इस बार सूर्य की महाज्योति पर प्रकाश डालने का मानस है। जिसे हम गायत्री महाशक्ति के रूप में भी जानते हैं, वास्तव में गायत्री महामंत्र सूर्य का ही मंत्र है। ‘‘गय’’ का अर्थ संस्कृति में ‘‘प्राण’’ और ‘‘त्री’’ का अर्थ ‘‘त्रण’’ होता है।
अर्थात् जो प्राणों का त्रण करती है, उसे गायत्री कहते हैं। त्रण का शाब्दिक अर्थ छुटकारा दिलाना होता, मुक्त करना होता है, तात्पर्य यह है कि हमारे प्राण शरीर की इन्द्रियों और उनकी विषय वासनाओं से पाशबद्ध होते हैं, उनके बंधन में होते हैं। अपने प्राणों को इस पाश बंधन से मुक्त कराकर उस चेतन तत्व से, बह्मत्व से जोड़ने की क्रिया गायत्री शक्ति है। सिकन्दर जब अरस्तु से विदाई लेकर हिन्दुस्तान आया तो अरस्तु ने पांच चीजें लाने के लिये कही थीं। अरस्तू ने कहा कि बेटा! जब लौटना तो पांच चीजें मेरे लिये लेकर आना। गऊ, गंगा, गीता, गायत्री और गुरु- ये पांच वस्तुये मेरे लिये लेकर आना। गाय अमृतत्व की प्रतीक है, गंगा पवित्रता का बोध कराती है, गीता श्रेष्ठ कर्म करने का चिंतन देती है, गायत्री सहस्त्र ऊर्जा का स्त्रोत है और गुरु ज्ञान का अक्षय भण्डार है।
गायत्री महामन्त्र का पाठ करने से वाणी पवित्र होती है, हृदय में शान्ति आती है, नीर-क्षीर विवेक की शक्ति जाग्रत होती है, शरीर में रोगो से लड़ने की शक्ति आती है, बच्चो की बुद्धि कुशाग्र होती है, उनकी स्मरण शक्ति सुदृढ़ बनती है। यह मंत्र एक संजीवनी शक्ति है, जिसका जप यदि प्रातः काल जब सूर्य अपनी लालिमा के साथ उदय होता है, उस समय किया जाये तो यह मंत्र अपार शक्ति का सृजन करता है, ऊर्जा का असीम स्त्रोत खोलता है, जिसके ताप से जीवन की सभी Negativity भस्मीभूत हो जाती है, पाप-ताप, दोष, भय, बाधा का शमन हो जाता है। रूद्राक्ष की माला से जप करने का अलग ही महत्व है, जिसके द्वारा सात्विक मनोचित्त बनता है, कुण्डलिनी शक्ति में प्रवाह की स्थितियां बनती हैं।
ऊँ का अर्थ है, वह परम शक्ति जो संसार को उत्पन्न करता है, पालन करता है और संहार करता है, जो सर्वव्यापक है, जहां तक हमारी दृष्टि, हमारी सोच, कल्पनायें जाती हैं, उस हर स्थान पर वह परम शक्ति विद्यमान है और केवल उसी के नियम चलते हैं।
भूः का अर्थ है कि जो इन प्राणों का प्राण है, ये जो हमारे प्राण चलते हैं, उसको जो शक्ति देती है, वह भूः है। 6 चीजे प्राण शक्ति का क्षय करती है, रोग, भोग, शोक, भय, चिन्ता और क्रोध ये जीवनी शक्ति को खाने वाली राक्षसी वृत्तियां हैं। प्राण शक्ति में वृद्धि और सुदृढ़ता के लिये प्राणायाम का उपाय बताया जाता है, प्राणों का व्यायाम ही प्राणायाम है। प्राण का एक हिस्सा इन्द्रियों से बंधा है, दूसरा मन से, जब हम प्राणायाम करते हैं, तो इन्द्रियां वश में आती हैं और मन पर संयम होता है। प्राणायाम केवल प्राण शक्ति में वृद्धि ही नहीं करता बल्कि साधक को अन्य लोक की सूक्ष्म शक्तियों से भी सम्पर्कित कराता है।
फिर आता भुवः, जिसका अर्थ है, जो मीठा होता है, जो दुखों, कष्टों को मिटाने वाला परमात्मा है, भुवः शक्ति से साधक के भीतर ऐसी शक्ति आ जाती है, जो उसे दुखों, कष्टों, बाधाओं से लड़ने की चेतना शक्ति प्रदान करती है, उसे यह भान हो जाता है, कि यह दुःख कहां से आ रहें हैं और वह उस रोग को ही काटने वाला बन जाता है, इसलिये इसे दुख विनाशक कहा जाता है।
और स्वः सुख स्वरूप है, इसमें भगवान को सुख स्वरूप कहा गया है, भगवान का तो स्वभाव है ही सुख प्रदान करने वाला। आग के सामने जितना हाथ करोगे, उतना ताप मिलेगा। इसी तरह ईश्वर के, गुरु के जितने करीब जाओगे, उतना ही दुख दूर होगा और सुख मिलता जायेगा।
तत्सवितुर्वरेण्यं इसमें भगवान को तत् कहकर पुकारा गया है। तत् का अर्थ हुआ वह, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है, जो अर्वचनीय है। तत्सवितुः और सवितुः का अर्थ है, उत्पन्न करने वाला, प्रेरणा देने वाला। इसलिये उसे सविता भी कहा गया, कहने का तात्पर्य परमात्मा की ऐसी अद्भुत शक्ति जो सबको प्रेरणा देकर आगे बढ़ने का बल प्रदान करती है।
सवितुर्वरेण्यम इसमें भगवान को वरेण्यम कहा गया है, वरेण्य अर्थात् वर, वर इसलिये कहा जाता है कि वह बहुतों में से चुना जाता है, जिसे हमने चुना है, जो सर्वश्रेष्ठ है, वह वर है।
अगला शब्द है भर्ग, भर्ग का अर्थ है, जो भीतर न्यूनतायें, खोट, बुराईयां है, इन सभी को जलाने वाला शक्ति भगवान है अर्थात् भर्ग है। भगवान को भर्ग कहा गया है। क्योंकि ईश्वर की शरण में पहली क्रिया स्वयं के दोषों का शमन ही होता है, जो भी खोट भीतर होगी, सबसे पहले वे ही जलाये जाते हैं। ‘भर्गो देवस्य’ देवस्य अर्थात देने वाला परमात्मा, दाता।
धियो यो नः प्रचोदयात् हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें। यदि बुद्धि के रथ के संवाहक भगवान बन जाये, मेरी बुद्धि के संचालक और प्रेरणा देने वाले बन जायें, तो जीवन में किस बात की चिन्ता, फिर तो वह उसी पथ पर ले जायेगा, जहां कल्याण है।
अर्जुन ने भी भगवान कृष्ण को अपने रथ का संवाहक बनाया और प्रार्थना की हे ईश्वर! आप मेरे रथ के सारथी हैं, जहां मुझे जाना चाहिये, वहां ले जाना और जहां मुझे रोकना है, रोक लेना यही अर्जुन के जीत का कारण बना।
इसलिये जो भगवान को अपनी बुद्धि अर्पित करके कहेगा कि हे भगवान! जहां मुझे ले जाना है, ले चलो और जहां रोकना है, रोक देना, आप मेरा सहारा बनना, मेरी प्रेरणा बनना, मेरा संवाहक बनना, तो जीवन में सन्मार्ग की प्राप्ति होती है, हमारे कर्म को सद्गति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार-
वह परमात्मा जो सब सुखों को प्रदान करने वाला है, जगत उत्पत्ति, पोषण और वर्धन का कारण है, जो सभी की आत्माओं का प्रकाश स्वरूप है, जो ग्रहण और धारण करने योग्य है, जो सभी क्लेशों को भस्म करने वाला पवित्र शुद्ध स्वरूप है, उसको मैं धारण करता हूं और वह ईश्वर हमारी बुद्धि को उच्च गुणों, स्वभाव से आप्लावित कर हमें सन्मार्ग दें।
इस प्रकार यह महामंत्र जीवन के सारभूत तथ्य को स्वयं में समेटे हुये है। जिसका जप साधक को करना चाहिये, प्रतिदिन ना भी कर सकें, तो वर्ष में एक बार 6 माला प्रतिदिन 11 दिन का संकल्प लेकर प्रत्येक साधक को अवश्य ही करना चाहिये।
ईश्वर आपका कल्याण करें, आपको सन्मार्ग की प्राप्ति हो——-शुभाशीर्वाद्——!
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