





निरपेक्ष, निर्विकार, सभी जिस पर निर्भर हैं, जो शांति और विस्तृत ज्ञान रूप है, जिसमें किसी प्रकार का कोई क्षोभ नहीं पैदा होता, ऐसा चैतन्य रूप है तेरा, इसलिये तू उसमें, अपने सच्चे स्वरूप में निवास कर, स्थित हो।
चैतन्य रूप में स्थित हो। संसार की जड़ वस्तुओं में रहते हुये तुम यदि सोचो कि तुम्हें किसी की अपेक्षा नहीं होगी, तुममें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं आयेगा, तुम क्षोभ को प्राप्त नहीं होओगे, तो यह तुम्हारी अज्ञानता है। क्योंकि आत्मा ही परमचेतन है और जब तुम उसमें अवस्थित हो तो तुम्हें किसी की अपेक्षा नहीं रहेगी। तुम निर्दोष हो जाओगे, निर्भर हो जाओगे, विपरीत से विपरीत स्थितियां तुम्हें क्षुब्ध नहीं करेंगी। तुम ऐसे ही हो। तुम्हारा स्वरूप चेतनरूप ब्रह्म है, ऐसा जानते हुये चेतन में स्थित होओ।
जिसका आकार है उसे झूठा जान और जिसका कोई आकार नहीं, जो निराकार है, उसे निश्चल जान। यह जान कर वह चलायमान नहीं होता। इस तत्वोपदेश से फिर तेरा संसार में प्रवेश संभव नहीं है।
महर्षि अष्टावक्र बताते हैं कि- जब जगत का एवं आत्मा का स्वरूप हमें ज्ञात हो गया तथा हमने सत्य तथा असत्य को जान लिया तथा अच्छी प्रकार समझ लिया कि शाश्वत क्या है कौन है और यह भी जान लिया कि संसार में बार-बार आवागमन के चक्र में जो हमें चलाता है वह कौन है, तो यही वह तत्व है जिसे जानने के हेतू ही हम जन्म लेते है तथा उसी तत्व को जानने के पश्चात् तुम्हारे जन्म लेने की संभावना ही क्षीण हो जायेगी और जन्म मरण के चक्र से सहज रूप से मुक्त हो गये।
जिस प्रकार दर्पण में चेहरे का प्रतिबिम्ब आता है, बाहर भी और भीतर भी, उसी प्रकार वह परमात्मा सभी शरीर की नाडि़यों के भीतर और बाहर विराजमान है। इस श्लोक में महर्षि जनक को समझाते है कि इस जगत में भी जगह खाली नहीं है जहां जो प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है वह सत्य नहीं है वास्तविक बिम्ब के बिना। क्योंकि सत्य तो बिम्ब है जिसका प्रतिबिम्ब दर्पण में दिखलाई पड़ता है यदि बिम्ब नहीं होगा तो प्रतिबिम्ब कैसे दिखेगा इसी प्रकार यह प्रतीति जगत किसी भी रूप सत् नहीं है। इसमें सत् स्वरूप बिम्ब ही व्याप्त है प्रतिबिम्ब का बिम्ब के बिना कोई औचित्य नहीं है।
जिस प्रकार सर्वव्यापक आकाश घट के बाहर और भीतर व्याप्त है, उसी प्रकार वह ब्रह्म भी सदैव ही इस विश्व के बाहर और भीतर व्याप्त है। इस जगत में ओत-प्रोत है। महर्षि एक और दृष्टान्त देकर समझाते है घटाकाश, मठाकाश और महाकाश का। जिसमें कोई उपाधि नहीं है वह महाकाश है तथा महल के अन्दर यदि कोई घट रखा हो तो उसके भीतर के आकाश को घटाकाश कहा जायेगा। इस मठ और घट आदि उपाधि से अलंकृत आकाश का व्यवहारिक प्रयोग करने से महाकाश को एक तो कोई अन्तर नहीं पड़ता दूसरे वही तो घट और मठ के भीतर और बाहर दोनों जगह व्याप्त है। यदि और गहरे में विचार करें तो घट-मठ की परिधि के कण-कण में भी वही आकाश व्याप्त है। इसी प्रकार वह ईश्वर सभी जीवों के अन्तर में तथा बाहर भी विद्यमान है।
एक जले हुये दिये के पास जाने पर प्रत्येक दिया प्रज्वलित नहीं होता उसे भी तैयारी करनी होती है। तेल भरना होता है, बाती बनानी पड़ती है और उसे अग्नि देना होता है। और इस तैयारी के लिये जनक का दिया प्रज्ज्वलित होने के लिये तैयार था। जिसकी तैयारी करने के लिये कभी-कभी तो कई जन्म बीत जाते हैं और अष्टावक्र एक प्रज्ज्वलित पुंज की भांति थे। जनक उनके पास पहुंच कर प्रकाशमय हो गये।
आश्चर्य की बात है कि गुरु मुख से प्रथम बार आत्म स्वरूप का उपदेश सुनते ही ज्ञान हो गया जिसे जन्मों-जन्मों से भुलाये बैठे रहा। ऐसा कैसे संभव हो पाया? हम सब भी तो भिन्न-भिन्न जगह, भिन्न-भिन्न गुरुओं के पास भटकते हैं। सुनते हैं। सानिध्य करते हैं। परन्तु फिर भी प्रज्ज्वलित नहीं हो पाते, खाली रहते है। प्रकाशित होने की अद्वितीय घटना हम में नहीं घट पाती तो हमारा सवाल दूसरों से यही होता है कि ऐसा क्यों परन्तु स्वयं से एक बार भी नहीं पूछते यदि स्वयं से यह प्रश्न करते तो जवाब अवश्य मिलता कि तैयारी नहीं है।
जनक की तैयारी थी तो वह उस यात्र में गुरु के संग गहराई में उतरते चले गये जहां पर शब्द गिर जाते हैं। कभी एक किनारा पकड़ में आता है तथा कभी दूसरा। कभी एक बात सही लगती है तो कभी दूसरी, फिर कभी मानो जो कहना चाहते हो वह कह नहीं पाते इसी लिये कहे गये में विरोधाभास नजर आता है विस्मय में जनक प्रतीत होते हैं जो सत्य था वह असत्य दिखता है, जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं था वही शाश्वत सत्य निकला।
आश्चर्य है! सभी दोषों से परे अर्थात् निरंजन, सभी प्रकार के विक्षेपों-विक्षोभों से परे, ज्ञानरूप मैं प्रकृति से, जो इस रूप में भासती है, पूर्णतया परे हूं, फिर भी जन्म- जन्मान्तरों के बाद भी मोह से (अज्ञान) छला जाता रहा। महर्षि अष्टवक्र द्वारा दिये गये ज्ञान को श्रवण कर राजा जनक भी पूर्णता को पाने में सफल हो गये जनक तो परम जिज्ञासु निकले वे तो तैयार थे, सद्गुरु ही अब मिले जो ज्ञान के रूप थे और जनक भी एक सच्चे श्रोता थे जिनने महर्षि को आत्मसात कर लिया जनक ने और फिर तो परिवर्तन हो गया, दृष्टिकोण बदल गया, दृष्टि भी बदल गयी और परम तत्व के दर्शन कर विस्मित हो गये कि यह क्या? ऐसी तो कल्पना स्वप्न में भी न की थी जिसको खोजते-खोजते कई जन्म बीत गये, वह कोई और नहीं मै स्वयं ही था जिस मणि को प्राप्त करने के लिये मैं एक हिरण की भांति इधर-उधर मंदिरों में, तीर्थों में, में भटकता फिरता था वह तो मेरे स्वयं के भीतर ही मौजूद है।
जनक को आत्म साक्षात्कार हो गया यह जन्मों- जन्मों की यात्र करनी पड़ी प्रकृति के धर्मों को स्वयं में आरोपित कर अकिंचन बनने का कारण मोह ही है इसके अलावा और कुछ नहीं। यह मोह ही है मनुष्य को अपने जाल में उलझाये रखता है तथा सदगुरु से, ईश्वर से विमुख कर देता है। तथा मनुष्य को ठगता रहता है। मोह ने जिसे जैसा दिखाया वह वैसा न था उसके विपरीत दिखाया सत्य को असत्य और असत्य को सत्य। जनक स्वयं को मोह से मुक्त मानते है।
जिस प्रकार मैं अकेला इस शरीर को प्रकाशित कर रहा हूं, उसी प्रकार इस जगत को भी। जो ज्ञान के वचन सद्गुरु अष्टावक्र द्वारा जनक को कहे गये उसके परिणाम से जो अनूभूति जनक को हुई कि शरीर तथा संसार में कोई भेद नहीं है। शरीर व्यष्टि है तो जगत समष्टि। जब दोनो एक ही है और उस परम तत्व से जैसे शरीर जीवित है उसी प्रकार यह जगत भी। तो या तो शरीर की तरह यह विश्व भी मेरा है अथवा फिर यह शरीर भी मेरा नहीं है। यदि मेरा पन (ममत्व) है जो यह सारा विश्व मेरा है और यदि ममत्व बाधित हो गया है, तो कोई भी अपना नहीं है- यहां तक कि यह शरीर भी नहीं, आत्मावलोकन से सब कुछ मेरा, मेरा स्वयं।
आश्चर्य है! शरीर के साथ विश्व का परित्याग करने के परिणाम स्वरूप, थोड़ी-सी कुशलता से (युक्ति को प्रयोग में लाकर) इस समय मुझे परमात्मा का साक्षात् दर्शन हो रहा है। किसी भी कुस्थिति से निपटने के लिये युक्ति से कार्य लेना पड़ता है यह युक्ति ही है जिससे सब प्राप्त किया जा सकता है भटकाव समाप्त हो जाता है और यह युक्ति सद्गुरु जानते है महर्षि अष्टावक्र जनक को युक्ति बताते है जिससे जनक को व्यष्टि शरीर और समष्टि शरीर को देखते हुये भी उसको दिखाई होता रहे। उसकी असलियत मालूम हो तो नाम-रूप में होने वाले परिवर्तन से सुख अथवा दुःख नहीं व्याप्त होते क्योंकि अब ज्ञान हो गया होता है कि परिवर्तन निश्चित है उसे रोकना असंभव है ऐसा होना उसकी प्रकृति है। जनक परिवर्तन के बारे में कहते है कि- अब मैं सक्षम हो गया हूं। जिससे शरीर और विश्व के अधिष्ठान रूप ईश्वर को देखा जा सकता है। क्रमशः अगले अंक में——!
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