अपने कार्यों में, अपनी साधना में तन्मय होकर गतिशील रहे तथा इधर-उधर की अनर्गल बातों में अपना ध्यान न बंटायें वही देव रूपी मनु है। मनुष्य के लिये अनेक नियम होते है उसे दो बातें सदैव स्मरण रखनी चाहिये। पहली अपने लक्ष्य की ओर सदैव ध्यान रखें तथा दूसरी व्याकुलता तथा आर्तभाव होने पर ऊब कर साध्य को त्याग देना ही मनुष्य की कमजोरी होती है।
मंत्र जप, पूजा या साधना का अभ्यास करते-करते अपनी बुद्धि को धैर्य युक्त बनाने का प्रयास करते रहे तथा साधना के बीच में ही विचलित होकर अथवा ऊब कर कि अब शायद हम सफल नहीं हो पायेंगे छोड देना उचित नहीं होता। साधक केवल चलना जानता है वह बार-बार सवाल नहीं करता कि अभी कितनी दूर है या कब तक सफलता मिलेगी वह दूरी से घबराकर अपनी साधना को बन्द नहीं करता। साधना में सफलता में देरी साध्य की, भगवान की परीक्षाओं के कारण भी हो सकती है जैसे एक दृष्टान्त है कि –
एक बार एक व्यक्ति जंगल में रास्ता भटक कर एक महात्मा के आश्रम में जा पहुंचा उस समय महात्मा वहां नहीं थे, उनका शिष्य वहां था वहीं पर एक बड़ी शिला भी थी जिस पर तीन गड्ढे पडे हुये थे। उन गड्ढों को देख कर उस व्यक्ति ने उत्सुकतावश उस शिष्य से पूछा कि इस शिला में ये गड्ढे के निशान कैसे है? तो उसने बताया कि ये गड्ढे महात्मा के प्रति दिन की नमाज करने पर सिर तथा घुटनों के शिला पर रगड़ लगने से बन गये है, वे प्रतिदिन इसी शिला पर नमाज अदा करते है।
तभी आकाशवाणी होती है कि खुदा इसकी बन्दगी से प्रसन्न नहीं है, यह सुनकर वह व्यक्ति रोने लगा तभी महात्मा जी वहां आ गये और उन्होने पूछा, आप क्यों रो रहे हो? तो उस व्यक्ति ने कहा- जब खुदा तुम्हारी इतनी कठिन तपस्या से भी प्रसन्न नहीं है कि तुम्हारी बन्दगी से शिला में निशान पड़ गये हैं तो मेरा क्या हाल होगा? मैं तो कभी उसका नाम भी नहीं लेता हूँ, यह बात सुनकर महात्मा जी बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे कि क्या तुमने सचमुच खुदा को ये कहते हुए सुना है, क्या उनकी वाणी तुम्हारी कानों मे पड़ी है कि वे मेरी बन्दगी से खुश नहीं है। वह व्यक्ति बोला कि हां मैने स्वयं सुना है तभी तो मैं इतना दुखी हूँ।
तब महात्मा ने प्रसन्न होकर पुलकित होते हुए कहा कि मेरे लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात क्या हो सकती है कि खुदा को यह तो पता लगा कि मैं उसकी बन्दगी करता हूँ। इतना ही मेरे लिए पर्याप्त है, उसको मेरा सन्देश तो पहुंचा, मेरा नाम कम-से-कम उसके होठों पर तो है, वह खुश हो या नहीं, मैं तो यह रगड़ अब लगाता ही रहूंगा, उन्हे ये तो पता लग ही चुका है कि मैं रगड़ लगा रहा हूँ, बस मेरा काम हो गया। तभी दूसरी आकाशवाणी हुई, ऐ महात्मा! हम तेरी बन्दगी पर अति प्रसन्न है।
उस व्यक्ति ने सोचा कि इतनी सी देर में भगवान कैसे खुश हो गये, तो उत्तर आया कि इस महात्मा के धैर्य से मैं अति प्रसन्न हुआ हूँ इसके मन में इतना अधिक विश्वास है कि भगवान जब चाहे मिले या नहीं मिले उनकी इच्छा। परन्तु मैं भगवान की बन्दगी करने से, भक्ति करने से, अपनी साधना से, बिल्कुल भी मुख नहीं मोडूंगा, इतने से ही काम हो गया। अर्थात यदि वह महात्मा उस व्यक्ति के कहने पर आकाशवाणी को दूसरी प्रकार विचार करते कि इतनी मेहनत करने पर भी जब भगवान खुश नहीं है तो मैं बन्दगी क्यों करूं? मैं साधना क्यों करूं, तो क्या भगवान खुश होकर उसे मिल पाते।
अतः साधक को अपने अन्तिम लक्ष्य तक साधना में विश्वासपूर्वक लगे रहना आवश्यक है। उसे यह सब नहीं देखना है कि मार्ग में कोमल पुष्प बिछे है अथवा कांटे। मार्ग में सभी प्रकार सन्ताप जगाना होता है, एक आग लगानी होती है कि भगवान कैसे प्राप्त हो, जब तक उसके प्राणों में एक हाहाकार नहीं मच जाता, उसके प्राण आकुल नहीं होते वह तब तक ही इधर-उधर देखता है तथा आज कितनी माला फेर ली, कितना जप हो गया इसका हिसाब रखता है, लेकिन जब उसके प्राण मिलन के लिए तड़प उठते है अपने प्रियतम से मिलने को तो फिर वह कुछ भी आराम या कष्ट को नहीं देखता वह कुछ भी मूल्य चुकाकर उसे प्राप्त करने की आकांक्षा रखे ऐसा ही साधक बनने की कोशिश करें।
जब कोई साधक साधना के पथ पर चलने के लिए तैयार होता है तो गुरू भी उसकी परीक्षा लेते है, उसे प्रलोभन देते है तथा डराते भी है। उसका निश्चय तथा लक्ष्य भाँपकर ही उसे मार्ग दिखाने के लिए तैयार होते है यदि साधक इन प्रलोभनों में आ जाता है तो वह अपनी साधना से पदच्युत हो जाता है। भय भी दिखाते है तथा भयभीत होकर जो साधना मार्ग से हट जाता है वह भी कुछ प्राप्त नहीं कर पाता। इस सम्बन्ध में भक्त ध्रुव की कथा बहुत सुन्दर है- ध्रुव जब छोटे बालक थे तो उनकी विमाता ने उसे पिता की गोद से उतार दिया तथा कहने लगी भगवान को याद कर अगर तू मेरी कोख से पैदा हुआ होता तो इस गोद में बैठने लायक होता। तो ध्रुव ने अपनी माता से जाकर पूछा कि मुझे क्यों उतारा तो माता ने कहा- बेटा! यह सच है कि तुम्हें पहले भगवान को ही याद कर पिता के गोद में बैठना था अतः तुम भगवान की गोद में बैठने के लिए उनकी तपस्या करो।
और ध्रुव ने निश्चय कर लिया कि मुझे भगवान की गोद में बैठना है और निश्चय करते ही भगवान को भी पता लगना ही था क्योंकि वे अर्न्तयामी है ही। उन्होनें तत्काल नारद जी को ध्रुव की परीक्षा लेने के लिए उसके पीछे वन में भेज दिया। और नारद जी ध्रुव से बोले- बालक! इस घने वन में कहां जा रहे हों? तब ध्रुव ने सभी घटना क्रम बता दिया।
नारद जी ने कहा- बेटा! तुम वापस अपने घर चलो मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से तुम्हारा हक, तुम्हारा राज्य दिलवा दूंगा और उनके गोद में बैठने का अधिकार भी दिलवा दूंगा। तब ध्रुव ने कहा-मुझे तो भगवान की गोद में ही बैठना है अब वही मेरे सच्चे पिता है जो भी लूंगा उन्हीं से लूंगा तब नारद जी ने उन्हें भय दिखाया कि बेटा जंगल में भयानक जानवर आदि है, भूत-प्रेत आदि है, वे सब तुम्हें खा जाएंगे, वहां कोई खाने-पीने की भी व्यवस्था नही है तथा भगवान का भी कोई पता ठिकाना नहीं है, तुम एक बार फिर सोच लो तब ध्रुव ने कहा कि मैं अवश्य जंगल में तपस्या करने जाऊंगा या तो भगवान की गोद में बैठ जाऊंगा वरना जंगली जानवरों की भेंट चढ़ जाऊंगा।
यह सुनकर नारद जी ने देखा कि यह तो सच्चा साधक है यह किसी भी भय या प्रलोभन में नही आया, तो उन्होने उसे भगवान का मंत्र प्रदान कर दिया, उन्होंने कहा तुम जाकर ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जप करो। मंत्र जप करते-करते भी विघ्न आते है और साधना के बीच में सुन्दर रूपों मे भी विघ्न आते है, ऐसा ही अनुभव ध्रुव के बारे में भी है। ध्रव के सामने भी मायारूपी सुनीति मां बनकर आई और ध्रुव को पुकारने लगी बेटा! शीघ्र वापस आ जाओ, मैं बड़ी दुखी हूँ, उन्हें विचलित करने का प्रयास किया, लेकिन ध्रुव अटल रहे और छः महीने के अन्तराल में ही उस बच्चे ने भगवान की गोद में स्थान पा लिया।
विभिन्न देवता अथवा आकाशचारी निम्न देवता भी इष्ट के भेष में आकर विघ्न उन्पन्न करते है प्रलोभन भी देते है अतः साधक किसी भ्रम में न पड़े कि यह तो साधना की सिद्धि मिल रही है आगे और भी मिलेगी। साधक को अपने अनुभव की बातें शेखी में आकर दूसरों से नहीं कहनी चाहिए। इससे उनका अनुभव आना बन्द हो जाता है, और उन्हें पुनः कुछ समय तक चेष्टा करनी पड़ती है तभी अनुभूति हो पाती है। अपनी प्रशंसा पाने के लिए हम दूसरों के सामने अपनी अनुभूति बताकर विघ्नों को आमंत्रित करते है। इन सबसे साधक को किनारा करना चाहिए।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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