त होता है। यदि कर्क राशि के सूर्य पर पाप प्रभाव हो, तो जातक का शरीर जर्जर व कमजोर होता है। उसकी आंखे भी रूग्ण होती हैं।
यदि सूर्य और क्षीण चन्द्र साथ-साथ हों, सिंह या कर्क राशि में या एक दूसरे की राशि में हों या किसी और राशि में हों, तो क्षय रोग और आंखो की पीड़ा की सम्भावना होती है, बदन कृश होता है। यदि सूर्य, शनि की राशि में हो (खास कर कुम्भ राशि में) तो जातक हठी, कलह से दुखी होता है। सूर्य पर मंगल का असर जातक को दीनहीन बनाता है, यदि मंगल अशुभ हो तो।
मंगल का सम्बन्ध खून-खराबे से है। सूर्य का सम्बन्ध भी खून से है, जब मंगल का अधिपत्य आठवें या बारहवें या तीसरे (या ग्यारहवें) भाव में हो और ऐसा मंगल, सूर्य से कैसा भी सम्बन्ध बनाता हो, तो जातक को चोटें लगती हैं। इस सम्बन्ध से दुर्घटनायें होती हैं। यदि जन्म कुण्डली में सूर्य मंगल सम्बन्धित हों और उन पर शनि या राहु या केतु की दृष्टि पड़ती हो, तब शरीर में बीमारियां अवश्य होती हैं।
सूर्य, शनि का सम्बन्ध अनेक विपदाओं का द्योतक है तथा दुःख का कारक है। जिस भाव में यह संयोग होता है, उसी भाव के कारकत्व का नाश करता है। अशुभ भावो में पड़ा यह योग शुभ न होकर विपत्ति का कारण बनता है तथा जेल यात्रा भी करा देता है।
चौथे भाव में सूर्य शुभ फल नहीं देता है। चौथे भावस्थ सूर्य का मंगल, शनि से समसप्तक हो, तो अंग-भंग निश्चित होता है, चाहे लड़ाई के मैदान में चाहे डाक्टर के छुरे से। यदि चौथे भाव में बैठा सूर्य, मंगल से समसप्तक बनाये और उस पर क्षीण चन्द्र की दृष्टि हो, तो फांसी से मृत्यु होती है। यदि इस समसप्तक पर (सूर्य पर ) शनि की दृष्टि हो, तो डण्डों की मार से मृत्यु की सम्भावना होती है। आंतों और गुदा रोग छठे भाव में शनि से दृष्ट या सम्बन्धित सूर्य देता है।
मंगल शारीरिक शक्ति का परिचायक है। वैश्वानर अग्नि, पाचन शक्ति, ओजस, प्रभावशाली व्यक्तित्व का सम्बन्ध मंगल से है। इसका अमल नाभि चक्र (मणिपुर चक्र) पर है। मंगल पर सूर्य और शनि, राहु या केतु का असर चोट, खून का स्राव (स्त्रियों का मासिक धर्म भी) झगड़ों को जीवन का अंग बना देता है।
शुक्र, मंगल का दुश्मन है, परन्तु जातक जिसकी कुण्डली में मंगल नष्ट हो, तब शुक्र से भी स्त्रियोचित सुख नहीं पाता है। इस प्रसंग में मंगल, शुक्र का पूरक है। परन्तु यही मंगल जब पाप प्रभाव युक्त होकर शुक्र से सम्बन्ध बनाता है जातक को यह, हठ, चरित्रहीनता, पैशाचिकता आदि की ओर धकेलता है। मंगल पर बुध का या बुध पर मंगल का असर होने पर बुद्धिहीनता आती है। यही संयोग दाम्पत्य जीवन को दुखी बना देता है, यथा पाप असर वाला कन्या का मंगल। कुम्भ का मंगल सन्तान को न्यून करता है। चन्द्र, मंगल का संयोग जातक को भावुक बना देता है और चन्द्रमा, मंगल पर शुक्र या बुध का असर भावुकता को हैवानियत में बदलता है।
कमजोर मंगल गृहस्थी को बर्बाद करता है। कमजोर सूर्य, मंगल और शनि जातक के शारीरिक सुख को छीन लेते हैं। चन्द्रमा मन का कारक है आधिदैविक दुखों से इसका सम्बन्ध है। सूर्य का असर शरीर पर गहरा और अधिक समय तक रहता है।
राहु जितना सूर्य के निकट होगा, उतना ही अशुभ एवं पापी होगा सूर्य के निकट होने पर केतु में राहु का अशुभ एवं पापी होगा। मृत आत्माओं के असर में ला देता है। यही पिशाच पीड़ा का द्योतक है।
इस असर के परिलिक्षित होने के लिये आवश्यक है कि सूर्य चन्द्रमा, राहु या केतु 60 अंश के अन्दर हों तथा एक दूसरे की तरफ बढ़ रहें हो। क्षण-प्रतिक्षण का योग ग्रहों की गति पर ही निर्भर करता है। यदि ग्रह प्रतिकूल दृष्टि भाव में स्थिति हैं तो व्यक्ति का जीवन तहस-नहस हो जाता है और वह दैविक, भौतिक और आध्यात्मिक रूप से बिखर जाता है। दिन-प्रतिदिन व्यक्ति संकटो से घिरता चला जाता है।
इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के लिये आवश्यक है कि वह समय-समय पर पूज्य सद्गुरूदेव जी से व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपने सभी प्रतिकूल ग्रहों को अनुकूल बनाने हेतु शक्तिपात दीक्षा व साधना सम्पन्न करते रहें। जिससे नवग्रहों के मूल शुभत्व भाव को आत्मसात कर सम्पूर्ण सुख, वैभव, काम शक्ति, रोजगार, आरोग्यता, पूर्ण आयु से परिपूर्ण हो सकें और सभी प्रकार की शुभ स्थितियां भी निर्मित हो सकें।
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