ज्योतिष गणना के क्रम में कुम्भ का आयोजन चार प्रकार से माना गया है। बृहस्पति के कुम्भ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार गंगा तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति के मेष राशि तथा सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रविष्ट होने पर अमावस्या दिवस को प्रयागराज त्रिवेणी संगम तट पर कुम्भ महापर्व सम्पन्न होता है। बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन शिप्रा तट पर कुम्भ पर्व सम्पन्न होता है।
आस्था, विश्वास, श्रद्धा, ज्ञान, चेतना का महापर्व है कुम्भ। कुम्भ महापर्व ऐसी प्रेरक भावभूमि है, जो आदिकाल में समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत का द्योतक है। जो साक्ष्य है कि बिना कर्मरूपी मंथन के जीवन में अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती है। कुम्भ पर्व प्रकृति एवं जीव तत्व में सामंजस्य स्थापित कर जीवनदायी शक्तियों का समाविष्ट करता है। मानव जीवन का आधार सम्पूर्ण प्रकृति ही है, अतः इसके साथ सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य माना गया है, कहा भी जाता है- यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे अर्थात् जो इस शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है। ब्रह्माण्ड की शक्तियों के साथ पिण्ड (शरीर) का परस्पर सामंजस्य बना रहे और जीवन में निरंतर जीवनी शक्ति का संचार होता रहे, इसी का महापर्व है कुम्भ।
साथ ही जीवन रूपी मंथन में प्राप्त होने वाले अमृत का अक्षुण्ण लाभ मिल सके, साधक अपने सांसारिक जीवन में कर्म मंथन करते हुये प्रगति की नवीन उच्चता की प्राप्ति कर सकें, यह साधना इन्हीं विशेष रहस्यों को स्वयं में समेटे हुये है। जो मूलतः कर्म प्रभाव प्रकाशिनी रूप में लक्ष्मी तत्व के रहस्य को स्पष्ट करती है अर्थात् जो व्यक्ति जीवन में निरन्तर लक्ष्मी तत्व रूपी अपार क्रिया शक्ति से आपूरित रहता है, वही जीवन में अमृत की अर्थात् लक्ष्मीमय सुस्थितियों की प्राप्ति कर पाता है।
त्रिवेणी संगम को तीर्थों का प्रयागराज कहा जाता है, क्योंकि यही वह स्थान है, जहां सनातन धर्म की तीन प्रमुख पौराणिक रूप से महत्वपूर्ण और सर्व स्वरूप में पुण्य दायिनी नदियों का संगम होता है, जिसे शास्त्रों ने अक्षयवट कहा है अर्थात् अक्षय रूपी स्थितियों की जननी और निर्माता है। प्रयाग ही वह एकमात्र स्थान है, जहां भारत की सभी धार्मिक महत्ता को समेटे गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है, इस स्थान को ओंकार के नाम से भी अभिहित किया गया है। नरसिंह पुराण में भगवान विष्णु को प्रयागराज में योगमूर्ति रूप में विराजमान बताया गया है। यहां सरस्वती नदी अदृश्य रूप में विद्यमान है, जो आन्तरिक ज्ञान, चेतना, ऊर्जा की द्योतक है।
उक्त सभी वर्णन का तात्पर्य यही है कि साधक के जीवन में भी अमृत रूपी लक्ष्मी तत्व का पूर्णता वास बने और वह अपने जीवन में कर्म, भाग्य व लक्ष्मी के संगम से त्रिवेणी स्वरूप में जीवन को अमृतमय बना सके तब ही जीवन की विष पूर्ण स्थितियां समाप्त होंगी और इसी के फलस्वरूप देवत्व भाव की वृद्धि होगी, इसी से सांसारिक जीवन में सभी स्वरूपों में सर्वश्रेष्ठता प्राप्त की जा सकेगी।
इस साधना को 15 जनवरी मकर संक्रान्ति, 21 जनवरी पौष पूर्णिमा, 4 फरवरी मौनी अमावस्या, 10 फरवरी बंसत पंचमी, 19 फरवरी माघी पूर्णिमा, 4 मार्च महाशिवरात्रि दिवसों में किन्हीं दो दिवस पर सम्पन्न करें।
सबसे पहले प्रातः काल जल स्नान में थोड़ा गंगाजल जल मिश्रित कर गंगा, यमुना व सरस्वती देवमय शक्ति युक्त नदियों का आवाहन व चिंतन करते हुये स्नान करें, पश्चात् शुद्ध वस्त्र धारण कर अपने पूजा स्थान में पूर्व दिशा की ओर मुंह कर बैठ जायें, 5 मिनट तक अपने आज्ञा चक्र पर ध्यान लगायें।
अब अपने सामने बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर कुंकुम से ऊँ अंकित करें, अब ऊँ के ऊपर त्रि-शक्ति यंत्र स्थापित कर दें, यह त्रि-शक्ति यंत्र ब्रह्माण्ड के तीन महा-शक्ति जिससे सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन होता है, यही तीन शक्तियां ब्रह्मा, विष्णु, महेश, महागौरी, महालक्ष्मी, महासरस्वती, गंगा, यमुना, सरस्वती, क्रिया, ज्ञान, इच्छा और सत्, रज, तम स्वरूप में विद्यमान है। संसार की सभी क्रियायें तीनों महाशक्तियों के संयोग से संचालित होती हैं।
यंत्र के बायीं ओर त्रिभुज बनाकर उस पर त्रिवेणी क्रियाशक्ति जीवट व वर-वरद लक्ष्मी माला स्थापित कर सभी का पंचोपचार पूजन कर सद्गुरुदेव का ध्यान करें, पश्चात् निम्न मंत्र का 3 माला मंत्र जप सम्पन्न करें।
साधना पूर्ण होने पर यंत्र, जीवट, माला किसी संगम स्थल पर विसर्जित कर दें अथवा व्यक्तिगत रूप से गुरु चरणों में अर्पित कर, आशीर्वाद ग्रहण करें।
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