जिन परिस्थितियों में आज का मानव जीवन यापन कर रहा है, वे स्थितियां भगवान कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन में रहीं हैं। सदा वे अपने ही घर के शत्रुओं से घिरे रहें हैं। उनके जीवन की अधिकांश लड़ाईयां अपनो के मध्य ही हुई, कहीं पर वे सामंजस्य स्थापित कर समस्याओं का निदान करते हुए दिखें, कहीं पर उन्होंने रण कौशल का सहारा लिया और कहीं पर महाभारत जैसे युद्ध के नियन्ता बने और ऐसा भी नहीं कि उनके जीवन में केवल युद्ध ही युद्ध रहा, वे सम्पूर्ण प्रेम के साकार रूप भी हैं, उनके जीवन में हास्य, आनन्द, नृत्य, प्रेम, रस, आनन्द, सौन्दर्य, सम्मोहन का भी पूर्णता से समावेश है। वे कुशल राजनीतिज्ञ-कूटनीतिज्ञ भी हैं, वे श्रेष्ठ शासक भी हैं, पूर्ण प्रेमी भी हैं, रणक्षेत्र में अपराजित योद्धा भी हैं तो वहीं पूर्ण भोगी भी हैं और इन सबमें उनकी कोई आसक्ति भी नहीं है, इसलिए वे योगियों के भी योगेश्वर हैं। इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी होते हुए भी उनमें जरा सा भी दम्भ, अहंकार नहीं है, जिसका प्रतीक उनके मित्रवत प्रेम सुदामा-कृष्ण के चरित्र में स्पष्ट होता है।
ऐसे सम्पूर्ण कलापूर्ण व्यक्तित्व की दिव्यता और चेतना को आत्मसात करने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति में होती है, क्योंकि यही वह आधार है, जिसके द्वारा सांसारिक जीवन को सरल, सहज और श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। योगेश्वर कौस्तुभमणि चौसठ कला प्राप्ति दीक्षा से नित्य जीवन में आने वाले संघर्षों का व्यक्ति श्रेष्ठता से सामना कर पूर्णता विजयी होता है और आवश्यकता अनुसार जीवन के सभी पक्षों में सामंजस्य बनाने में सफल हो पाता है साथ ही जीवन की सभी कलाओं में निपुण बनकर सामाजिक, पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करने में समर्थ होता है। सत्य तो यह है कि सांसारिक जीवन में अधिकांश समस्या अपनों के मध्य होती है, जिसमें अत्यधिक कुशलता, निपुणता, चार्तुयता की आवश्यकता होती है और ये स्थितियां भगवान श्रीकृष्ण की चौसठ कला चेतना स्वरूप में आत्मसात करने से स्वतः ही प्राप्त होने लगती हैं, जिससे साधक सर्व सफलता युक्त जीवन व्यतीत करता हुआ योग-भोग दोनो में पूर्णता प्राप्त करता है।
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