प्रेम जीवन का अद्वितीय वरदान है मानव को, पर तुम्हारे चित्त पर वासना की इतनी अधिक पर्तें जम गई हैं, कि तुम वासना और प्रेम का अन्तर ही भुला बैठे हो।
गुरुत्व पद से श्रेष्ठ और कोई परम पद नहीं है, जिसे वेदों ने नेति-नेति कहा है, ऐसे गुरुत्व ही मन, वाणी और कर्म से नित्य आराधना करनी चाहिये।
श्रेष्ठ अद्वितीय युग-पुरूष की पहचान ही यह है, कि वह निरन्तर प्रेम के मानसरोवर में तैरता रहे।
हजारों वर्ष बाद कृष्ण ने इस प्रेम तत्व को धरती पर उतारा, और अद्वितीय युग-पुरूष बन गये।
आज फि़र मैं तुम्हें प्रेम का वसन्त भेंट करने आया हूं, मैं एक बार फि़र तुम्हारे होठों पर गुनगुनाहट बिखेरने के लिये आया हूं, मैं एक बार फि़र तुम्हारे अधरों पर प्रेम का नृत्य सम्पन्न कराने के लिये आया हूं।
प्रेम के द्वारा कुण्डलिनी जागरण, अनुभूति, साधना एवं इष्ट के साक्षात् जाज्वल्यमान दर्शन सहज सम्भव है।
जब तक तुम्हारे इस दग्धा शरीर पर करूणा की वर्षा नहीं होगी, वह सरस नहीं होगा, उस पर फ़ूल नहीं खिलेंगे, उसके पत्तों में सरसराहट गुनगुनाहट नहीं बिखरेगी।
जीवन का पहला और अन्तिम पाप है, – गुरु को धोखा देना, अपने आप को पतित करना और प्रभु की नजरों में भ्रष्ट कर देना।
जीवन का सौभाग्य है, कि गुरु प्राप्त हो, उनकी प्रियता मिले और उनके चरणों में समर्पण हो सके, समर्पित हो सकें।
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