हरितालिका तीज का व्रत तपोमय व्रत माना जाता है। यह तीज व्रत भाद्रपद (भादो) शुक्ल तृतीया को मनायी जाती है। स्त्रियां इस व्रत को अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए रखती हैं, तो वहीं कुंवारी कन्यायें योग्य वर प्राप्ति के लिए इस व्रतीय नियम का पालन करती हैं। यह व्रत निराहार व निर्जला स्वरूप रखा जाता है, इसके व्रतीय नियम अन्य व्रतों से अत्यधिक तपोमय है, क्योंकि हरतालिका व्रत में तृतीया तिथि पूर्ण सम्पन्न होने के बाद ही अन्न या जल ग्रहण कर पाते हैं।
हरतालिका व्रत सर्वप्रथम मां गौरी ने महादेव को पति रूप में वरण करने के लिए रखा था। इसी के प्रभाव से भगवान शिव का परिवार सर्वश्रेष्ठ है। कथा अनुसार मां गौरी ने सती के बाद हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया। बाल्यावस्था से ही पार्वती भगवान शिव को वर रूप में प्राप्त करने के लिए संकल्पित थीं। जिसके लिए उन्होंने कठोर तप करने का मानस बनाया और बर्फीली पहाडि़यों, कड़कती ठण्ड में जल में खड़े रहकर तपस्या की, उन्होंने 12 वर्ष तक निराहार रहकर केवल सूखे पत्तों को खाकर व्रतीय नियम का पालन किया।
भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया के हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने मिट्टी का शिवलिंग बनाया और महादेव की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया, तब मां पार्वती की कठोर तपस्या व पूजन से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन देकर पत्नी रूप में स्वीकार किया। इसीलिए यह मान्यता है कि इस दिन व्रत के साथ-साथ श्रद्धा भाव से महादेव-गौरी का विधि से पूजन, व्रतीय नियम का पालन व मंत्र जाप आदि साधनात्मक क्रियाओं द्वारा स्त्रियां अखण्ड सौभाग्य, संतान सुख, आरोग्यता, सौन्दर्य, सम्मोहन आदि प्राप्त कर सकती हैं।
स्त्रियां घर की लक्ष्मी होती हैं, शादी के बाद वे जिस घर में जाती हैं, उस घर से उनका भाग्य जुड़ जाता है, स्त्रियों को ऐसे काम करने चाहिए जिससे घर में सदैव सुख- समृद्धि बनी रहे, ज्योतिष व वास्तु में ऐसे उपाय बताये गए हैं जिससे घर में सुख-समृद्धि, उन्नति प्रगति बनी रहती है प्रतिदनि शाम को तुलसी के सामने घी का दीप जलाये वास्तु में उत्तर-पूर्व दिशा को सकारात्मक ऊर्जा का केन्द्र माना गया है- इस दिशा में सदैव साफ सफाई रखनी चाहिए- घर के मुख्य द्वार के बाहर के भाग को प्रतिदिन पानी से साफ करना चाहिए- इसके अतिरिक्त हफ्ते में एक बार गंगाजल और कच्चा दूध मिश्रित पानी से पूरा घर साफ करना चाहिए- इसके बाद मुख्य द्वार पर कुमकुम से स्वस्तिक बनाएं- महिलाएं सोने से पूर्व अपने बालों को ना धोयें, इससे घर की वृद्धि में बाधा उत्पन्न होती है, सप्ताह में एक बार सोने से पूर्व घर के सभी कमरों में थोड़ा सेंधा नमक या काला नमक पेपर में रखकर फर्श पर खुला छोड़ दें और सुबह उठकर सबसे पहले बिना किसी से बात किये उसे घर से बाहर फेंक देना चाहिए, इन सभी क्रियाओं से मलिन शक्तियों का वास घर में नहीं होता और वृद्धि की स्थितियां बनी रहती हैं।
हरतालिका व्रत निर्जल किया जाता है अर्थात् पूरा दिन व रात्रि के पश्चात् अगले दिन सूर्योदय तक जल ग्रहण नहीं करना चाहिए।
हरतालिका व्रत कुंवारी कन्यायें योग्य, श्रेष्ठ, इच्छित वर की प्राप्ति हेतु और स्त्रियां अखण्ड सुहाग सौभाग्य, संतान सुख, आरोग्यता, सौन्दर्य, सम्मोहन, सुखद-सफल गृहस्थ जीवन के लिए करती हैं।
हरतालिका व्रत का नियम है कि इसे एक बार प्रारम्भ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता। यह व्रत प्रत्येक वर्ष पूर्ण नियम से किया जाता है।
पूजन सामग्री- काली मिट्टी, रेत (बालू), केले के पत्ते, पुष्प, माता गौरी के लिए श्रृंगार का सामान, घी का दीपक, कपूर, कुंकुम, सिंदूर, चंदन, कलश, कलावा आदि।
हरतालिका तीज पूजन प्रदोष काल में किया जाता है। 12 सितम्बर बुधवार को प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर पूरा श्रृंगार करें, पश्चात् ऊनी आसन पर बैठ जायें, पूजन का समय प्रातः 06:08 बजे से 08:35 बजे तक है, जिसके मध्य पूजन पूर्ण करना है। काली मिट्टी और रेत से भगवान शिव, मां पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा पूर्व में ही बनाकर रखें।
अपने सामने एक चौकी पर रंगोली बनायें, उस पर एक थाली रखें, फिर उस थाल में केले के पत्ते बिछा दें, अब तीनों प्रतिमाओं को केले के पत्ते पर स्थापित करें दाहिनी ओर सद्गुरुदेव का चित्र भी स्थापित कर दें। फिर कलश स्थापित कर उसमें अक्षत, पुष्प, अष्टगंध व गंगाजल मिश्रित करें, इसके पश्चात् कलश के ऊपर कलावा बांध कर एक मिट्टी का दीपक प्रज्ज्वलित करें। कलश पर तिलक लगाकर अक्षत चढ़ाएं। भगवान गणेश व सद्गुरुदेव का पंचोपचार पूजन करें, फिर भगवान शिव का पूजन कर माता गौरी को पूरा श्रृंगार का सामान अर्पित कर सिन्दूर लगायें। फिर ककड़ी एंव हलवे का भोग लगाकर अपने अखण्ड सौभाग्य व इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करें, 10 मिनट तक भगवान शिव-माता गौरी का ध्यान करें। फिर शिव-पार्वती आरती सम्पन्न करें।
दूसरे दिन सामान्य पूजन करें फिर अर्पित ककड़ी खाकर पारण कर लें। इसके पश्चात् अन्न-जल ग्रहण करें। अन्त में सभी सामग्री किसी पवित्र नदी में विसर्जित कर दें। हरतालिका व्रत में स्त्रियां समूह में एकत्रित होकर रात्रि जागरण करते हुए भजन, पूजन, कीर्तन करती हैं। इस व्रतीय नियम का पूरी निष्ठा से पालन करना आवश्यक बताया गया है। साधना, पूजन, उपवास, व्रत आदि की अपनी महत्ता है। जिसकी जैसी श्रद्धा, भावना होती है, उसी रूप में वह इन क्रियाओं को महत्व देता है। प्रत्येक क्रिया का एक निश्चित फल होता है, जो शुद्ध, चैतन्य, समर्पित भाव से करने पर निश्चित रूप से प्राप्त होता है। साधक-साधिकायें अपने भाव-विचार के अनुसार ऐसी पारम्परिक क्रियाओं को सम्पन्न कर भी लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
यूनान के प्रसिद्ध संत सुकरात एक बार भ्रमण करते हुए एक शहर में पहुंचे। वहां उनकी एक वृद्ध व्यक्ति से मुलाकात हुई। थोड़ी ही देर में दोनों काफी घुल-मिल गये। सुकरात ने व्यक्ति के पारिवारिक जीवन में काफी रूचि के साथ खुलकर बातें की।
सुकरात ने सन्तोष व्यक्त करते हुए कहा आपका युवा जीवन तो बहुत ही श्रेष्ठमय ढंग से व्यतीत हुआ है और चुटकी लेते हुए बोले- पर इस वृद्धावस्था में आपको कौन-कौन से पापड़ बेलने पड़ रहें हैं, यह तो जरा बताइये ?
वृद्ध ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा- मैं अपना पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने पुत्रों को देकर और इन सभी को सर्व सामर्थ्यवान प्रभु को समर्पित करके निश्चिन्त हूं। वे जो कहते हैं कर देता हूं, जो खिलाते हैं खा लेता हूं, जैसे रखते हैं वैसे रह लेता हूं और अपने पौत्र-पौत्रियों के साथ खेलता रहता हूं। बच्चे कभी भूल करते हैं, तब भी चुप रहता हूं। मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता। पर जब कभी वे परामर्श लेने आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखकर की हुई भूल से उत्पन्न दुष्परिणामों से सचेत कर देता हूं। वे मेरी सलाह पर कितना चलते हैं, यह देखना और अपना मस्तिष्क खराब करना मेरा काम नहीं है। वे मेरे निर्देशों पर चलें यह मेरा आग्रह है, लेकिन इसके लिए मैं उन्हें बाध्य नहीं करता, वे अपनी सूझ-बूझ से कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं। परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो चिन्तित नहीं होता। उस पर भी वे पुनः मेरे पास आते हैं तो मेरा दरवाजा सदा उनके लिए खुला रहता है। मैं पुनः उचित सलाह देकर उन्हें विदा करता हूं।
वास्तव में जीवन के हर पड़ाव में समय अनुसार परिवर्तन आवश्यक है। शांत चित्त सामर्थ्य भाव से अपने कार्यों को करते रहना और व्यर्थ की चिंताओ से स्वयं को दूर रखने में ही भलाई है। साथ ही स्वयं को सक्रिय व क्रियाशील बनाएं रखना चाहिए। परिवार के सदस्यों से अपनी ओर से सहयोगात्मक व्यवहार करने से स्थितियां स्वयं के नियंत्रण में रहती हैं। तब ही वृद्धावस्था सुख-शांति पूर्वक व्यतीत हो पाती हैं।
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