यदि व्यक्ति में संतुष्टि का भाव जाग्रत हो जाये, तो उसके आत्मबल में वृद्धि होनी सुनिश्चित है और वह कठिन से कठिन कार्य को सरलता पूर्वक सम्पन्न कर सकता है। और यदि अपनी योग्यता से निराश हैं, धनहीनता से दुखी हैं, बाधाओं से परेशान हैं, असफलता के कारण नकारात्मक विचारों से ग्रस्त हैं, तो जीवन मे श्रेष्ठता नहीं आ सकती। क्योंकि मानव जीवन है ही संघर्ष करने के लिये और व्यक्ति निराश, दुखी, परेशान, नकारात्मक चिंतन युक्त होगा तो ना ही संघर्ष कर पायेगा और ना ही श्रेष्ठता आ पायेगी। संघर्ष करने के लिये आत्मशक्ति की आवश्यकता है, जो संतुष्ट होने पर स्वाभाविक रूप से प्राप्त कर सकते हैं, आज मेरे पास 100 रूपये हैं, तो मैं दो रोटी-सब्जी खाकर उसी में संतुष्ट हूं। अब तुम्हारे पास 100 रूपये ही हों और पनीर खाना हो, पनीर मिलता है 150 रूपये में, फिर व्यक्ति सोचने लगता है कि भगवान ने तो मुझे जीवन ही ऐसा दिया, बिल्कुल गरीब बना दिया, पनीर भी नही खा सकते, ऐसा जीवन नहीं दिया होता तो भी ठीक था। ऐसे व्यर्थ के चिंतन से पनीर आयेगा नहीं, ना ही श्रेष्ठता आयेगी। साधारण भोजन कर भी तम्हारी भूख समाप्त हो जायेगी, तुम संतुष्ट हो सकते हैं और संतुष्ट होने से भाव, चिंतन, विचार शुद्ध होंगे, इष्ट के प्रति श्रद्धा, निष्ठा में वृद्धि होगी, कर्म शक्ति और आत्मशक्ति से आपूरित होंगे जिससे निश्चित ही तुम श्रेष्ठता प्राप्त कर सकोगे।
स्वयं को श्रेष्ठ बनाने का हर सम्भव प्रयास जारी रखो, उसमें कहीं से भी न्यूनता ना आये, साथ ही निरन्तरता बनी रहे। यह जीवन का मूल्यवान सूत्र है। लेकिन तुम करते क्या हो, सिर्फ और सिर्फ दूसरों की बुराई और कमियां ढूंढते हो, यही करने में तुम्हारा जीवन निकला जा रहा है, कुछ प्राप्त नहीं कर सके। यदि अपने स्वभाव में परिवर्तन नहीं लाये तो कुछ प्राप्त भी नहीं कर पाओगे। सद्गुरुदेव निखिल पूर्ण हैं, समर्थ हैं, तुम्हारी भौतिक, आध्यात्मिक इच्छाओं को पूर्ण करने में, पर पहले तुम उनके चिंतन, ज्ञान, आदर्श को अपने जीवन में धारण तो करो, उनके द्वारा बताये गये पथ पर अग्रसर तो हो। सद्गुरुदेव ने सिद्धाश्रम परिवार का निर्माण ही शिष्यों के जीवन से अंधकार को समाप्त करने के लिये किया है। तुम ही प्रकाश से भयभीत हो, प्रकाश को भीतर आत्मसात नहीं कर रहे हो, क्योंकि यदि भीतर प्रकाश प्रवेश कर गया तो तुम्हारी निंदा करने की प्रवृत्ति का सर्वनाश हो जायेगा, विश्वासघात, छल, झूठ, ईर्ष्या, वासना और तुम्हारे अहंकार की मृत्यु हो जायेगी। फिर अनुभव कर सकोगे कि वास्तव में तुम्हारा अहंकार त्याग करने योग्य था। लेकिन प्रारम्भ में कष्टदायी होगा, स्वयं को दोषी मानना, स्वयं को कठघरे में खड़ा करना पीड़ादायी होगा। लेकिन यदि तुमने ऐसा किया तो वास्तविक रूप से तुम शिष्य कहला सकोगे, सद्गुरूमय, निखिलमय बन सकोगे। सिद्धाश्रम प्राप्ति के योग्य बन सकोगे।
एक ब्रह्मचारी ने विभिन्न विद्याओं का अध्ययन पूर्ण कर लिया। अब वह आत्मविद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहता था। इसलिये वह एक प्रसिद्ध ऋषि के पास समित्पाणि (शिष्यत्व स्वीकार करने के लिये प्रतीक स्वरूप यज्ञ के लिये लकडि़यां) लेकर आश्रम पहुंचा। ऋषि ने उसे आश्रम में रहने की आज्ञा दे दी। उसे वहां कई प्रकार के सेवा कार्य दिये गये। इसी प्रकार सेवा में कई दिन बीत गये लेकिन अध्ययन आरंभ ना हुआ। शिष्य के मन में शिक्षा को लेकर कई प्रकार की शंकायें उठने लगीं, कहां वह सर्वोच्च कही गयी आत्म विद्या प्राप्त करने आया था और कहां वह सांसारिक कार्यो के झमेले में पड़ गया, वह उदास रहने लगा।
एक दिन वह घड़ा लेकर पानी भरने तालाब पर पहुंचा, तो क्रोध और संताप से जल रहा था। उसने जोर से घड़ा रेत पर पटका और एक ओर बैठ गया। घड़े से आवाज आयी- बटुक, तुम इतना क्रोध और उतावलापन क्यों दिखाते हो? गुरु ने तुम्हें शरण दी है तो निश्चित ही तुम्हारी मनोकामना भी पूर्ण होगी। ब्रह्मचारी बोला- मैं यहां आत्मविद्या प्राप्त करने आया हूं और देखो मेरा समय दूसरों की सेवा में ही गुजर जाता है। घड़े ने कहा- सुनो मित्र, मैं पहले मिट्टी था, तब कुम्हार ने मुझे कूटा, गलाया और कई दिनों तक रौंदा। मुझे आकार दिया और भट्टी में तपाया। इन सबकी बदौलत मैं इस रूप में तुम्हारे सामने खड़ा हूं।
यदि तुम भी आगे बढ़ना चाहते हो, भट्टी के ताप से घबराना नहीं, बस अपने कर्म में लगे रहना। कठिनाइयों को देखकर भयभीत नहीं होना, सद्गुरु रूपी चेतना जीवन के प्रत्येक पथ पर तुम्हारे साथ है, बाधाओं से विचलित नहीं होना, न ही कभी निराश होना, धैर्य, साहस और अपनी पूरी क्षमता के साथ अपनी समस्याओ से संघर्ष करना, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि यदि तुमने ऐसा किया तो निश्चित तुम अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर सकोगे। जिनकी संकल्प शक्ति प्रबल है वे प्रगति, सफलता को गुरु कृपा से अपने अधीन करते ही हैं।
शिष्य के जीवन का आधार तत्व ही गुरु कृपा है, जो निरन्तर-निरन्तर ब्रह्माण्डीय शक्ति द्वारा प्रवाहित है, कोई भी व्यक्ति बिना कृपा के प्रगति नहीं कर सकता। उसे प्रगति पथ पर गुरु कृपा, ईश्वरीय कृपा की आवश्यकता होती ही है। लेकिन बिना कर्मशील हुये कृपा की पवित्रता को धारण नहीं किया जा सकता। याद रखो जीवन में श्रेष्ठता और सफलता वही प्राप्त कर सकता है, जो क्रिया शक्ति को जीवन में पूर्णता के साथ आत्मसात करता है। अकर्मणय व्यक्ति निराशा व असफलता से घिरा होता है तथा उसके स्वयं के जीवन में और परिवार में किसी भी प्रकार की समृद्धि नहीं आती। कर्मयोग ही भौतिक और आध्यात्मिक जीवन की मूलभूत पूंजी है। गुरु मार्ग बताता है, गुरु उंगली पकड़कर चलना सिखाता है, एक आत्मविश्वास जगाता है। यह विश्वास ही जीवन का सम्बल और आधार बनता है जिसने भी इस आधार को धारण किया वह लक्ष्य तक अवश्य पहुंचा। गुरु की डांट, फटकार सहने वाला ही आनन्द, पूर्णता प्राप्त करता है। गुरु हमेशा शिष्य को सन्मार्ग दिखाता है, उसे उर्ध्वता की ओर अग्रसर करता है।
एक महात्मा बैठे थे। तभी उनके पास एक भक्त आया, कुछ देर ठहरने के पश्चात् जाने की आज्ञा मांगी, महात्मा ने कहा थोड़ी देर रूको, वह रूक गया। कुछ देर बाद उसने फिर आज्ञा मांगी महात्मा ने फिर उसको रूकने को कहा, बिना किसी कारणवश बार-बार रूकना भक्त को उचित नहीं लगा, गुरु की आज्ञा के बिना वह एक खेत के पास से जा रहा था जिसमें कुछ लोगों ने गुड़ बनाने के लिये एक कड़ाहा लगा रखा था उसके नीचे आग जला रखी थी। मजदूरों ने कड़ाहा को ढ़का हुआ था। खेत से गुजरते समय भक्त को ध्यान नहीं रहा कि सामने ढ़का हुआ कड़ाहा रखा है। वह जल्दी में था इसलिये कड़ाहे में जा गिरा। गर्म कड़ाहे में गिरने से वह कमर तक आग से झुलस गया। बड़ी मुश्किल से उसे कड़ाहे से बाहर निकाला गया। कई दिनों तक उसका इलाज चलता रहा, पर देह से पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाया।
इसी तरह शिष्य गुरु-आज्ञा के बिना आगे निकल जाते हैं, इसलिये उनका जीवन मुसीबत से घिर जाता है। गुरु को तो यह ज्ञात होता ही है क्या होने वाला है? वह संकेत भी करते हैं, जिससे शिष्य को हानि ना हो। गुरु तो प्रत्येक मुसीबत से बचाना चाहते हैं, लेकिन जब शिष्य ही डूबना चाहे तो उसे कैसे बचा सकते हैं। गुरु तो प्रत्येक क्षण अपने शिष्यों के जीवन की रक्षा करते हैं, लेकिन शिष्य ही अपने आपको ज्यादा अक्लमंद समझने लगते है। इसलिये मुसीबत में घिर जाते हैं। जब गुरु मान लिया जाता है तो उन पर विश्वास भी करना चाहिये। जब तक समर्पण नहीं किया जाता तब तक विश्वास दृढ़ नहीं होता। समर्पण से अंहकार मिटता है और जब अहंकार मिटता है तब ही गुरु की सामीप्यता स्पष्ट होती है। यह विशेष नवीन संस्करण अंक प्राप्त होने तक तुम सभी गुरू पूर्णिमा और श्रावण मास के आनन्द, आह्लाद से सराबोर होगे।
गुरु पूर्णिमा की स्मृति तुम्हारे मानस में अभी दृश्यमान होगी, तुम्हें गुरु की सामीप्यता का आभास हो रहा होगा। यही एक जीवन्त गुरु का परिचय है, जिनके सामीप्यता से ही हृदय में हलचल उत्पन्न होने लगती है, जिनके स्पर्श से जीवन में उथल-पुथल मचने लगता है, गुरु की सानिध्यता प्राप्त कर तुम अपने जीवन में निश्चिंतता का अनुभव करते हो। यही गुरु-शिष्य के जीवन्त सम्बन्धों का प्रमाण है। ऐसे ही आनन्द, उल्लास, आह्लाद के लिये तुम्हे आवाज देता हूं, तुम्हे अपना सामीप्य देने के लिये, तुमसे बात करने के लिये, तुम्हे मार्गदर्शन देने के लिये, दीक्षा देने के लिये बुलाता हूं। जिससे गुरु-शिष्य का सम्बन्ध शाश्वत बना रहे। जिससे तुम्हारे जीवन मे किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थिति ना आ सके और तुम अपने जीवन को सही मायने में पूर्णिमा युक्त बना सको। वास्तव में पूर्णिमा का तात्पर्य ही पूर्ण होने की क्रिया है। गुरु तो पहले ही पूर्ण होते हैं, यह पूर्णिमा तो आती ही है शिष्य को पूर्णता प्रदान करने, गुरु रूपी सागर में नदी रूपी शिष्य विलीन होकर पूर्ण होता ही है। यही गुरु पूर्णिमा का भाव चिन्तन विश्वास, श्रद्धा, समर्पण, सेवा के माध्यम से जीवन्त स्वरूप में आत्मसात करो। यही पूर्णता तक पहुंचने का मार्ग है।
पत्रिका का यह नवीन संस्करण तुम्हारे ही प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा का स्वरूप है। जो विशालता की ओर अग्रसर है, निश्चय ही अपने पत्रिका परिवार की वृद्धि को अनुभव कर तुम्हें प्रसन्नता होगी। जिस प्रकार तुम सभी अब तक अपने संगठन, अपने सद्गुरुदेव के लिये क्रियाशील रहें, इसी प्रकार तुमको आगे भी सद्गुरुदेव के चिन्तन को साकार रूप देने के लिये निरन्तर कार्यरत रहना होगा। गुरु के जीवन की अमूल्य पूंजी उसके शिष्य ही होते हैं, यही पूंजी गुरु के जीवन का आधार होता है, इसलिये ध्यान रखना तुममें निष्क्रियता की झलक भी ना आने पाये। तुम्हारी सक्रियता इस संगठन की शक्ति है, हमारा लक्ष्य निखिल उपवन का विस्तार करना है। यही सद्गुरुदेव की आज्ञा है, मुझे पूर्ण विश्वास है तुममें स्नेह, प्रेम और अधिक तेजस्विता आयेगी और तुम पूर्व से अधिक क्रियाशील हो कर तीव्रता के साथ अपने पत्रिका परिवार का विस्तार करोगे।
सद्गुरुदेव का चिन्तन, ध्यान करते रहो—–क्रियाशील व कर्मयोगी बनो——-यही शुभाशीर्वाद् है !
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